अरविंद जयतिलक
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में मिजोरम को छोड़ कांग्रेस को शेष चारों राज्यों में भाजपा के हाथ करारी शिकस्त मिली है। दिल्ली और राजस्थान में उसका पूरी तरह सफाया हो गया है वही मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ता भोग लगाने का सपना अधूरा रह गया। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा सत्ता का हैट्रिक लगाने में कामयाब रही। उसके प्रचंड वेग के आगे राजस्थान में भी गहलोत का किला टिका नहीं रह सका। यहां कांग्रेस को अब तक की सबसे शर्मनाक हार मिली है। दिल्ली में भाजपा को मध्यप्रदेश और राजस्थान की तरह शानदार विजय नहीं मिली है लेकिन वह सबसे बड़े दल के रुप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है। उसे बहुमत से चार कम यानी कुल 32 सीटें हासिल हुई है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की एक साल पुरानी आम आदमी पार्टी ‘आप’ ने 28 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया है। कांग्रेस तीसरे नंबर पर आ गयी है और भाजपा सरकार बनाने के मुहाने पर पहुंचकर रह गयी है। स्वयं मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को केजरीवाल के हाथों करारी हार मिली है। वह तकरीबन 25 हजार से अधिक मतों से हारी हैं। ऐतिहासिक रूप से तेलगुदेशम और असम गण परिषद के बाद ‘आप’ ऐसी तीसरी पार्टी के रुप में उभरी है जो अपने गठन के पहले ही चुनाव में ऐतिहासिक जीत हासिल की है। चुनाव के दरम्यान ‘आप’ को 10-15 सीटें देने वाले राजनीतिक दलों और चुनावी विश्लेषकों को तनिक भी अनुमान नहीं था कि वह बुलंदियों पर जा पहुंचेगी। इस जीत का श्रेय अरविंद केजरीवाल को जाता है जिन्होंने महंगाई, भ्रष्टाचार, बिजली, पानी और सुरक्षा जैसे संवेदनषील मसलों पर आमजन को बदलाव के लिए प्रेरित किया।
अन्ना के नैतिक आभा में लोकपाल आंदोलन के सूत्रधार केजरीवाल 2011 की अगस्त क्रांति में ही दिल्ली की जनता की इस भावना को समझ लिए थे कि वह एक बेहतर राजनीतिक विकल्प की तलाश में है। लेकिन कांग्रेस और उसकी नेतृत्ववाली यूपीए सरकर यह संकेत समझ नहीं सकी या यों कहें कि वह अपने दर्प में डूबी रही। उसके नुमाइंदे पों-पों करते रहे कि अन्ना के आंदोलनकारी जनलोकपाल के लिए चुनावी मैदान में उतरें। उनकी इस चुनौती को टीम केजरीवाल ने सहर्श स्वीकार लिया लेकिन समाजसेवी अन्ना से उन्हें अलग होना पड़ा। अन्ना राजनीतिक दल बनाने को तैयार नहीं थे। चुनाव से पहले केजरीवाल ने एक सधे सियासतदान की तरह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा, भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नीतीन गडकरी, सलमान खुर्शीद, शीला दीक्षित और मुकेश अंबानी पर हमला बोल संकेत दे दिया कि वह दिल्ली की जंग गंभीरता से लड़ेंगे। हालांकि भाजपा और कांग्रेस ने भी केजरीवाल और उनकी टीम पर कम पलटवार नहीं किए। चुनाव के दरम्यान तो ‘आप’ की मुश्किल तब बढ़ गयी जब उसके कुछ उम्मीदवार मीडिया सरकार के स्टिंग ऑपरेशन में फंसे दिखे। लेकिन पार्टी इससे विचलित नहीं हुई और इसे विरोधियों का साजिश बता आरोप को दरकिनार कर दिया। हालांकि ‘आप’ को भी दिल्ली में सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल नहीं मिला है लेकिन वह लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब रही। अब सवाल अब यह उठ खड़ा हुआ है कि आखिर दिल्ली में सरकार का गठन कैसे होगा? केजरीवाल ने स्पष्ट कर दिया है कि उनकी पार्टी भाजपा और कांग्रेस किसी से भी समर्थन नहीं लेगी और न देगी। यानी ‘आप’ विपक्ष में बैठने को तैयार है। हालांकि चुनाव परिणाम के तत्काल बाद कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद ने बयान दिया कि अगर ‘आप’ कांग्रेस से समर्थन मांगती है तो पार्टी उस पर विचार कर सकती है। लेकिन ‘आप’ ने कांग्रेस के ऑफर को ठुकरा दिया है। यह ‘आप’ के हित में भी है। अगर वह कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनाती तो उसकी साख धूल-धुसरित होती। ‘आप’ की तर्ज पर भारतीय जनता पार्टी ने भी एलान कर दिया है कि चूंकि दिल्ली में उसे सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला है ऐसे में वह जोड़-तोड़ से सरकार नहीं बनाने वाली। जरुरत पड़ी तो विपक्ष में बैठना पसंद करेगी। देखा जाए तो सरकार बनाने के लिए भाजपा को एक-दो विधायकों को जुटाना कोई कठिन काम नहीं है। लेकिन वह हाई मोरल दिखाने का उचित निर्णय लिया है। अब सवाल यह उठता है कि क्या दिल्ली में उप-राज्यपाल का शासन लागू होगा? मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए इससे इंकार नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा हुआ तो लोकसभा चुनाव के साथ दिल्ली के लोगों को पुनः चुनावी अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा। फिलहाल देखना दिलचस्प है कि दिल्ली की राजनीति किस करवट बैठती है।
