जम्मू-कश्मीर में लोक शक्ति को कुंठित करता अनुच्छेद 370

-डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

                        भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३७० को लेकर देश भर में एक नई बहस शुरु हुई है । इसकी शुरुआत गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक दिसम्बर को जम्मू की एक जनसभा में की । मुख्य प्रश्न यह है की इस अनुच्छेद से किन लोगों अथवा समूहों के हितों की रक्षा होती है ? क्या इससे प्रदेश के आम आदमी को कोई लाभ होता है या फिर उनके नाम पर कुछ गिरोह , जो राजनैतिक भी हो सकते हैं और आतंकवादी भी , इसका लाभ उठा रहे हैं ? सबसे पहले जान लेना ज़रुरी है कि इस अनुच्छेद का अर्थ क्या है । संघीय संविधान के कुछ प्रावधानों को राज्य में क्रियान्वित करने के लिये अनुच्छेद ३७० में एक अतिरिक्त व्यवस्था की गई है । इसका परिणाम यह होता है कि जब उन प्रावधानों या विषयों से ताल्लुक रखने वाला कोई अधिनियम संघीय संसद में पारित होता है तो जम्मू कश्मीर राज्य में वह तभी लागू होता है यदि वहाँ की सरकार ऐसा आग्रह करे । अनुच्छेद ३७० के इसी प्रावधान का लाभ उठा कर प्रदेश की लोकविरो370धी ताक़तें उन संघीय कल्याणकारी प्रावधानों या योजनाओं को प्रदेश में लागू नहीं होने देतीं , जिनसे राज्य के आम आदमी को तो लाभ होता है , लेकिन आम जनता के श्रम का शोषण करने वाली सामन्तवादी पूँजीपति राजनैतिक ताक़तों के वर्ग हितों का नुकसान होता है । ये सामन्तवादी पूँजीपति ताक़तें सारी राजनैतिक सत्ता अपने ही हाथों में केन्द्रित कर , उससे अपने परिवारों या अपने वर्ग को प्रदेश के आर्थिक शोषण का अधिकार प्रदान करती हैं । ताज्जुब होता है कि राज्य का सारा व्यवसाय और उद्योग केवल साठ परिवारों में सकेन्द्रित हैं । इसमें नैशनल कान्फ्रेंस की प्रमुख भूमिका है , लेकिन इस मामले में सोनिया कांग्रेस और मुफ़्ती मोहम्मद सैयद की पी डी पी भी शामिल है । कार्ल मार्क्स ने सही कहा था कि जब वर्ग हित की बात आती है तो शोषक वर्ग अपने तमाम मतभेद भूलकर एक साथ हो जाते हैं । 
                                      भारत में साठ साल में संघीय संसद व प्रादेशिक विधानमंडलों के माध्यम से लोकतंत्र का प्रयोग करने के बाद यह अनुभव किया गया कि लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है यदि राजनैतिक सत्ता का गाँव के स्तर तक विकेन्द्रीकरण किया जाय । नीति निर्धारण में ग्रामों के प्रतिनिधियों की भी भूमिका होनी चाहिये । इस पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में ग्राम स्तर से नेतृत्व उभरेगा तो वह ज़्यादा प्रामाणिक और संवेदनशील होगा । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये संघीय संविधान में ७३वां और ७४वां संशोधन किया गया । इस नई व्यवस्था के अनुसार पंचायत के तीनों स्तरों यथा ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद के चुनाव , नियत अवधि के उपरान्त करवाना सांविधानिक दायित्व हो गया । चुनाव करवाने का उत्तरदायित्व भी राज्य सरकारों के हाथों से निकल कर चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में आ गया । पंचायतों के अधिकारों में भी विस्तार हुआ और उन्हें महत्वपूर्ण निर्णयायिक शक्तियाँ दी गईं । इस नई व्यवस्था से समाज के पिछड़े वर्गों , अनुसूचित व जनजाति समाज, महिला समाज , दलित समाज में से नया नेतृत्व उभर कर सामने आया । युवा पीढ़ी को निचले स्तरों पर निर्णय करने के अवसर प्राप्त हुये । यह अवश्य हुआ कि इससे निहित स्वार्थी तत्वों की शक्ति और हितों पर चोट पहुँची । इसलिये उन्होंने लोकतंत्र के विकेन्द्रीकरण की इस प्रक्रिया का विरोध भी किया । लेकिन अब क्योंकि लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की इस प्रक्रिया को सांविधानिक हैसियत हासिल हो चुकी थी , इसलिये यह विरोध बेमानी हो गया । राज्यों में स्थानीय स्वशासन की पंचायती संस्थाओं के नियमित चुनाव होने लगे । जड़ता समर्थक , लोक विरोधी और सर्वहारा वर्ग को पराजित करने के लिये कटिबद्ध शक्तियाँ देश के अन्य राज्यों में तो सफल नहीं हो सकीं , लेकिन उनको जम्मू कश्मीर में अवश्य राजकीय संरक्षण प्राप्त हो गया । ये सभी शक्तियाँ संघीय संविधान के अनुच्छेद ३७० को ढाल बना कर उसके पीछे एकत्रित हो गईं । इस अनुच्छेद के अनुसार यदि जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र की इस नई सांविधानिक व्यवस्था को लागू करना है तो राज्य सरकार की संस्तुति अनिवार्य है । राज्य सरकार ने वह संस्तुति नहीं की और निकट भविष्य में करेगी इसकी भी संभावना नहीं है । 
                                            राज्य के प्रमुख राजनैतिक दल ,जो अरसे से राज्य की सत्ता संभाले हुये हैं , भी राज्य की पंचायतों को वे अधिकार और शक्ति देने के लिये तैयार नहीं हैं , जो उन्हें संघीय संविधान ने दे रखी हैं । भय उनका भी वही है , जो आतंकवादियों का है । यदि राज्य में लोकतंत्र के विकेन्द्रीकरण से लोक शक्ति जागृत हो गई तो वह निहित शोषक वर्ग के हितों पर आघात करेगी । अब्दुल्लाशाही डगमगाने लगेगी । फिर शेख के बाद फारुक , फारुक के बाद उमर , मुख्यमंत्री नहीं बन पायेंगे । इसीलिये इस मोड़ पर आतंकवादी और सत्ताधारी राजनैतिक दल एक आसन पर खड़े दिखाई देते हैं । फ़र्क केवल इतना ही है कि राज्य में लोक शक्ति के उदय को रोकने के लिये आतंकवादियों के हाथ में बंदूक़ है और सत्ताधारी परिवार के पास अनुच्छेद ३७० है ।
                               संघीय संविधान ने पंचायती संस्थाओं को जो अधिकार दिये हैं , यदि वे जम्मू कश्मीर राज्य में भी पंचायतों को दे दिया जाये तो प्रदेश में नया नेतृत्व प्रकट होना शुरु हो जायेगा । विधान सभा या लोकसभा का चुनाव लड़ना , वर्तमान हालात में आम आदमी के वश का नहीं रहा । सभी पार्टियों ने मिल कर उसे इतना खर्चीला बना दिया है कि या तो इस अखाड़े में वही कूद सकता है जिसके पास काली कमाई हो या फिर जो सत्ताधारी गिरोहों की चिरौरी कर सकता हो । लेकिन नई सांविधानिक व्यवस्था ने लोकतंत्र में लोक सभा और विधान सभा से इतर एक तीसरा आयाम पंचायती राज संस्थानों का जोड़ दिया । यह ठीक है कि पंचायतें इन संविधान संशोधनों से पहले भी विद्यमान थीं । लेकिन वे निष्प्रभावी और राज्य सरकारों की दया की मोहताज रहती थीं । नये संविधान संशोधनों ने उन्हें जीवन्त और नीतिगत निर्णय लेने की ताक़त दे दी । इन संस्थानों के चुनाव लड़ना इतना खर्चीला नहीं है , इसलिये इन में साधारण दलित समाज, शिया समाज, गुज्जर समाज , पहाड़ी समाज आदि के नुमायंदे भी आसानी से चुनाव लड सकते हैं । इन संस्थानों के लिये चुन कर आने वाले प्रतिनिधि ज़मीन से जुड़े हुये और प्रामाणिक नेतृत्व प्रदान करने वाले कहे जा सकते हैं । यदि इस प्रकार का लोक नेतृत्व आगे आने लगा तो परम्परागत राज परिवारों का क्या होगा , जो पिछले साठ साल से अनुच्छेद ३७० की ओट में राज सत्ता पर नाग की तरह गेंडुली मार कर बैठे हैं ? 
