गायत्री मन्त्र के जप से मन्द बुद्धि बालक विख्यात विद्वान बना

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मनमोहन कुमार आर्य

महात्मा(पूर्व आश्रम का नाम खुशहाल चन्द) का नाम आज भी प्रायः प्रत्येक आर्यसमाज का सक्रिय अनुयायी जानता है। आपके प्रवचन पुस्तक रूप में प्रकाशित मिलते हैं जिन्हें लोग बहुत श्रद्धा से पढ़ते हैं। इन्हें पढ़कर कोई भी व्यक्ति वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का जानकार बन सकता है। जो भी पढ़ेगा उसका निश्चित रूप से ज्ञान व चरित्र सुधरेगा, उसकी प्रसिद्धि बढ़ेगी और वह स्वात्मानन्द की उपलब्धि भी अवश्य ही करेगा ऐसा निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है। महात्मा जी की जो पुस्तकें उपलब्ध हैं उनमें से कुछ प्रसिद्ध पुस्तकों के नाम हैं महामन्त्र, तत्वज्ञान, दो रास्ते, प्रभु दर्शन, प्रभु भक्ति, सुखी गृहस्थ, एक ही रास्ता, घोर घने जंगल में, मानव जीवन गाथा, भक्त और भगवान, उपनिषदों का सन्देश, यह धन किसका है, दुनिया में रहना किस तरह? आदि। जिन लोगों ने इन पुस्तकों को पढ़ा है वह भाग्यशाली हैं क्योंकि यह पुस्तकें ज्ञान की उन्नति कर मनुष्यों में विवेक उत्पन्न करती हैं जो जीवन के लक्ष्य मोक्ष तक पहुंचाता है। महात्मा जी का बाल्यकाल मन्द बुद्धि बालकों के समान था। वह स्कूल जाते थे परन्तु परीक्षाओं में फेल हो जाते थे। प्रायः प्रतिदन स्कूल में उन्हें पाठ याद न करने तथा होम वर्क न करने आदि के कारण डांट पड़ती थी। घर में बच्चे की पढ़ाई में रूचि न होने के कारण भी माता-पिता से डांट खानी पड़ती थी। इस कारण यह बालक अपने प्रारम्भिक जीवन में प्रसन्न रहने के स्थान पर निराशा से भरा रहा करता था। इसे समझ में नहीं आता था कि वह क्या करे जिससे कि उसकी स्मरण शक्ति उन्नत हो, उसे पाठ याद हो जाया करें और पढ़ाई में उसका मन लगे।

 

महात्मा आनन्द स्वामी जी का बचपन का खुशहाल चन्द था। आपके पुत्र रणवीर जी के अनुसार आपका जन्म सन् 1883 की कार्तिक मास में हुआ था। जन्म दिवस को कार्तिक मास, शुक्ल पक्ष की एकादशी और दिन मंगलवार था। जन्म स्थान वर्तमान पाकिस्तान का गांव जलालपुर जट्टां था। पिता का नाम मुंशी गणेश दास था। स्वामी दयानन्द जी अपने जीवन काल में गणेश दास जी के गांव आये थे। यह परिवार सहित ईसाई बन रहे थे। स्वामी जी के प्रवचनों ने इनकी रक्षा की और इनका पूरा परिवार ईसाई होने से बच गया। खुशहाल चन्द जी के जन्म के पांच छः वर्ष बाद सन् 1883 में इनको पाठशाला में प्रविष्ट किया गया। इतिहास व गणित विषय इनको समझ नहीं आते थे। पिता के साथ भजन गाना, भक्ति के प्रसंग सुनना व सुनाना, सत्संग आदि करना ही इनको अच्छा लगता थां इतिहास व गणित में पास न होने के कारण इनके अध्यापक इनकी ताड़ना करते थे। अपने पुत्र की इस स्थिति से पिता गणेश दास जी खिन्न व दुःखी थे। अतः उन्होंने स्कूल से आने के बाद इन्हें पशु चराने का काम सौंपा जिससे इनकी बुद्धि कुछ उन्नत हो सके। इस प्रयत्न का भी खुशहाल चन्द जी पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। समय आने पर पिता ने अपने पुत्र का यज्ञोपवीत संस्कार भी कराया परन्तु इसका भी उनकी बुद्धि पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।

 

