पाश्चात्य समीक्षकों की दृष्टि में गीतांजलि

डॉ. छन्दा बैनर्जी

सन् 1913 का वर्ष न केवल भारत के लिए बल्कि पूरे विश्व के लिए आध्यात्मिक-ऐश्वर्य का अभूतपूर्व वर्ष था । इसी वर्ष विश्वसाहित्याकाश में ध्रुवतारा सदृश भारत की पहचान बनी थी रवीन्द्रनाथ ठाकुर की लेखनगर्भ से जन्मी गीतांजलि

‘गीतांजलि’ – अर्थात ईश्वर के प्रति गीतों की अंजली । गीतांजलि केवल कुछ गीतों अथवा कविताओं का संग्रह ग्रन्थ मात्र नहीं है, बल्कि यह एक महाकाव्य है, जिसके प्रायः गीतों में जीवन की सार सच्चाईयाँ छुपी हुई है । इसमें आदि से अनन्त तक वह शाश्वत संवाद है, जिसका रसास्वादन केवल वही कर सकता है जो अपने सारे अहंकार को त्यागकर इस ब्रहमाण्ड के कण-कण से निर्मल-निश्छल प्रेम करने लगता है ।

गीतांजलि मूल रूप से सन् 1909-10 में बांग्ला भाषा में रची गई थी, जिसका प्रकाशन सितम्बर 1910 में इंडियन पब्लिशिंग हाउस, कलकत्ता से हुआ था । इसका अंग्रेजी संस्करण (Song Offerings), जिसके लिए गुरुदेव को नवम्बर, 1913 में ‘नोबल पुरस्कार’ तथा विश्व का सर्वश्रेष्ठ कवि ‘विश्वकवि’ के रूप में सम्मान प्रदान किया गया, का प्रकाशन नवम्बर 1912 में ‘इंडिया सोसाइटी ऑफ लन्दन’ से किया गया था ।

रवीन्द्रनाथ की कालजयी रचना ‘गीतांजलि’ के अंग्रेजी संस्करण का सफर सन् 1912 में शुरू हुआ । फरवरी, 1912 में कवि अपनी तीसरी यूरोप यात्रा की तैयारी कर रहे थे । इस यूरोप यात्रा का उद्देश्य था – डेनमार्क की शिक्षण पद्धतियों का अध्ययन कर शांतिनिकेतन को लाभ पहुँचाना । रवीन्द्रनाथ कलकत्ता से 19 मार्च को अपनी विदेश यात्रा पर निकलने वाले थे, लेकिन रवाना होने के ठीक एक दिन पहले अर्थात 18 मार्च को वे अत्यन्त बीमार पड़ गए । डॉक्टरों के सलाहानुसार उन्हें अपनी इस यात्रा को स्थगित करना पड़ा । विदेश यात्रा के इस अनियोजित स्थगन से रवीन्द्रनाथ को अत्यधिक निराशा हुई । अपने नैराश्यपूर्ण मानसिक स्थिति से उबरने, साथ ही स्वास्थ्यलाभ के लिए वे अपनी पसंदीदा जगह, कलकत्ता के पद्मा नदी के किनारे बसे ‘सियालदह’ चले गए । यही वह पवित्र स्थान है, जहाँ रहकर रवीन्द्रनाथ ने मूल बांग्ला गीतांजलि के कुछ गीतों का अंग्रेजी में पद्यानुवाद के साथ ही गीतांजलि के अंग्रेजी संस्करण की रचना प्रारम्भ की थी । यूँ कहें कि Song Offerings के साथ-साथ ‘नोबल पुरस्कार’ का सफर भी यहीं से प्रारम्भ हुआ था । सियालदह में रवीन्द्रनाथ के स्वास्थ्य में धीरे-धीरे सुधार हुआ, कुछ समय पश्चात वे शांतिनिकेतन वापस आ गए । शांतिनिकेतन में कुछ दिन आराम करने के पश्चात जब वे विदेश यात्रा करने के योग्य हो गए, तब अपने पुत्र रथीन्द्रनाथ और पुत्र-वधु प्रतिभा के साथ 27 मई, 1912 को बम्बई से होते हुए लंदन के लिए रवाना हुए । सौभाग्य से सफर में उनका स्वास्थ्य ठीक था, जिस कारण यात्रा का अनुभव सुखद रहा । सफर के दौरान भी उन्होने गीतांजलि के कुछ गीतों का अनुवाद किया और आखिरकार 16 जून, 1912 को वे लंदन पहुँच गए ।

