निराशा का अंधेरा: आशा का उजाला  

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ललित गर्ग
सफल एवं सार्थक जीवन जीने के लिये हमें ऐसी तैयारी करनी होगी जहां हमारा हर कर्म एवं सोच हमें नया आयाम दे, नया वेग दे और नया क्षितिज दे। यूं कहा जा सकता है कि जहां जीवन में बदलाव का ऐसा प्राणवान और जीवंत पल हमारे हाथ में होगा, जिससे हम एक दिव्य, भव्य और नव्य महाशक्ति का अहसास कर सकेंगे। हम इसका उपयोग किस रूप में करते हैं, यह हम पर ही निर्भर करता है। शक्ति का व्यय तीन प्रकार से किया जा सकता है-उपयोग, सदुपयोग और दुरुपयोग। देखना यह है कि हमारी स्वतःस्फूर्त प्रेरणा हमें किस तरफ ले जाती है? राॅबर्ट ब्राउनिंग ने इसी सन्दर्भ को शब्द दिये हैं कि जो स्थिति आपके दिमाग की है, वही आपकी खोज की है-आप जिस चीज की इच्छा करेंगे, वह पा लेंगे।’’
उपयोगी जीवन जीने वालों ने सदा अपने वर्तमान को आनंदमय बनाया है। शक्ति का सदुपयोग करने वालों ने वर्तमान को दमदार और भविष्य को शानदार बनाया है। मगर अफसोस इस बात का है कि शक्ति और समय का दुरुपयोग करने वाला न तो वर्तमान में सुख से जी सकता है और न ही अपने भविष्य को चमकदार बना सकता है। हमें बड़ा करना है, बड़ा सोचना है। इसीलिये डिजरायली ने एक बार कहा था-‘‘जीवन बहुत छोटा है और हमें संतोषी नहीं होना चाहिए।’’

