दागियों पर अंकुश का कानून

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प्रमोद भार्गव 

download (2)कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने गंभीर अपराधियों को राजनीति से बाहर रखने का कानून बनाए जाने संबंधी प्रस्ताव तैयार किया है। यह निजी प्रस्ताव किसी विधेयक के प्रारूप जैसा ही है। इसे वे आगामी संसद-सत्र में प्रस्तुत करेंगे। यदि यह प्रस्ताव कानूनी रूप ले लेता है, तो जघन्य अपराधों के आरोपी चुनाव प्रक्रिया में भागीदारी नहीं कर पाएंगे। उन्होंने इस मसले पर विधि आयोग से सलाह मष्विरा भी किया है। उनके इस मानसिक बदलाव का स्वागत किए जाने की जरूरत है। क्योंकि उल्लेखनीय है कि मानसून सत्र के दौरान संसद में कारागार में बंद राजनीतिक दागियों को चुनाव लड़ने से रोकने वाले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को निश्प्रभावी किए जाने में इन्हीं कपिल सिब्बल ने अह्म भूमिका निभाई थी। न्यायालय के आदेष को बेअसर करने की दृष्टि से जो अध्यादेश लाया जा रहा था, उसका प्रारूप भी कानून मंत्री होने के नाते सिब्बल ने तैयार किया था। लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा इस प्रस्ताव को बकवास करार दिए जाने के बाद, इस अध्यादेष और विधेयक को वाकई रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया, जिसकी चहुंओर सराहना हुई थी।

दरअसल हमारे राजनीतिक परिवेश में आज भी सभी राजनीतिक दलों में टिकट देने के मानदंड हर हाल में जिताऊ उम्मीदवार है। इसलिए राजनीतिक दल धन और बहुबली उम्मीदवारों की खोज में रहते हैं। फिर चाहे वह हत्यारा, बलात्कारी, अपहकर्ता या डकैत ही क्यों न हो। यह योग्यता रखने वाले दलबदलुओं को भी दूसरे दल आसानी से झेल लेते हैं। यही वजह रही कि दागियों की संख्या सदनों में बढ़ती जा रही हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म ने इन्हीं प्रतिनिधियों द्वारा चुनाव लड़ते वक्त जो शपथ पत्र पेश किए, उनके आधार पर जुटाए आंकड़ो से पता चला है कि लोतंत्रक के पवित्र सदनों में 4835 सांसद व विधायकों में से 1448 के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें 369 प्रतिनिधि ऐसे हैं, जिन पर महिलाओं को प्रताडि़त व यौन उत्पीड़न के मामले विचाराधीन हैं। हाल ही में बसपा सांसद धनंजय सिंह और उनकी दंत चिकित्सक पत्नी जागृति सिंह को नौकारानी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। दूसरी तरफ जूनागढ़ से भाजपा सांसद दीनू बोधा सोलंकी को आरटीआई कार्यकरता अमित जेठवा के हत्याकांड में हिरासत में लिया गया है। जाहिर है, ऐसा कानून फौरन वजूद में लाने की जरूरत है, जो राजनीतिक दागियों के अरोपित होने के साथ ही, उन्हें मिली विशेष कानूनी सुरक्षा से वंचित कर दे।

हालांकि पांच राज्यों में चल रही चुनाव प्रक्रिया से साफ हो गया है कि राजनीतिक दल अपने स्तर पर कोई सुधार नहीं चाहते। इसके उलट वे ऐसे रास्ते निकालने में लगे हैं, जो राजनीतिक अपराधी के परिवार व परिजनों को सरंक्षण देने वाले हैं। इसका सक्षात् उदाहरण राजस्थान में देखने में आया है। यहां कांग्रेस ने राहुल गांधी के राजनीतिक शुचिता संबधी दिशा-निर्देर्शों को ठेंगा दिखाते हुए उन सभी बड़े राजनीतिक अपराधियों के परिजनों को टिकट दे दिए जो महिलाओं की हत्याओं और बलात्कार जैसे संगीन अपराधों के कारण सलाखों के पीछे हैं। राजस्थान की कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे व भंवरी देवी हत्याकंड के आरोपी महिपाल सिंह मदेरणा की पत्नी लीला मदेरणा को टिकट दे दिया गया है। इस कांड के दूसरे आरोपी व कांग्रेस विधायक मलखान सिंह बिषनोई की 80 वर्षीय मां अमरी देवी को टिकट दे दिया गया। यही नहीं, हाल ही में बलात्कार के आरोप में कठघरे में आए, राज्य सरकार में मंत्री रहे बाबूलाल नागर के भाई हजारीलाल नगर को भी टिकट दे दिया गया। इन टिकटों के वितरण से लगता है,कांगे्रस ईमानदारी से दागियों से मुक्ति के उपाय नहीं तलाष रही।