लंदन पहुँचकर वे ब्लूम्सबरी के एक होटल में ठहरे थे । लंदन के चेयरिंग क्रॉस से ब्लूम्सबरी तक की दूरी रेल से तय करनी पड़ती है और इस रेलयात्रा के दौरान रवीन्द्रनाथ के साथ एक छोटी सी दुर्घटना घटी, जो शायद गीतांजलि (Song Offerings) और ‘नोबल पुरस्कार’ की पूरी कहानी को ही बदल सकती थी । इस सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ लिखते हैं कि वे कलकत्ता से यूरोप यात्रा के सफर में अपने साथ अन्य सामान के साथ-साथ कागज-पत्रों (लेखन सामग्रियों) का एक बस्ता लिए चले थे । जिसमें अन्य रचनाओं के साथ अंग्रेजी गीतांजलि की एकमात्र मूल पाण्डुलिपि भी थी । लंदन के चेयरिंग क्रॉस से ब्लूम्सबरी तक रेल यात्रा के दौरान कागज-पत्री का वह बस्ता रेल के डिब्बे में ही छूट गया और यह बात रवीन्द्र बाबू को दूसरे दिन सुबह तब मालूम पड़ी जब उन्हें अपने सब सामान के साथ वह बस्ता दिखाई नहीं दिया । वे तुरन्त रेलवे स्टेशन गए, जहाँ उनका बस्ता ‘खोई हुई सामग्री’ के कार्यालय में मिल गया, तब उन्हें बड़ी राहत मिली । लंदन पहुँचते ही कवि ने प्रसिद्ध अंग्रेज चित्रकार – विलियम रोथेनस्टीन से मिलने की इच्छा प्रकट की । यहाँ सर रोथेनस्टीन का उल्लेख करना आवश्यक है, जिन्होंने यूरोप में रवीन्द्रनाथ की प्रसिद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । सर रोथेनस्टीन 1910 में भारत (कलकत्ता) आए थे । अपने कलकत्ता प्रवास के दौरान वे दो प्रसिद्ध भारतीय चित्रकार – अवनीन्द्रनाथ व गगनेन्द्रनाथ ठाकुर के बारे में जानकारी मिलने पर उनसे मुलाकात करने ठाकुर परिवार के पुश्तैनी हवेली ‘जोड़ासांको’ गए थे । यहीं रोथेनस्टीन ने पहली बार रवीन्द्रनाथ को देखा था । सर रोथेनस्टीन लिखते हैं – “जब जब मैं कलाकार भाइयों से मिलने उनके घर जोड़ासांको गया, हर बार उनके चाचा रवीन्द्रनाथ को देखकर अभिभूत हुआ सफेद धोतीकुर्ता और शॉल में सुशोभित उनके आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना मैं रह ना सका दरअसल मैंने पाया कि एक सुदर्शन व्यक्तित्व के साथसाथ उनमें एक आन्तरिक कांति भी थी एक चित्रकार होने के नाते मैंने उनसे उनका चित्र (स्केच) बनाने की अनुमति मांगी और अपनी पेंसिल से उनका वही रूप सौन्दर्य आंकने की कोशिश की उस समय उन ठाकुर बंधुओं (अवनीन्द्र गगनेन्द्र) में से किसी ने भी मुझे यह नहीं बताया कि उनके चाचारवीन्द्रनाथ अपने समय के असाधारण व्यक्तियों में से एक है

