“जीवात्मा और शरीर”

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मनमोहन कुमार आर्य,

मनुष्य को मनुष्य इस लिये कहते हैं क्योंकि यह मननशील प्राणी है। मनन का अर्थ है कि मन की सहायता से हम अपने कर्तव्यों व गुण-दोष को जानकर गुणों का ग्रहण व दोषों का त्याग करें। यदि हम मनन करना छोड़ देते हैं और काम, क्रोध, लोभ में फंस कर स्वार्थ पूर्ति व अपने सुख को महत्व देते हुए उचित व अनुचित का ध्यान नहीं रखते तो हम ईश्वर व समाज की व्यवस्था से दोषी माने जाते हैं। मनुष्य मनन इस लिये करता है कि वह मात्र जड़ अस्तित्व वाली सत्ता नहीं है अपितु इस मानव शरीर में एक चेतन जीवात्मा है और यह जीवात्मा अन्तःकरण मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार के आधार पर अपने ज्ञान व अभ्यास के अनुसार उचित व अनुचित तथा करणीय व अकरणीय का निर्णय कर अपने कर्तव्यों को क्रियान्वित रुप देती है। शरीर में जब तक जीवात्मा रहती है तभी तक मनुष्य का जीवन रहता है और जीवात्मा के न रहने अर्थात् शरीर का त्याग कर निकल जाने पर इसे मृत घोषित कर दिया जाता है।

 

आत्मा अमृत कहा जाता है। इसलिये कि यह अनादि, अनुत्पन्न, अमर व नित्य सत्ता है। इसके न रहने पर अमृत का उल्टा अर्थ मृत रह जाता है। हम जब तक शरीर में है, हम स्वयं को मैं शब्द से व्यक्त करते हैं। मृत शरीर में यह मैं की अभिव्यक्ति बन्द हो जाती है। जीवित अवस्था में इस शरीर को कांटा भी चुभता है तो यह चीखता व चिल्लाता है। डाक्टर को छोटा सा भी आपरेशन करना हो, तो उस स्थान को सुन्न करना पड़ता है। लेकिन मृत शरीर को कांटा चुभाया जाये, उसके अंगों को काटा जाये या फिर उसे अग्नि की चिता में जलाया जाये, वह चीखना तो दूर कराहता तक भी नहीं है। वह यह नहीं कहता कि मुझे कष्ट हो रहा है, मुझे कांटा मत चुभाओं या मुझे चिता में जलाओ मत। अतः मृत व अमृत का भेद जान लेने पर जीवात्मा की सिद्धि हो जाती है। जीवित रहने पर शरीर में रहने वाली आत्मा के गुण, कर्म व स्वभाव शरीर की क्रियाओं से प्रदर्शित होते हैं और इसके शरीर से चले जाने पर जीवात्मा के गुण प्रदर्शित नहीं होते। शरीर निष्क्रिय हो जाता है। बाल वृद्ध सभी यह जान लेते हैं कि अमुक व्यक्ति की मृत्यु हो गई। पशुओं को भी ज्ञान होता है कि अमुक व्यक्ति व पशु मर गया है। हमने एक पालतू कुत्ते को अपने स्वामी के मृत शरीर के निकट बैठ कर आंसु बहाते देखा है और भोजन का त्याग करते भी देखा है। मृत्यु का ज्ञान मनुष्य आदि को स्वभाविक ज्ञान जैसा है। हम अनेक बार मर चुके हैं। पूर्व अनेक जन्मों में मरने के वह संस्कार हमारी आत्मा पर हैं। इसी से हमें जन्म व मृत्यु का ज्ञान है। जीवात्मा और शरीर दोनों पृथक है। जन्म के समय परमात्मा जीवात्मा के लिए माता के गर्भ में मानव का शरीर शिशु रूप में बनाता है। जब जीवात्मा के भोग इस शरीर में रहकर समाप्त हो जाते हैं अथवा शरीर जीवात्मा के रहने योग्य नहीं रहता तब परमात्मा शरीर से आत्मा को निकाल कर इसके पूर्व बचे हुए कर्मों व वर्तमान जीवन के कर्मों के अनुसार इसको नया जन्म देता है। यदि किसी मनुष्य के कर्मो का खाता अशुभ कर्मों का अधिक होता है व शुभ कर्मों का अशुभ से कम होता है तब उसका मनुष्य जन्म न होकर अन्य किसी पशु व पक्षी आदि योनियों में से किसी एक योनि में होता है। यह ज्ञान हमें ईश्वर प्रदत्त ज्ञान की पुस्तक वेद और वेद पर आधारित व वेदानुकूल ऋषियों के बनाये हुए ग्रन्थों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है। इसीलिये सजग व सज्जन मनुष्य वेदाध्ययन कर ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, सद्कर्म, परोपकार, दान व परसेवा आदि कार्यों को करते हैं। यह संसार ईश्वर का है और उसकी बनाई व्यवस्था ही इसमें चलती है। इसमें किसी मनुष्य, विद्वान, धर्माचार्य, मत-मतान्तरों के प्रणेताओं की व्यवस्था नहीं चलती। इसके विपरीत यदि कोई कहता तो वह असत्य कहता है। हां यह देखा गया है कि मत-मतान्तरों के लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए सत्य को जानकर व न जानकर भी दूसरों को भ्रमित कर अपने मत का आग्रह व उसका प्रचार करते हैं। दूसरों के सत्य व ज्ञानपूर्ण मान्यताओं व परामर्शों की भी वह उपेक्षा करते हैं।