आरोपियों के परिजनों को ही टिकट दिए जाने की विवशता से ऐसा भी लगता है कि हमारे राजनीतिक दल, कार्यकताओं की उदीयमान पीढ़ी को आगे बढ़ाने का काम नहीं कर रहे हैं। राजनीतिक संस्कृति कालांतार में इस दोश से मुक्त नहीं हुई तो थोपे गए प्रतिनिधि कार्यकताओं को राजनीतिक संस्कार व सरोकारों से नहीं जोड़ पाएंगे। दलीय विचारधारा भी सरस्वती नदी की तरह लुप्त हो जाएगी ? दागियों, वंशवादियों और अयोग्य नेताओं को नकारे जाने की इच्छारशक्ति जताए बिना कोई राजनीतिक सुधार होने वाले नहीं हैं। ऐसे में कपिल सिब्बल द्वारा जताई गई राजनीति में सुधार की मंशा काबिले तारीफ है। क्योंकि राजनेता और राजनीतिक दल जब तक शुचिता की जिम्मेबारी को अपने दायित्वबोध से नहीं जोड़ेंगे तब तक सुधारों का स्थायी व लोकव्यापी हल संभव नहीं है।

राहुल गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरूद्ध दागियों को सुरक्षा प्रदान करने वाले विधेयक को फाड़कर फेंक दिया तो उसे व्यापक राजनीतिक स्वीकार्यता के साथ लोक मान्यता भी मिल गई थी। जाहिर है, लोक पर राजनेता की मंशा असर डालती है। दरअसल, हमारे राजनेता और तथाकथित बुद्धिजीवी बड़ी सहजता से कह देते हैं कि दागी, धनी और बाहुबलियों को यदि दल उम्मीदवार बनाते हैं तो किसे जिताना है, यह तय स्थानीय मतदाता करना है। बदलाव उसी के हाथ में है। वह योग्य प्रत्याशी का साथ दे और षिक्षित व स्वच्छ छवि के प्रतिनिधि का चयन करे। लेकिन ऐसी स्थिति में अक्सर मजबूत विकल्प का अभाव होता है। ऐसे में मतदाता के समक्ष, दो प्रमुख दलों के बीच से ही उम्मीदवार चयन की मजबूरी पेश आती है। वर्तमान में पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव की बात करें, तो दिल्ली विधानसभा को छोड, अन्य तीन बड़े राज्यों में सीधी टक्कर कांग्रेस और भाजपा के बीच है। दिल्ली में अरंविद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी ने जरूर वैकल्पिक रास्ता अख्यिातार कर लिया है। चुनाव सर्वेक्षणों में भी उनकी पार्टी की ताकत सामने आ रही है। लेकिन इसी बीच उनकी बढ़ती ताकत में बाधा पैदा करने की दृष्टि से मिल रहे चंदे पर केंद्र सरकार ने जांच बिठा दी। वाकई यदि चंदे की राजनीतिक संस्कृति में पारदर्शिता लानी है, तो यह जांच सभी दलों पर बिठानी थी। यह पक्षपातपूर्ण रवैया एक ईमानदार नेता और उनके दल की शैशव अवस्था में ही हत्या कर देने जैसा मामला है।

जनता अथवा मतदाता से राजनीतिक सुधार की उम्मीद करना इसलिए भी बेमानी है, क्योंकि राजनीति और और उसके पूर्वग्रह पहले से ही मतदताओं को धर्म और जाति के आधार पर बांट चुके हैं। बसपा का तो बुनियादी आधार ही जाति है। यह अलग बात है कि जब एक ही जाति के बूते सत्ता पाना संभव नहीं हुआ तो मायावती ने सोशल इंजिनियरिंग के बहाने सर्व समाज हितकारी समीकरण आगे बढ़ा दिया। वैसे भी देश में इतनी अज्ञानता, अशिक्षा, असमानता और गरीबी है कि लोगों को दो जून की रोटी के लाले पड़ रहे हैं। इस हकीकत को ही आधार मानकर 67 फीसदी वंचितों की खाद्य सुरक्षा के कानूनी उपाय किए जा रहे हैं। जो बड़ी आबादी भूख व आजीविका के संकट से जूझ रही हो, उनके लिए उम्मीदवार का दागी अथवा भ्रष्‍टाचारी होना कोई मुद्दा नहीं रह जाता है ?

राजनीतिक सुधार की दिशा में न्यायालय हस्तक्षेप करके विधायिका को कानून बनाने के लिए उत्प्रेरित तो कर सकती है, लेकिन वह इस दिशा में कोई नया कानून अस्तित्व में नहीं ला सकती ? क्योंकि कानून बनाने का दायित्व संविधान ने विधायिका के पास ही सुरक्षित रखा हुआ है। इस लिहाज से कानून मंत्री कपिल सिब्बल हत्या, अपहरण और दुश्कर्म जैसे कुकर्मों में लिप्त आरोपियों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए कानूनी पहल कर रहे हैं, तो उनकी इस पहल को दलीय बहुमत से कानूनी स्वरुप में बदलने की जरुरत है।

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