‘देश को आजाद कराने की प्रेरणा ऋषि दयानन्द ने की थी’

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-मनमोहन कुमार आर्य,

भारत संसार का सबसे प्राचीन देश है। इसका मुख्य प्राचीन धर्म वैदिक-धर्म है जो ईश्वर ज्ञान वेद पर आधारित होने सहित विगत कुछ शताब्दियों से नहीं अपितु पूरे 1,96,08,53,118 वर्षों से संसार में प्रवर्तित है और आज भी अपने उज्जवल स्वरूप में विद्यमान है। आज देश व संसार में जितने मत-मतान्तर हैं वह सब वैदिक मत के ही रूपान्तर हैं। इसका कारण हजारों वर्ष पहले भारत से ही विद्या, ज्ञान व संस्कृति विश्व के अन्य देशों में गई थी जो समय के साथ परिवर्तित होती रहीं। यह बात ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में प्रमाण सहित प्रस्तुत की है। यह भी ज्ञातव्य है कि संसार में मनुष्यों की प्रथम अमैथुनी उत्पत्ति तिब्बत में ही हुई थी। जब यह उत्पत्ति हुई, उस समय संसार में कोई देश नहीं था और न कहीं मनुष्य रहते थे। अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों को परमात्मा ने यह सारी पृथिवी अपने निवास व वेदों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति, ईश्वरोपासना, सुशासन आदि करने के लिए दी थी। ऋषि दयानन्द के अनुसार सृष्टि के आदि काल से महाभारत काल तक समस्त पृथिवी पर आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा है। इनमें में कुछ राजाओं के नाम भी ऋषि दयानन्द ने महाभारत इतिहास ग्रन्थ से लेकर अपने विश्व विख्यात ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में दिये हैं। महाभारत का विनाशकारी युद्ध होने के बाद भारत में ज्ञान का सूर्य अस्त हो गया और विश्व के सभी देशों में भी वेदों का ज्ञान अप्रचलित हो गया। मनुस्मृति एक ऐसा ग्रन्थ है जो सृष्टि के आरम्भ में हुआ है। इस ग्रन्थ के एक प्रसिद्ध श्लोक ‘एतद्देशस्य प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं पृथिव्यां सर्वमानवाः।’ आता है जिसमें यह कहा गया है कि यह देश ही अग्रजन्मा मनुष्यों को उत्पन्न करने वाला है। संसार के सभी लोग उज्जवल चरित्र, ज्ञान, विद्या व विज्ञान आदि की शिक्षा लेने के लिए इसी देश में आते थे। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि भारत में 1.96 अरब वर्ष पूर्व वेद, लगभग इतने वर्ष ही पुराने 4 ब्राह्मण ग्रन्थ, मनुस्मृति, अनेक उपनिषदें, 6 दर्शन ग्रन्थ, सुश्रुत व चरक आदि ग्रन्थ सहित ज्योतिष, वेद के व्याकरण ग्रन्थ एवं संस्कृत में लिखी हुई सहस्रों प्राचीन पाण्डुलिपियां आज भी अनेक पुस्तकालयों में विद्यमान है। सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थ में यह बताया गया है कि जैनियों, यवनों व अंग्रेजों ने भारत के प्राचीन अनेक पुस्तकालयों वा प्राचीन साहित्य को नष्ट किया है। इन प्रमाणों व युक्तियों से भारत की प्राचीनता और ज्ञान सम्पन्नता सिद्ध होती है।