इन्हीं दिनों आर्यसमाज के विख्यात संन्यासी स्वामी नित्यानन्द सरस्वती जी जलालपुर में वैदिक धर्म के प्रचारार्थ पहुंचें। मुंशी गणेश दास जी ने उन्हें ‘महन्तों के बाग’ स्थान पर ठहराया जो उनके गांव से लगभग दो मील दूर था। स्वामी जी की भोजन व्यवस्था का भार भी गणेशदास जी पर था। पिता ने इस काम पर अपने पुत्र खुशहाल चन्द को लगाया। वह प्रातः व सायं दोनों समय स्वामी नित्यानन्द जी के लिए भोजन ले जाया करते और उन्हें भोजन कराकर बर्तन लेकर अपने घर लौटा करते थे। बालक पर स्कूल व घर में माता-पिता की डांट व ताड़ना का प्रभाव रहता जिसके कारण उसका चेहरा निराश व मुरझाया सा रहता था। एक दो दिन तो स्वामी जी ने यह देखा परन्तु जब उन्होंने देखा कि इसके चेहरे पर प्रसन्नता का कोई चिन्ह आता ही नहीं है तो उन्होंने भोजन करके उससे पूछा कि खुशहालचन्द ! बताओं तुम्हें क्या दुःख है? तुम्हारे चेहरे से लगता है कि तुम्हे कोई चिन्ता व दुःख सता रहा है जिसके कारण तुम्हारा चेहरा हर्षित न होकर चिन्ताओं से ग्रस्त लगता है। खुशहालचन्द जी ने स्वामी जी के यह शब्द सुने तो उनकी आंखे आंसुओं से भर गई और आंसु छलक गये। स्वामी जी बोले कि तुम मेरे लिये दोनों समय भोजन लाते हो। कितना अच्छा काम करते हो परन्तु तुम्हारा चेहरा देखकर मुझे अच्छा नहीं लगता। मुझे अपना दुःख सच सच बताओ। यदि मैं कुछ कर सकूंगा तो तुम्हारे लिए अवश्य करूंगा। स्वामी जी के सहानुभूतिपूर्ण शब्द सुनकर तो उसके आंसु अनियंत्रित होकर धारा प्रवाह से बहने लगे। स्वामी जी ने उसे पुचकारा और कहा कि रोओ नहीं, जो भी बात हो मुझे बता दो। खुशहाल चन्द जी ने स्वामी जी की आत्मीयता देखकर उन्हें कहा कि स्वामी जी मैं मन्द बुद्धि हूं। पाठशाला में जो पढ़ाया जाता है वह मुझे याद नहीं होता। वह सब भूल जाता हूं। पाठशाला में अध्यापक डांटते हैं, घर में पिता जी और माता जी भी ताड़ना करती हैं। यही मेरी इस स्थिति का मुख्य कारण है।

 

स्वामी जी ने यह सुनकर आत्मीयता से कहा बस इतनी सी बात से घबरा गये? इसका समाधान तो बहुत सरल है। मैं तुम्हे गायत्री मन्त्र अर्थ सहित लिखकर देता हूं। इससे कुछ ही दिनों में तुम्हारी मन्द बुद्धि तीव्र बुद्धि में बदल जायेगी। स्वामी जी ने उसे कहा कि प्रातः नित्य कर्मों को करके और रात्रि को सोने से पूर्व गायत्री मन्त्र का अर्थ सहित, अर्थ के अनुरूप भावना करके पूरी श्रद्धा के साथ नियमित जप करना। यह कहकर स्वामी जी ने खुशहाल चन्द जी को मन्त्र व उसका अर्थ लिखकर व उसे समझाकर वह कागज दे दिया।

 

खुशहालचन्द जी ने स्वामी जी की शिक्षा के अनुसार गायत्री मन्त्र का श्रद्धापूर्वक जप इस प्रकार से किया कि आगामी कुछ ही दिनों में उसके जीवन में चमत्कार हो गया। अब उन्हें पढ़ाई के लिए न तो स्कूल में डांट पड़ती थी और न घर में। सभी ओर उनकी प्रशंसा की जाने लगी। जब पहला छठी कक्षा का परिणाम आया तो उसके सब विषयों में पास हो जाने पर माता-पिता व अध्यापकों को आश्चर्य हुआ। सातवीं कक्षा में वह अपनी कक्षा में सबसे अधिक अंक लेकर पास हुए तो यह सिद्ध हो गया कि वह मन्द बुद्धि बालक नहीं हैं। आठवीं कक्षा में भी वह पास हुए। बाद में आर्यसमाज का विद्वान बनने पर जब भी गायत्री मन्त्र की महिमा का प्रसंग आता तो वह अपनी निजी जीवन की कथा भी सुनाते थे। जीवन के अन्तिम दिनों में भी उन्होंने कहा कि ‘जीवन में मैंने जो कुछ भी प्राप्त किया, वह गायत्री माता की कृपा से ही प्राप्त किया।’

