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गज़ल: रफ़्ता रफ़्ता खुशियाँ –सतेन्द्रगुप्ता - प्रवक्‍ता.कॉम - Pravakta.Com
रफ़्ता रफ़्ता खुशियाँ जुदा हो गई खुद-बुलंदी की राख़ जमा हो गई। लौटकर न आये वे लम्हे फिर कभी और ज़िन्दगी बड़ी ही तन्हा हो गई। ज़िस्म का शहर तो वही रहा मगर खुदमुख्तारी शहर की हवा हो गई। कैसे गुज़री शबे-फ़िराक़, ये न पूछ मेरे लिए तो मुहब्बत तुहफ़ा…