लंदन वापस लौटने के कुछ समय पश्चात ‘मॉडर्न रीव्यू’ में प्रकाशित रवीन्द्रनाथ की एक कहानी का अंग्रेजी अनुवाद पढ़कर रोथेनस्टीन अत्यधिक प्रभावित हुए और ‘मॉडर्न रीव्यू’ के सम्पादक श्री रामानन्द चट्टोपाध्याय को पत्र लिखा, जिसमें उन्होने रवीन्द्रनाथ की अन्य कृतियों के अंग्रेजी अनुवादों के विषय में जानने की इच्छा प्रकट की । रामानन्द चट्टोपाध्याय ने उस पत्र को शांतिनिकेतन भेज दिया । उस पत्र के जवाब में शांतिनिकेतन की ओर से रवीन्द्रनाथ की कुछ कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद, जो कि रवीन्द्रनाथ के एक सहयोगी श्री अजीत चक्रवर्ती ने किया था, रोथेनस्टीन को भेज दिया गया था । रवीन्द्रनाथ को यह बात पता थी कि उनकी कृतियों – विशेषकर कविताओं में रोथेनस्टीन की गहरी रुचि थी । यही कारण है कि लंदन पहुँचकर रवीन्द्रनाथ ने सबसे पहले सर रोथेनस्टीन से मुलाकात की । इस मुलाकात से सर रोथेनस्टीन को भी बड़ी प्रसन्नता हुई । फिर यह सिलसिला चल पड़ा और दोनों प्रायः मिलते रहे । इन मुलाकातों के दौरान रोथेनस्टीन के आग्रह पर रवीन्द्रनाथ ने अपनी Song Offerings की मूल पाण्डुलिपि उन्हें सौंप दी । मूल पाण्डुलिपि पाकर रोथेनस्टीन इतने अधिक उत्साहित हुए कि उनसे रहा नहीं गया और बिना विलम्ब किए उन्होंने कविताओं की पूरी पुस्तिका कुछ ही घण्टों में पढ़ डाली । रोथेनस्टीन लिखते हैं – “मैंने उसी शाम सारी कविताएँ पढ़ ली, यह कुछ अलग नए प्रकार की काव्यरचनाएँ हैं, जो महान रहस्यवादियों के स्तर की है ” रोथेनस्टीन ने उन कविताओं को कई बार पढ़ने के बाद अपने साहित्य-मण्डली के कुछ मित्रों को भी पढ़ने के लिए दिया । उनके एक मित्र एंड्रयूज ब्रैडले ने इसे पढ़ने के बाद कहा – “लगता है हमारे बीच कोई महान कवि पहुँचा है

गीतांजलि के कुछ पद्यानुवाद को रोथेनस्टीन ने अपने एक आयरिश मित्र, कवि व नाटककार – विलियम बटलर यीट्स को भी पढ़ने के लिए भेजा । उल्लेखनीय है कि विलियम बटलर यीट्स को भी बाद में साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए ‘नोबल पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया । यीट्स ने जब रोथेनस्टीन द्वारा भेजे गए उन कविताओं को पढ़ा तब वे भी मंत्रमुग्ध हो गए । और फिर उन्होने लंदन आकर गीतांजलि की सारी कविताएँ पुनः बड़े ध्यान से पढ़ने के बाद कहीं-कहीं पर सुधार के सुझाव भी दिये । यीट्स द्वारा रवीन्द्रनाथ की कविताओं की अनेक सराहना की गई, जिससे रोथेनस्टीन अत्यधिक प्रोत्साहित हुए और 30 जून 1912 रविवार की शाम को हैम्पस्टीड स्थित अपने घर पर एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया । जहाँ यीट्स ने स्वयं अपनी संगीतमय आवाज में Song Offerings की कविताएँ पढ़कर सुनाई । इस विशिष्ट संगोष्ठी के श्रोता समुदाय में – एल्विन अंडर हिल,अर्नेस्ट रेज, श्रीमती मेसिनक्लेयर, फॉक्स स्ट्रेनरवेज, हेनरी नेविन्सन, एज़रा पाउण्ड, एलिस मैनेल, चार्ल्स ट्रेवेलियन आदि विद्वान उपस्थित थे । चार्ल्स फ्रियर एण्ड्रूज और उनके मित्र डब्लयू. पियरसन भी उन दिनों लंदन में ही थे और वे भी उस काव्य-गोष्ठी में सम्मिलित होने के लिए मि. रोथेनस्टीन के घर पर पहुँचे ।