 

गायत्री मंत्र के जप से खुशहाल चन्द जी में आत्मविश्वास उत्पन्न हुआ। वह जीवन में निरन्तर आगे बढ़ते रहे। अपने पुरुषार्थ से आपने 13 अप्रैल, 1923 को लाहौर से उर्दू का दैनिक समाचार पत्र ‘मिलाप’ निकाला जो अपने समय में देश का प्रमुख उर्दू पत्र था। वर्तमान में दिल्ली से उर्दू एवं जालन्धर से उर्दू व हिन्दी में मिलाप पत्र का प्रकाशन होता है। महात्मा आनन्द स्वामी जी के पौत्र पद्मश्री श्री पूनम सूरी जी इन पत्रों के कुछ समय पूर्व तक प्रबन्ध निदेशक रहे हैं। यह पत्र वर्तमान में भी पूर्ण सफलता के साथ प्रकाशित हो रहे हैं। यह भी बता दें कि खुशहाल चन्द जी ही भावी जीवन में संन्यास लेकर महात्मा आनन्द स्वामी जी के नाम से विख्यात हुए। स्वामी योगेश्वरानन्द जी उनके योग गुरू थे। अपने व्यस्त जीवन से समय निकाल कर महाशय खुशहाल चन्द जी महीने दो महीनों के लिए वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून आ जाया करते थे और यहां रहकर कठोर तप व ध्यान साधना करते थे। यह आश्रम भी आपकी ही प्रेरणा से अमृतसर के बावा गुरमुख सिंह जी द्वारा स्थापित किया गया था जो आरम्भिक दिनों में लगभग 300 एकड़ भूमि में विस्तीर्ण था। हमारा सौभाग्य है कि हम भी सन् 1970 से इस आश्रम से जुड़े हुए हैं। हमने सन् 1975 में दिल्ली के रामलीला मैदान में आर्यसमाज की स्थापना शताब्दी के समारोह में महात्मा आनन्द स्वामी जी को देखा भी और उनके प्रवचन भी सुने। एक बार आर्यसमाज अनारकली, दिल्ली के उस कक्ष में भी रात्रि विश्राम किया जिसमें स्वामी जी रहा करते थे। महात्मा आनन्द स्वामी जी समाज सुधारक भी थे और महात्मा हंसराज जी के साथ आपने समाज रक्षा व सुधार के अनेक कार्य किये। मोपला विद्रोह के अवसर पर सहस्रों धर्मान्तरित स्वधर्म बन्धुओं का पुनः वैदिक धर्म में प्रवेश कराया व उनकी रक्षा के प्रबल उपाय किये। आप एक अच्छे विद्वान, वक्ता व लेखक भी रहे। आर्यसमाज में सर्वत्र आपका यश छाया हुआ है और हमेशा छाया रहेगा। आपके सभी ग्रन्थ ही आपके यशः शरीर हैं जो सदा सदा के लिए अमर है। उनका अध्ययन कर हम भी स्वयं को उन्नत बना सकते हैं। महात्मा जी की एक जीवनी ‘महात्मा आनन्द स्वामी’ नाम से श्री सुनील शर्मा जी ने लिखी है। इसका प्रकाशन आर्य साहित्य के प्रमुख प्रकाशक ‘गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली’ ने सन् 1989 में किया था। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने भी महात्मा जी की जीवनी लिखी हैं।

 

हमने इस लेख में गायत्री मन्त्र का निष्ठा व श्रद्धापूर्वक जप करने का प्रभाव रेखांकित करने का प्रयास किया है। हम आशा करते हैं कि पाठक इससे लाभ उठायेंगे। इसके लिए स्वामी जी की पुस्तक महामन्त्र को मंगाकर भी अवश्य पढ़े, यह हमारी सलाह है। ओ३म् शम्।

 

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