                     राज्य में बढते जन आक्रोश को देखते हुये पंचायतों के चुनाव २३ साल बाद २००१ में करवाये गये थे और उसके बाद २०११ में करवाये गये । ग्राम स्तर तक नेतृत्व के उभरने से सबसे ज़्यादा ख़तरा आतंकवादियों को ही रहता है । इसलिये हुर्रियत कान्फ्रेंस ने ग्राम पंचायतों के चुनावों के बहिष्कार के लिये कहा । सरकार जन दबाव में चुनाव करवा तो रही थी , लेकिन उनको अधिकार देने के लिये तैयार नहीं थी । लेकिन इसके बावजूद चुनावों मे भारी संख्या में लोगों ने भाग लिया ।       जनता का उत्साह देखते ही बनता था । राज्य में आतंकवादी , लोगों को ग्राम स्तर पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने से रोकते हैं , क्योंकि इससे उनके जनाधार का भांडाफोड फूटता है । लोक शक्ति सशक्त हो जायेगी तो आतंक की ताक़त ध्वस्त हो जायेगी । अपने इस काम के लिये आतंकवादी बंदूक़ का सहारा लेते हैं । उनकी यह बंदूक़ राज्य के आम आदमी को बंधक बनाती है । राज्य के राजनैतिक दल संविधान के अनुच्छेद ३७० से प्रदेश की लोक शक्ति को बंधक बनाते हैं ।   
                                    इन पंचायत चुनावों में ३३००० से भी ज़्यादा पंच सरपंच चुने गये हैं । ये नई संघीय सांविधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत पंचायतों को दिये गये अधिकारों की मांग कर रहे है । वे नहीं चाहते कि संविधान का अनुच्छेद ३७० ग्रामों को शक्ति देने के रास्ते में बाधा बने । इसलिये प्रदेश में शक्ति के दोनों केन्द्र उन पर प्रहार कर रहे हैं । आतंकवादी गोली से इस लोकशक्ति को दबाना चाहते हैं और नैशनल कान्फ्रेंस अनुच्छेद ३७० से इसका गला घोंटना चाहती है । जनता की इच्छा है कि लोकसत्ता ,जो श्रीनगर में केन्द्रित हो गई है , वह गाँव तक पहुँचे , लेकिन राजनैतिक दल अनुच्छेद ३७० के नागपाश से उसे चन्द परिवारों तक महफ़ूज़ रखना चाहते हैं । जम्मू कश्मीर में जब भी राहुल गान्धी आते हैं तो ये तेतीस हज़ार लोक प्रतिनिधि गुहार लगाते हैं कि अनुच्छेद ३७० को दरकिनार कर लोक को सत्ता दी जाये । लेकिन राहुल हर बार झूठ बोल कर भाग निकलते हैं । इस बार अनुच्छेद ३७० की उपादेयता को लेकर बहस राज्य के भीतर छिड़ी है । अन्तर केवल इतना ही है कि नैशनल कान्फ्रेंस के भेष में शेख ख़ानदान राजशाही का रुप धारण कर गया है और लोक प्रतिनिधि , राज्य के लोगों के लिये लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग के लिये सडक पर नज़र आ रहे हैं ।

1 COMMENT

  1. धारा -370 को अविलम्ब हटाना चाहिए, इससे केवल असामाजिक तत्वों को फायदा हो रहा है, अन्य किसी को नहीं -इसलिए कश्मीर ही नहीं समस्त मानवता के हित में इस धारा को हटाओ !

    जब महाराजा हरि सिंह ने बिना शर्त भारत में मिलने का प्रस्ताव भेजा था तो फिर ऐसी धारा का कोई मतलब नहीं है, ऐसे किसी भी परिचर्चा के लिए मैं तैयार हूँ ।

    Contact for Detail- 9428075674, dr.ashokkumartiwari@gmail.com

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