दिल्ली की सत्ता शाहीन बाग से होकर गुजरेगी ?

मुरली मनोहर श्रीवास्तव

दिल्ली चुनाव देश में एक बड़ा मुद्दा बन गया है। दिल्ली की सत्ता का स्वाद भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियों के अलावे आप भी चख चुकी है। इन दोनों दलों से अलग महज कुछ ही दिनों में अपनी पहचान बना चुकी आम आदमी पार्टी के नेता के रुप में अरविंद केजरीवाल ने सत्ता संभाली। और वे अपने पांच वर्ष के कार्यों के आधार पर जनता के बीच दुबारा वापसी में लगे हैं। केजरीवाल लाख विरोध के बावजूद शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर काफी संवेदनशील बने रहे। इसी का नतीजा है कि आज जो भी दिल्ली की गद्दी पाना चाहता है उसे केजरीवाल से दो-दो हाथ करनी होगी। दिल्ली की सत्ता से दूर हुए भाजपा को 21 साल गुजर गया। सत्ता पर काबिज होने के लिए हर तरह से भाजपा भी पूरी कोशिश कर रही है। चुनाव में पाकिस्तान और शरजील इमाम की इंट्री ने दिल्ली चुनाव के पारा को चढ़ा दिया है। अगर यह पारा चुनाव तक चढ़ा रह गया तो हिंदुत्व कार्ड पर भाजपा को भी अपने घटक दलों के साथ सत्ता में काबिज होने से कोई नहीं रोक सकता है। जबकि कांग्रेस और भाजपा के वोटों के बंटवारे में कहीं ऐसा न हो कि मध्यमार्गी बनकर केजरीवाल सरकार अपनी कुर्सी बचाने की मशक्कत में कामयाब हो जाए।

दिल्ली चुनाव में एनडीए अपनी पूरी ताकत झोंककर अरविंद केजरीवाल को बाहर का रास्ता दिखाना चाहती है। क्योंकि दिल्ली की सत्ता गंवाए उसे 21 साल बीत चुके हैं। नाक के नीचे इस सूबे पर काबिज होना अरविंद और भाजपा दोनों के लिए चुनौती बना हुआ है। अरविंद अपने विकास मुद्दे को लेकर मैदान में डटे हुए हैं। वहीं भाजपा देशभक्ति और हिंदु कार्ड के सहारे सत्ता पर काबिज होना चाह रही है।

विकास बनाम हिंदुत्व कार्डः

अरविंद केजरीवाल के पानी-फ्री बिजली, विकास जैसे मुद्दों के जवाब में भाजपा शाहीन बाग में चल रहे सीएए के खिलाफ प्रदर्शन को अपने चुनावी हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रही है। अगर इसको केंद्र में रखकर वोटों का ध्रुवीकरण हुआ तो बहुत सारी सीटों पर समीकरण बदल भी सकता है। आपको याद होगा दिल्ली- 2015 का विधानसभा चुनाव, जिसमें आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीतकर विपक्ष का पूरी तरह से साफ कर दिया था। दिल्ली के 13 विधानसभा सीट ऐसे थे जहां 10 हजार और इससे कम वोटों का अंतर था और 13 में से 10 पर आप का कब्जा हुआ था। अगर भाजपा इन सीटों पर पांच सालों में बेहतर तरीके से जमीनी स्तर की परख कर उम्मीदवारों को मैदान में उतारी होगी तो निश्चित तौर पर इन 13 सीटों पर भी बाजी पलट सकती है। इन सीटों पर अगर कब्जा हो जाता है भाजपा का और कहीं जो शाहिनबाग और हिंदुत्व के साथ अन्य स्थानीय मुद्दों पर मत पड़े तो अरविंद केजरीवाल के लिए खतरे का सूचक हो सकता है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जिस तरह से शाहीन बाग मुद्दे को लेकर केजरीवाल पर लगातार हमला बोल रहे हैं, भाजपा नेता हिंदुस्तान बनाम पाकिस्तान कराने में जुटे हैं। इस तरह से अगर दिल्ली में वोटों का ध्रुवीकरण हुआ तो इन नजदीकी मुकाबले वाली सीटों पर उलटफेर होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।  