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जिंदगी एक पन्ने की तरह है, जिसके कुछ अक्षर फूलों से लिखे गए हैं, कुछ अक्षर अंगारों से लिखे गये हैं। क्योंकि जीवन में कहीं सुख का घास है तो कहीं रजनीगंधा के फूल हैं, कहीं रेगिस्तान है तो कहीं सागर है, कहीं मनमोहक घाटियां हैं तो कहीं सुंदर वन हैं, एक जैसा जीवन किसी का नहीं है। जीवन कितना लंबा है, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि कितना सार्थक एवं  पवित्र जीवन जीया गया यह महत्वपूर्ण है। जब तक जीएं जिंदादिली के साथ जीएं। ज्योतिर्मय अंगारे की तरह जीएं न कि निस्तेज राख की तरह। क्योंकि दुनिया में शक्तिशाली की पूजा होती है। शक्तिहीन को कोई नहीं पूछता। शक्तिसंपन्न, ज्ञानसंपन्न, चारित्रसंपन्न और संस्कारसंपन्न बनने के लिए लक्ष्य का निर्धारण हो। टाइम का मैनेजमेंट हो। दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ लक्ष्य की दिशा में गतिमान हो। अदम्य विश्वास हो तो हर मंजिल कदमों में होती है। भागमभाग की जिंदगी जीने वालों को धन सुविधा दे सकता है, पर सुख नहीं दे सकता। धन सम्मान दिला सकता है, पद दिला सकता है पर आत्मप्रतिष्ठा नही। अतः वक्त का तकाजा है, जीने का अंदाज बदलें, दृष्टि बदलें, भाव बदलें, विचार बदलें।
मनुष्य जन्म की सार्थकता केवल सांसों का बोझ ढोने से नहीं होगी एवं केवल योजनाएं बनाने से भी काम नहीं चलेगा, उसके लिए खून-पसीना बहाना होगा। अधिकतर लोग अपने आपको संकीर्णता की ओर ले जाते हैं और छोटी चीजों से संतुष्ट होने की मानसिकता रखते हैं। वे बहुत कम से खुश हो जाते हैं-‘‘अगर मुझे 10 प्रतिशत की वेतन-वृद्धि मिल जाए तो मैं खुश हो जाऊंगा।’’ वे कभी 100 प्रतिशत या 1000 प्रतिशत के उछाल या एक महीने की छुट्टी की कल्पना या उम्मीद नहीं करते और यह स्पष्ट है कि उन्हें वह कभी नहीं मिलता, क्योंकि जैसा कि राॅल्फ वाल्डो इमर्सन ने कहा था-‘‘हर कार्य एक विचार से जन्म लेता है।’’
जीवन-निर्माण की शुरूआत विचारों से होती है। इसके लिये धर्म-ग्रंथ जीवन-मंत्रों एवं उन्नत विचारों से भरे हैं। प्रत्येक मंत्र दिशा-दर्शक है। उसे पढ़कर ऐसा अनुभव होता है, मानो जीवन का राज-मार्ग प्रशस्त हो गया। उस मार्ग पर चलना कठिन होता है, पर जो चलते हैं वे बड़े मधुर फल पाते हैं। कठोपनिषद् का एक मंत्र है-‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।’ यानी-उठो, जागो और ऐसे श्रेष्ठजनों के पास जाओ, जो तुम्हारा परिचय परब्रह्म परमात्मा से करा सकें। इस अर्थ में तीन बातें निहित हैं। पहली, तुम जो निद्रा में बेसुध पड़े हो, उसका त्याग करो और उठकर बैठ जाओ। दूसरी, आंखें खोल दो अर्थात अपने विवेक को जागृत करो। तीसरी, चलो और उन उत्तम कोटि के पुरुषों के पास जाओ, जो ईश्वर यानी जीवन के चरम लक्ष्य का बोध करा सकें। जीवन विकास के राजपथ पर स्वर्ग का प्रलोभन और नर्क का भय काम नहीं करता। यहां तो सत्य की तलाश में आस्था, निष्ठा, संकल्प और पुरुषार्थ ही जीवन को नयी दिशा दे सकतेे हैं।
महावीर की वाणी है-‘उट्ठिये णो पमायए’ यानी क्षण भर भी प्रमाद न हो। प्रमाद का अर्थ है- मूल्यों को नकार देना, अपनो से अपने पराए हो जाना, सही गलत को समझने का विवेक न होना। हम अपने आप की पहचान औरों के नजरिये से, मान्यता से, पसंद से, स्वीकृति से करते हैं जबकि स्वयं द्वारा स्वयं को देखने का क्षण ही चरित्र की सही पहचान बनता है। मगर प्रमाद में बुद्धि जागती है तो चेतना सोती है। इसलिए व्यक्ति बाहर जीता है भीतर से अनजाना होकर और इसलिए सत्य को भी उपलब्ध नहीं कर सकता। व्यक्ति स्वयं को नहीं, दूसरों को जानने-देखने में रस लेता है। अपनी कमियों को नजरअंदाज कर लेता है और दूसरों के छिद्रों का अवलोकन स्वभावगत हो रहा है। यही दूसरों को देखने का नजरिया एक बड़ी भ्रांति है। इमन्स ने जानदार बात कही है यदि आपको रास्ते का पता नहीं है, तो जरा धीरे चलें। महान ध्येय (लक्ष्य) महान मस्तिष्क की जननी है।
जो भी व्यक्ति अपना वर्तमान और भविष्य उज्ज्वल, श्रेष्ठ देखना-पाना चाहते हैं उन्हें जीए जाने वाले प्रत्येक क्षण के प्रति सावधान रहना होगा। इसलिए ‘समयं गोयम! मा पमायए’ का बोधि स्वर गूंजा और सत्यान्वेषी साधक को शुद्ध साध्य तक पहुंचने के लिए शुद्ध साधन की जरूरत हुई। बस, वही क्षण जीवन का सार्थक है जिसे हम पूरी जागरूकता के साथ जीते हैं और वही जागती आखों  का सच है जिसे पाना हमारा मकसद है। बहुत जरूरी है जागने की, खोया विश्वास पाने की, देश की चरमराती आस्थाओं को सुदृढ़ बनाने की। नये सोच के साथ नये रास्तों पर फिर एक-बार उस सफर की शुरूआत करें जिसकी गतिशीलता जीवन-मूल्यों को फौलादी सुरक्षा दे सके। इसी सच और संवेदना की संपत्ति ही मानव की अपनी होती है। इसी संवेदना और सच से ऊपजे अर्थ जीवन को सार्थक आयाम देतेे हैं। मूल्यों के गिरने और आस्थाओं के विखंडित होने से ऊपजी मानसिकता ने आदमी को निराशा के धुंधलकोंमें  धकेला है। धर्म ही वह नयी प्रेरणा देती है जिससे व्यक्ति इन निराशा के धुंधलकों से बाहर निकलकर जीवन के क्षितिज पर पुरुषार्थ के नये सूरज उगा कर अपने सुखद संसार का सृजन करता है।

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