बहरहाल, इन चारों राज्यों के चुनाव परिणामों से स्पष्ट है कि जनता ने कांग्रेस को नकार दिया है और देश में कांग्रेस विरोधी लहर है। यह जनादेश भ्रष्टाचार, महंगाई, असुरक्षा और कुशासन के खिलाफ जनता के गुस्से का प्रकटीकरण है वही विकास केंद्रीत राजनीति पर मुहर भी। यही वजह है कि राजस्थान और दिल्ली में कांग्रेस को करारी शिकस्त मिली है और मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में भाजपा की हैट्रिक लगी है। चारो खानें चित्त कांग्रेस अब यह कह रही है कि दिल्ली और राजस्थान में उसकी हार सत्ता विरोधी लहर के कारण हुई। लेकिन यह स्वीकारयोग्य नहीं है। अगर ऐसा होता तो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी सत्ता विरोधी लहर देखने को मिलता। इसलिए कि भाजपा भी यहां दस वर्षों से सत्ता में है। सच तो यह है कि दिल्ली और राजस्थान में कांग्रेस की हार उसकी सरकारों की जनविरोधी रवैया और कुशासन का परिणाम है। निश्चित रुप से दिल्ली में शीला सरकार ने बेहतरीन काम किया है। लेकिन उसके मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप भी लगे। कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले के लिए शुंगलू कमेटी ने शीला सरकार को जिम्मेदार ठहराया लेकिन सरकार ने एक भी भ्रष्ट मंत्रियों पर कार्रवाई नहीं की। इसके अलावा षीला सरकार महिलाओं को सुरक्षा देने में भी नाकाम रही। दिल्ली सरकार की तरह राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार भी भ्रष्टाचार के दलदल में सनी दिखी। राज्य में सरकार की नाकामी की वजह से सांप्रदायिक दंगे भी हुए। सरकार के कुछ मंत्रियों पर बलात्कार के आरोप लगे। लेकिन गहलोत सरकार भ्रष्ट और बलात्कारी मंत्रियों पर कार्रवाई के बजाए बेशर्मी से उनका बचाव करती रही। जनता में गलत संदेश गया और मौका मिलते ही हिसाब-किताब बराबर कर ली। चुनाव से पहले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने दागियों को चुनाव में टिकट न देने का एलान किया था। लेकिन कांग्रेस दागियों पर ही किस्मत आजमाती दिखी। नतीजा सामने है। गौर करने वाली बात यह कि इन चारों राज्यों में कांग्रेस की हार के लिए केंद्र सरकार भी बराबर की जिम्मेदार है। महंगाई और भ्रश्टाचार उसकी ही देन है। लेकिन मनमोहन सरकार इससे निपटने के बजाए मनरेगा, खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण कानून का हवाला देकर इस पर पर्दादारी का प्रयत्न करती रही। लेकिन वह जनता की आंखों में धूल झोंकने में कामयाब नहीं हो सकी। यह जनादेश कांग्रेस के लिए खतरनाक संदेश है। अगर वह महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ ठोस कदम नहीं उठाती है तो छः महीने बाद होने जा रहे आम चुनाव में उसे करारी मात मिलनी तय है।
इन जनादेश से सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या ये नतीजे भविष्य के संकेत हैं? क्या इन नतीजों से भारतीय राजनीति का मौजूदा समीकरण बदलेगा? क्या भाजपा को एनडीए का विस्तार करने में मदद मिलेगी? उसके साथियों की संख्या बढ़ेगी? सवाल यह भी कि क्या ये नतीजे मोदी की स्वीकार्यता पर मुहर हैं? क्या कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व या यों कहें कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी असफल साबित हुए हैं? ढ़ेरों ऐसे सवाल सतह पर तैरने लगे हैं। हालांकि कांग्रेस मानने को तैयार नहीं है कि इन चुनावी नतीजों का आम चुनाव पर असर होगा। वह यह भी स्वीकारने को तैयार नहीं है कि नरेंद्र मोदी का करिश्माई व्यक्तित्व इन नतीजों को प्रभावित किया है।यह भी मानने को तैयार नहीं है कि राहुल गांधी का करिश्मा ढ़हा है। लेकिन जनादेश के सच को ठुकराना उसके लिए आसान नहीं है। इन चारों राज्यों के कुल 72 लोकसभा सीटों में 65 सीटों पर भाजपा को बढ़त हासिल हुई है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में उसे 2008 के बनिस्बत अल्पसंख्यक वोट भी ज्यादा मिले हैं। चुनावी नतीजों के बाद क्षेत्रीय क्षत्रपों के सुर भाजपा के लिए उत्साहजनक हैं और कांग्रेस के लिए परेशानी के शबब। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला और राकांपा अध्यक्ष शरद पवार ने कांग्रेस नेतृत्व पर हमला बोल दिया है। वही सपा और बसपा ने राहुल की नेतृत्व क्षमता पर सवाल दाग दिए हैं। मौंजू सवाल यह कि क्या इस करारी हार से कांग्रेस कोई सबक लेगी? उसके नुमाइंदों का अहंकार और दर्प टुटेगा? वैसे कांग्रेस हर हार के बाद सबक लेने की एलान करती है लेकिन झूठ, फरेब और सामंती मानसिकता की खोल से बाहर निकलते का साहस नहीं दिखाती है। अगर वह फिर भी नहीं चेती तो उसे इतिहास के गर्त में अपना भविश्य डुबाने के लिए तैयार रहना चाहिए। राजनीति तेजी से बदल रही है। उसे समझना होगा कि विरासत कह सियासत के किवाड़ तेजी से बंद हो रहे हैं।