रवीन्द्रनाथ पहली बार सी. एफ. एण्ड्रूज से मि. रोथेनस्टीन के घर पर ही मिले, जो बाद में आजीवन उनके मित्र बने रहे । सी. एफ. एण्ड्रूज उस अविस्मरणीय शाम के बारे में ‘मॉडर्न रिव्यू’ के अगस्त, 1912 के अंक में ‘एन इवनिंग विद रवीन्द्रनाथ’ (An Evening With Ravindranath) शीर्षक के अन्तर्गत कुछ इस प्रकार लिखते हैं – “उस शाम मि. रोथेनस्टीन के घर से लौटते समय मैं अपने एक मित्र एच. डब्लयू. नेविन्सन के साथ हैम्पस्टीड हीथ के किनारे से चला रहा था नेविन्सन को विदा करने के बाद मैं कुछ पल अकेला रहना चाह रहा था कवि यीट्स द्वारा पढ़े गए रवीन्द्रनाथ की उन कविताओं के भावरहस्य के उत्कर्ष पर पहुँचने की कोशिश कर रहा था कविता का पाठ करतेकरते कवि यीट्समृत्यु विषयकएक कविता के कुछ अंश की व्याख्या करते हुए भावविभोर हो उठे थे, जो इस प्रकार है – I have loved life so much why should I not love death even more. उस रात आसमान बिल्कुल साफ नीलाभ लिए हुए उन कविताओं में चित्रित भारतीय परिवेश जैसा ही था, और तब उस शांत वातावरण में मैं बिल्कुल अकेला उन कविताओं के भावविचारों में खोया हुआ था ” उस शाम रोथेनस्टीन के घर पर गीतांजलि के गीतों से प्रभावित होकर श्रीमती मेसिनक्लेयर ने रवीन्द्रनाथ  को एक पत्र लिखा – ” पता नहीं मैं इन गीतों को फिर कभी सुन पाऊँगी या नहीं, पर जब तक मैं जीऊँगी, तब तक अपने दिल और दिमाग पर छाए हुए उन गीतों के प्रभाव को कभी भी भूल नहीं पाऊँगी ” इस प्रकार वहाँ उपस्थित प्रायः सभी कलामर्मज्ञों की सम्मति थी कि, रवीन्द्रनाथ की कविताओं के शब्दों में जितना माधुर्य था उतनी ही स्वाभाविकता भी थी । यही कारण है कि, उनके गीत सीधे आत्मा को स्पर्श करते हैं ।