बदली परिस्थिति में बदलाव की चुनौतीः

दिल्ली की सभी 70 सीटों पर 8 फरवरी को वोट डाले जाएंगे और वोटों की गिनती 11 फरवरी को होगी। इस चुनाव में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी (आप) का मुकाबला भाजपा और कांग्रेस से है। 2015 के चुनाव में कुल 70 सीटों में से भाजपा को तीन सीटें ही हाथ लगी थी। बदली परिस्थितियों में सभी दल अपनी-अपनी रणनीति में बदलाव करने को मजबूर हैं। आप का चेहरा अरविंद केजरीवाल हैं वहीं भाजपा पूर्व की तुलना में ज्यादा आक्रामक हो गई है। इसके तेवर को देखते हुए कांग्रेस का भी तेवर बदल गया है। भाजपा प्रधानमंत्री से लेकर अमित शाह और कई दिग्गज नेताओं को मैदान में झोंक रखी है। तो कांग्रेस भला इससे पीछे कैसे रहती और उसने भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी सहित कई दिग्गजों को मैदान में उतारकर अपने हाथ से निकली हुई सत्ता पर पुनः काबिज होने की उम्मीद लगा रखी है। इस तरह बदलते सियासी दौर को राजनीतिक पंडित अपने तरीके से देख रहे हैं। उनका मानना है कि इधर के दो हफ्तों में दिल्ली का सियासी परिस्थितियों में अचानक आए बदलाव ने सियासी समीकरण को सुलझाने की बजाए उलझा कर रख दिया है।

मुस्लिम बनाम गैर मुस्लिम वोट की राजनीतिः

दिल्ली में शाहीन बाग आंदोलन की खिलाफत कर अपने वोटरों को रिझाने में भाजपा की नजरें कांग्रेस की भूमिका पर टिकी हुई है। कांग्रेस इन सबसे अलग 29 फीसदी मुस्लिम-दलित वोटों की राजनीति कर रही है। लेकिन इसमें भी एक अडंगा देखने को मिल रहा है कि मुस्लिम बिरादरी आखिर एकजुट होकर वोटिंग करेंगी या फिर उनके वोटों की भी बंदर बांट होगी। क्योंकि आप और कांग्रेस के अलावे अन्य दलों की भी चुनाव में उपस्थिति है। अगर इस नजरिए से देखी जाए तो जहां इनके वोटों में सेंध होगी और बंटेगी वहीं भाजपा को गैर मुस्लिम वोट यानि कोर वोट 32 से 35 फीसदी एक मुश्त उसके खाते में चली जाएगी। जिससे भाजपा की कठिन डगर सुगमता में तब्दील हो जाएगी। भाजपा पहले तो इसको लेकर थोड़ी निराशा में थी मगर अचानक से बदली सियासी पारा ने शाहीन बाग मुद्दे को आगे कर भाजपा की रफ्तार को बढ़ा दिया है। शाहीन बाग में विरोध के बाद हिंदु अगड़ा हो या पिछड़ा इसके वोटों को सेंटरलाइज करने में भाजपा कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती है।

वोटों का बंटवारा या ध्रुवीकरणः

भाजपा अपने कोर वोटरों को साधने में सफल रही है। मगर सवाल ये उठता है कि क्या इसका असर उन मतदाताओं पर भी पड़ा है जिसने उसे लोकसभा चुनाव में बढ़त दी थी। क्या कांग्रेस राज्य में बेहतर प्रदर्शन की स्थिति में है। अगर ऐसा नहीं है तो वर्ष 2015 की तरह भाजपा विरोधी वोट का आप के पक्ष में ध्रुवीकरण होने से कोई नहीं रोक सकता है। अब ऐसे में सवाल य़े उठता है कि आखिरी दौर में नरेंद्र मोदी की अंतिम रैली का कितना भाजपा के वोटरो पर असर पड़ेगा यह तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा। शाहीन बाग से निशाने पर आयी मुस्मिल बिरादरी भी अपने को हाशिए पर पा रही है और काफी उलझन की स्थिति में है। ऐसे में भारतीय मुस्लिम राजनीति से परे होकर देशहित में अगर सोचते हैं तो इसका फायदा किसी भी तरीके से राजनीतिक दलों को इकट्ठे नहीं मिल सकती है। बल्कि इनके वोटों का भी बंटवारा हो सकता है। मुस्लिम मतदाता अपने वजूद को कायम करने के लिए जिस तरह से लगातार विरोध के स्वर अलाप रहे हैं। तो उन्हें भी यह नहीं भूलना चाहिए कि दलित मतदाता का रुझान किस तरफ है यह देखना होगा। हिंदुत्व, विकास या फिर अपने बिरादरी से आने वाले मतदाता जैसे कई बिंदु दिल्ली चुनाव का मुख्य मुद्दा बना हुआ है। अरविंद केजरीवाल के लिए भाजपा और कांग्रेस कड़ी चुनौती बनी हुई है। वहीं कांग्रेस के एक्टिव मोड में आने के बाद से भाजपा और कांग्रेस में वोटों का डिविजन हो जाए और इसका फायदा अपरोक्ष रुप से अरविंद केजरीवाल को हो जाए। इसलिए इन सारे तथ्यों को केंद्र में रखकर भाजपा, कांग्रेस और आप का वजूद दांव पर लगी हुई है।

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