 

ऋषि दयानन्द ने सभी मतों को सत्य परामर्श देते हुए सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ में बहुत उत्तम व ग्रहण करने योग्य बातें लिखी हैं। सत्यार्थप्रकाश व अपने अन्य ग्रन्थों में उन्होंने मनुष्य जीवन को श्रेष्ठतम बनाने की शिक्षा देकर असत्य मान्यताओं व अंधविश्वासों का निष्पक्ष भाव से खण्डन किया है। होना यह चाहिये था कि सभी मतों के लोग उनके द्वारा प्रस्तुत सिद्धान्तों पर विचार कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करते परन्तु सभी ने अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह व अविद्यादि दोषों के कारण उनकी उपेक्षा की। मत-मतान्तरों के आचार्यों व उनके अनुयायियों का सत्य को ग्रहण और असत्य का त्याग किए बिना कल्याण नहीं हो सकता। उनके कारण अन्य मनुष्यों व प्राणियों का भी अकल्याण हो रहा है। गोहत्या, पशुहत्या, मांसाहार, असत्य व्यवहार, अन्धविश्वासों का प्रचलन, सामाजिक असमानता, अन्याय व शोषण आदि इसी कारण से समाज में चल रहा है। जब तक मत-मतान्तरों की अविद्यादि दोष दूर नहीं होंगे मनुष्य मनुष्य में एकता व शान्ति स्थापित नहीं हो सकती। यह भी बता दें कि वेदों का मार्ग छोड़ने के कारण ही आर्यों व हिन्दुओं की दुर्दशा होती आ रही है। यदि यह सत्य वेद मार्ग पर चलते, जिसका प्रचार ऋषि दयानन्द ने किया है, तो आज संसार व देश में आर्यों की स्थिति समुज्जवल होती। सत्य वैदिक धार्मिक मान्यताओं का त्याग और असत्य मान्यताओं के ग्रहण के कारण ही हमारे देश का पतन व विदेशी व विधर्मियों की गुलामी रही। यदि अब भी हम नहीं सम्भलेंगे तो आगे पूर्व से भी बुरे परिणाम हो सकते हैं।

 