रवीन्द्रनाथ के सम्मानार्थ, 10 जुलाई 1912 को लंदन के ट्रोकेडेरो रेस्तरां में एक भोज का आयोजन किया गया, जहाँ कई कलामर्मज्ञों की उपस्थिति में सभापति का आसन आयरिश कवि यीट्स सुशोभित कर रहे थे । यीट्स ने रवीन्द्रनाथ की प्रशंसा इन शब्दों में की – “आज यहाँ रवीन्द्रनाथ के सम्मान में भाग लेना मेरे साहित्यिक जीवन की सबसे बड़ी घटना है मैं ऐसे किसी कवि को नहीं जानता जिसने अंग्रेजी में इतने सुन्दर गीत लिखे हों मेरे पास इनके गीतों के अंग्रेजी में किए गए सारे मूल पद्यानुवाद रखे हैं मैं जब भी उन गीतों को पढ़ता हूँ, तबतब इनके भाषागत और भावगत सौन्दर्य पर मुग्ध हो जाता हूँ मि. टैगोर प्रकृति के परमप्रेमी हैं उनकी कविताएँ हृदय के मार्मिक स्पर्श से परिपूर्ण है ” प्रसिद्ध कवि डब्लयू. बी. यीट्स ने न केवल उन गोष्ठियों में रवीन्द्रनाथ की कविताओं का पाठ करके वहाँ उपस्थित कलाप्रेमियों, विद्वानों को गुरुदेव की लेखन प्रतिभा से परिचय कराया बल्कि उन्होंने गीतांजलि के अंग्रेजी संस्करण ‘Song Offerings’ की भूमिका भी लिखी, जिसमें उन्होंने लिखा है – “I know no men in my times who have done anything in English language to equal Tagore lyrics.” कवि यीट्स ने इसकी प्रस्तावना में यह भी लिखा है – “These prose translation from Ravindranath Tagore have stirred my blood as nothing has for years.” इस प्रकार कवि यीट्स ने जहाँ Song Offerings की भूमिका लिखी, वहीं रोथेनस्टीन ने इस संग्रह के लिए एक स्केच तैयार किया, और फिर इन दोनों कलामर्मज्ञों के प्रयासों से नवम्बर, 1912 में ‘इंडिया सोसाइटी ऑफ लंदन’ से इसका प्रकाशन किया गया । पहली बार इसकी 750 प्रतियाँ छापी गई, जो केवल इंडिया सोसाइटी के सदस्यों के लिए थी । बाद में लंदन के ही ‘जॉर्ज मैकमिलन’ ने भी गीतांजलि का एक विशेष संस्करण प्रकाशित किया । अक्टूबर 1912 में रवीन्द्रनाथ लंदन से संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए रवाना हुए, जहाँ वे अपने पुत्र के आग्रह पर कुछ महीनों के लिए ‘उरबाना’ में ठहरे थे । नवम्बर, 1912 में जब गीतांजलि का ‘इंडिया सोसाइटी’ वाला संस्करण लंदन से प्रकाशित हुआ तब रवीन्द्रनाथ ‘इलिनॉय’ मे थे । इस संस्करण के प्रकाशित होते ही गीतांजलि के गीतों की जगह-जगह अनेक सराहना होने लगी, और फिर संसार की लगभग सभी भाषाओं में गीतांजलि का अनुवाद हुआ ।

ब्रिटिश पत्रों ने गीतांजलि का भव्य स्वागत किया । टाईम्स लिटरेरी सप्लीमेंट ने लिखा था – “इन कविताओं को पढ़कर हमें लगता है मानों हम अपने युग के किसीडेविडके गीत पढ़ रहे हैं ” इस समाचार का उल्लेख करते हुए रोथेनस्टीन ने रवीन्द्रनाथ को एक पत्र लिखा जिसके जवाब में रवीन्द्रनाथ ने 19 नवंबर 1912 को उरबाना से रोथेनस्टीन को लिखा – “आपके पत्र के माध्यम से यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि ‘टाईम्स लिटरेरी सप्लीमेंट’ में मेरी काव्य-संग्रह की प्रशंसापूर्ण समीक्षा प्रकाशित हुई । सच कहूँ, गीतांजलि की सफलता का सारा श्रेय आपको जाता है । मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि, मेरे द्वारा किए गए ये पद्यानुवाद किसी काम के भी हो सकते हैं । गीतांजलि के गीतों के सम्बन्ध में आपकी धारणा सही निकली । इन कविताओं पर साहित्य के विशेषज्ञों व पारखियों का समर्थन पाकर आपके द्वारा किया गया परिश्रम और भी सार्थक हो गया । अब तो आपको अपने इस मित्र पर और भी गर्व हुआ होगा । जो भी हो आपके प्रोत्साहन के बिना यह कभी भी सम्भव नहीं था ।”