महाभारत के बाद देश में अव्यवस्था फैल गई और अविद्या का अन्धकार धीरे-धीरे बढ़ता गया जिसका परिणाम अवैदिक मतों की उत्पत्ति और अज्ञानता व अन्धविश्वासों सहित सामाजिक कुप्रथाओं के प्रचलन के रूप में सामने आया। महाभारत के बाद ही जैन, बौद्ध, ईसाई और इस्लाम आदि अनेक मत अस्तित्व में आये। इन मतों ने अपनी संख्या बढ़ाने के लिए मतान्तरण वा धर्मान्तरण के सभी सम्भव व असम्भव तरीकों को अपनाया जिसका परिणाम हुआ कि इन मतों की संख्या बढ़ती गई। भारत जो 2500 वर्ष पूर्व तक एकमात्र वैदिक मत को मानने वाला देश था वह विगत लम्बे समय से अनेक विभाजन व खण्डित होने के बाद भी निरन्तर वैदिक धर्मियों की जनसंख्या की दृष्टि से क्षय को प्राप्त होता गया। समाज में दिनों-दिन अज्ञान व अन्धविश्वास व इनसे उत्पन्न होने वाली सामाजिक कुप्रथायें बढ़ रही थी वहीं देश लगभग 1200 वर्षों से गुलाम व पराधीन बन गया था। ऐसे समय में ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी में ऋषि दयानन्द (1825-1883) का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने योग में प्रवीणता प्राप्त करने के साथ वेद विद्या में भी उच्च स्तर की योग्यता प्राप्त की जो महाभारत काल के बाद देश व विदेश में किसी ने प्राप्त नहीं की थी। उनके बाद भी अब तक उन जैसा योगी व वेद विद्या सम्पन्न विद्वान् पुरुष देश-विदेश में कहीं उत्पन्न नहीं हुआ। स्वामी जी ने देश वा विश्व से अविद्या दूर करने के लिए वेद की प्राणीमात्र के लिए कल्याण करने वाली शिक्षाओं व ज्ञान का प्रचार प्रसार किया। वह सारे देश में जाकर प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान, शास्त्रार्थ, चर्चायें, शंका समाधान आदि किया करते थे। उन्होंने अपने वैदिक विचारों व सिद्धान्तों की रक्षा के लिए सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के लेखन सहित वेदों का भाष्य, संस्कारविधि तथा आर्याभिविनय जैसे उच्च कोटि के अनेक ग्रन्थ लिखे। अंग्रेजों के शासन में गोरक्षा और हिन्दी प्रचार के आन्दोलन भी चलायें। ऐसे आन्दोलन भारत में इससे पूर्व आयोजित नहीं हुए थे। ऋषि दयानन्द ने संस्कृत भाषा सहित वैदिक संस्कृति का उद्धार किया। सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन करने के लिए उन्होंने व उनके अनुयायियों ने जो कार्य किया वह विश्व के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने योग्य है। स्वामी जी वेदों की शिक्षाओं का प्रचार करते थे जो यह मानता है कि संसार के सभी मनुष्य व प्राणी एक ईश्वर जो सच्चिदानन्द, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, अमर, अजर, अभय व सृष्टिकर्ता है, उसकी सन्तान हैं और सभी जीवात्मायें परस्पर भाई-बहिन के संबंध से एक दूसरे से जुड़ी हुई है। यदि कोई व्यक्ति इस सिद्धान्त को नहीं मानता तो इसका तात्पर्य है कि वह अज्ञ वा अज्ञानी है। बिना वेदों का अध्ययन किये मनुष्य पूर्ण ज्ञानी नहीं हो सकता। ईश्वर, जीव व सृष्टि के यथार्थ ज्ञान सहित सुखी जीवन व परलोक की उन्नति का आधार भी वैदिक ज्ञान व उसके अनुरूप आचरण ही है।