जीवात्मा पर विचार करते हैं तो यह एक चेतन, अल्पज्ञ व ससीम पदार्थ व सत्ता विदित होता है। जीवात्मा को किसी ने बनाया नहीं है, परमात्मा ने भी इसे नहीं बनाया। यह अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अविनाशी व अमर है। जीवात्मा जन्म-मरण धर्मा है। यह जो कर्म करता है उसके फल भोगने के लिए इसका जन्म व मरण होता रहता है। यह जन्म व मृत्यु के बन्धनों बंधा हुआ है। परमात्मा ने जीवात्मा के मनुष्य जन्म में कर्तव्यों से वेद का ज्ञान देकर परिचित कराया है। हमारा सौभाग्य है कि हमारे पास वेद के अतिरिक्त दर्शन, उपनिषद्, मनुस्मृति, बाल्मीकि रामायण, वेदव्यास कृत महाभारत व इनकी हिन्दी में टीकायें आदि उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त ईश्वर की महती कृपा से हमें ऋषि दयानन्द व उनके विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आंशिक ऋग्वेद भाष्य, सम्पूर्ण यजुर्वेद भाष्य व अनेक अन्य ग्रन्थ भी प्राप्त हैं। इनके अध्ययन से हम अपने धर्म, कर्तव्य, साधनों सहित ईश्वरोपासना तथा यज्ञ आदि की विधियों को जानकर अपने जीवन को पापरहित कर सकते हैं। अपने शरीर व आत्मा की उन्नति भी कर सकते हैं। जीवात्मा की चर्चा में यह भी महत्वपूर्ण है कि हमारी आत्मा एकदेशी है। ईश्वर सर्वव्यापक होने से सर्वदेशी है। हम यहां यह भी चर्चा कर दें कि हमें ऋषि दयानन्द से अनेक स्वर्णिम नियम मिले हैं। इसके लिये हमें आर्यसमाज के सभी नियमों को स्मरण कर उनका जीवन में आचरण करना चाहिये। इसके साथ हमें ऋषि दयानन्द की पुस्तक आर्योद्देश्यरत्नमाला और स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश का भी अध्ययन करना चाहिये। इन दो लघु पुस्तकों से हमें धर्म व कर्म विषयक अत्यन्त महत्वपूर्ण व उपयेगी सिद्धान्तों का ज्ञान होता है। यदि हम संसार से आर्योद्देश्यरत्नमाला की बातों को ही मनवा लें तो इससे भी विश्व में शान्ति स्थापित हो सकती है और आत्मा की उन्नति के साथ संसार के पशु आदि प्राणी भी सुख पूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में जीवात्मा और ईश्वर के स्वरुप व इनके गुण, कर्म व स्वभाव का वर्णन करते हुए लिखा है कि यह दोनों चेतनस्वरूप हैं। दोनों का स्वभाव पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, सब को नियम में रखना, जीवों को पाप पुण्यों के फल देना आदि परमेश्वर के धर्मयुक्त कर्म हैं। जीवात्मा के कर्मों का उल्लेख कर वह कहते हैं कि सन्तानोत्पत्ति उन का पालन, शिल्पविद्या आदि अच्छे बुरे कर्म हैं। ईश्वर के नित्यज्ञान, आनन्द, अनन्त बल आदि गुण हैं। जीवात्मा के गुण निम्न हैंः

 

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगमिति।। (न्याय सूत्र)

 

प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तर्विकाराः सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नाश्चात्मनो लिंगानि।।

(वैशेषिक दर्शन सूत्र)

 

दर्शन के उपर्युक्त दोनों सूत्रों में पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा, दुःखादि की अनिच्छा, वैर, पुरुषार्थ, बल, आनन्द, विलाप, अप्रसन्नता, विवेक, पहिचानना ये तुल्य हैं परन्तु वैशेषिक में प्राणवायु को बाहर निकालना प्राण को बाहर से भीतर को लेना, आंख को मींचना, आंख को खोलना, प्राण का धारण करना, निश्चय-स्मरण-अहंकार करना, पैरों से चलना, सब इन्द्रियों को चलाना, भिन्न भिन्न क्षुधा, तृषा, हर्ष शोकादियुक्त होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह आत्मा स्थूल नहीं है। आत्मा स्थूल न होने के कारण हमें दिखाई नहीं देता।

 

जब आत्मा देह में होता है तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब शरीर छोड़ चला जाता है तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिस के होने से जो हों और न होने से न हों वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप और सूर्यादि के न होने से प्रकाशादि का न होना और होने से होना है। वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान गुणों के द्वारा होता है।

 

जीवात्मा चेतन अल्पज्ञ सूक्ष्म व एकदेशी नित्य सत्ता है। मानव व पशु आदि के शरीर इनकी आत्माओं के सुख व दुख भोग करने व कर्म करने के साधन हैं। शरीर से हम अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के कर्म कर सकते हैं व करते हैं। बुरे कर्मों को छोड़ कर शुभ वेदविहित कर्म करना ही मनुष्य धर्म है। पंच महायज्ञ कर्मों को करके ही हम मनुष्य कहाते हैं अन्यथा आकृति से मनुष्य होकर भी हम मनुष्य कहाने के योग्य नहीं होते। स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में ऋषि दयानन्द की दी हुई मनुष्य की परिभाषा पर भी ध्यान देना चाहिये और उसके अनुरुप मनुष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये। ओ३म् शम्।

 

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