देश को आजाद कराने की प्रेरणा सर्वप्रथम किसने की? इसका उत्तर है कि ऋषि दयानन्द ने देश के लोगों को स्वदेशीय राज्य की सर्वोपरि उत्तमता का सन्देश दिया था। उन्होंने यह भी कहा था कि विदेशियों के राज्य की अनेक विशेषताओं के होने पर भी वह पूर्ण सुखदायक नहीं है। उन्होंने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में लिखा ‘कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।’ यही वाक्य अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने का आधार बने थे। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश का यह संस्करण सन् 1883 में अपनी मृत्यु से काफी समय पूर्व लिख दिया था। जिस समय यह ग्रन्थ लिखा गया उस समय तक कांगे्रस व किसी राजनैतिक संगठन का उदय भी नहीं हुआ था। कांग्रेस की स्थापना सन् 1885 में एक अंग्रेज व्यक्ति श्री ए.ओ. ह्यूम ने की थी। उनका उद्देश्य देश को अंग्रेजों की पराधीनता से मुक्त कराना नहीं था अपितु उनसे देशवासियों से कुछ थोड़े से अधिकार व सुविधिायें प्राप्त करना था। ऋषि दयानन्द के समय में जितने सामाजिक व मत-मतान्तरों के संगठन थे, वह भी सब अंग्रेजी राज्य से सन्तुष्ट प्रतीत होते थे। ब्राह्म समाज के नेता भी अंग्रेजी राज्य को अच्छा व देश के लिए वरदान मानते थे। ऋषि ने केवल आठवें समुल्लास में ही नहीं अपितु ग्यारहवें समुल्लास में भी गुजरात के द्वारिका में गुजराती बाघेर लोगों और अंग्रेजों के मध्य हुए युद्ध में बाघेर लोगों की वीरता की प्रशंसा की और कहा कि यदि श्रीकृष्ण जी जैसा कोई वीर व पराक्रमी नेता होता तो अंग्रेजों के धुर्रे उड़ा देता और यह लोग भागते फिरते अर्थात् देश छोड़ कर चले जाते। स्वामी दयानन्द जी के अपने शब्द हैं ‘जब संवत् 1914 (सन् 1857) के वर्ष में तोपों के मारे मन्दिर की मूर्तियां अंगरेजों ने उड़ा दी थीं तब मूर्ति (की शक्ति) कहां गई थी? प्रत्युत बाघेर लोगों ने जितनी वीरता की और लड़े, शत्रुओं को मारा परन्तु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी न तोड़ सकी। जो श्रीकृष्ण के सदृश कोई होता तो इनके (अंगरेजो के) धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते। भला यह तो कहो कि जिस का रक्षक मार खाय उस के शरणागत क्यों न पीटे जायें?’

स्वामी दयानन्द जी ने अपने वेद भाष्य, आर्याभिविनय और सत्यार्थप्रकाश आदि सभी ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर स्वदेशी राज्य की महत्ता को रेखांकित करते हुए ईश्वर से भी स्वराज्य की कामना की है। ऋषि दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज और उसके अनुयायियों का भी देश की आजादी के लिए किये गये गर्म व नरम दल के सभी आन्दोलनों में प्रमुख सक्रिय योगदान रहा है। अनेक ऋषि भक्त आर्यसमाजियों को सरकारी नौकरियों से पृथक किया गया, आर्यसमाज को सील किया गया व उनके उत्पीड़न के कार्य किये गये परन्तु किसी ने उफ भी न की। स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, स्वामी रामेश्वरानन्द, डा. सत्यप्रकाश जी, कुवंर सुखलाल आर्य मुसाफिर सहित पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा, प. रामप्रसाद बिस्मिल का आजदी के आन्दोलन में अग्रणीय व प्रमुख योगदान है। शहीद भगत सिंह जी का पूरा परिवार भी आर्यसमाजी परिवार था। बताते हैं कि इतिहास में यह बात अंकित है कि प्रायः सभी आर्यसमाजी व ऋषि भक्त देश की आजादी के आन्दोलन में किसी न किसी रूप में जुड़े रहे। आजाद हिन्द फौज के स्तम्भ और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के निकटतम कर्नल प्रेम कुमार सहगल और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती लक्ष्मी सहगल आर्यसमाजी ही थे।

निश्चय ही ऋषि दयानन्द देश की आजादी के प्रेरक थे और उन्होंने वेदों का पुनरुद्धार, समाज सुधार, अन्धविश्वासों का खण्डन सहित अविद्या के नाश और विद्या की वृद्धि के लिए जो कार्य किया उसका उद्देश्य देश को शक्तिशाली बनाना था। देश ने आर्यसमाज के साथ न्याय नहीं किया। आर्यसमाज ने देश व मानवजाति की उन्नति के जो उपाय बताये थे, उन्हें जाने अनजाने दृष्टि से ओझल किया गया। यदि ऋषि दयानन्द की विचारधारा को पूर्ण रूप में अपना लिया जाता तो देश आज विश्व का सर्वाधिक सशक्त देश हो सकता था। ऋषि दयानन्द की देश को अनेक देने हैं। आने वाले समय में आशा की जा सकती है कि देश की नई पीढ़ी आर्यसमाज की मानवमात्र की हितकारी तथा सत्य पर आधारित सार्वभौमिक विचारधारा को अपनायेगी जिससे विश्व में शान्ति, उन्नति व समृद्धि का नया युग लाने में सहायता मिलेगी।

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