उरबाना में रहने के दौरान एक भारतीय श्री बसन्त कुमार राय, रवीन्द्रनाथ से मिलने पहुँचे और उनसे आग्रह किया कि वे अपनी कुछ और रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद कर प्रकाशित करवाएं । मि. राय ने जो महसूस किया वह उन्होंने कहा भी था कि – “कविताओं के लिए कभी ना कभी आपकोनोबल पुरस्कारअवश्य मिलेगा अभी तक भारत अथवा एशिया के किसी भी साहित्यकार को यह पुरस्कार नहीं मिला है।” इस पर रवीन्द्रनाथ ने मि. राय से बड़े ही भोलेपन के साथ पूछा – “क्या कभी किसी एशियावासी को यह पुरस्कार मिल सकता है?” गुरुदेव का यह प्रश्न कटु सत्य था, क्योंकि जब उन्हें यह पुरस्कार दिया गया तब पश्चिम के अनेक देशों से यह सवाल उठाया गया कि, नोबल पुरस्कार किसी एशियावासी को कैसे मिल सकता है? कनाडा में टोरन्टो के एक पत्र ग्लोब ने लिखा था – “यह पहला अवसर है जब नोबेल पुरस्कार किसी ऐसे व्यक्ति को दिया गया, जो गोरा नहीं है ” ग्रेट ब्रिटेन और भारत दोनों ही जगह काफी आलोचना भी हुई । आलोचकों को यह विश्वास नहीं था कि रवीन्द्रनाथ इतनी अच्छी अंग्रेजी लिख सकते हैं और गीतांजलि की सफलता का सारा श्रेय डब्लयू. बी. यीट्स को दिया जा रहा था । लेकिन सच तो यह है कि यीट्स ने गीतांजलि की कविताओं में कहीं-कहीं केवल सुधार के सुझाव दिए थे, मूल ग्रन्थ तो वैसा ही प्रकाशित हुआ जैसा कि रवीन्द्रनाथ ने अपने हाथ से लिखा था ।

गीतांजलि का अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित होने के लगभग महीने भर पश्चात तत्कालीन प्रसिद्ध समीक्षक एज़रा पाउण्ड ने लिखा था – “गीतांजलि के प्रकाशन के पूर्व एक बार मैं कवि यीट्स के घर गया था, तब मैंने पाया कि वे किसी महान कवि के आगमन से अत्यधिक उत्साहित थे वे, जो समकालीन कवियों में सभी से महान थे मैं अपनी बात कहाँ से शुरू करूँ समझ नहीं रहा है क्योंकि रवीन्द्रनाथ की कविताओं को पढ़ने के बाद ऐसा लगा, जैसे हमने अचानक अपना एक नया यूनान पा लिया, ठीक वैसे ही जैसे यूरोप के पुनर्जागरण से पहले के दिनों में देखा जा सकता था ” उन दिनों अर्थात गीतांजलि के अंग्रेजी संस्करण के प्रकाशन के बाद रवीन्द्रनाथ जहाँ भी जाते, कलामर्मज्ञ उनके सम्मानार्थ पलकें बिछा देते । उनकी प्रसिद्धि अटलांटिक महासागर के उस पार तक जा पहुँची थी । ‘स्केंडिनेविया’ जैसे सुदूर देशों में भी गुरुदेव के इस प्रगीतात्मक पद्य का गहरा प्रभाव देखा गया । विख्यात उपन्यासकार हालडौर लैक्सनैस (उल्लेखनीय है कि इन्हें भी बाद में नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ) ने उस प्रभाव का स्मरण करते हुए लिखा है – “गीतांजलि को पढ़ने के बाद उनके गीतों की भावानुभूति और सौन्दर्यचेतना की अभिव्यक्ति से परिपूर्ण एक आन्तरिक लय मेरे दिल की गहराई में उतर गई, तब से मैं प्रायः अपने मन की गहनतम वीथियों में उसकी उपस्थिति का अनुभव करता हूँ पश्चिमी देशों की भांति मेरे देश में भी गीतांजलि के सौरभ ने एक ऐसा आध्यात्मिकसंदेशात्मक लहर पैदा कर दिया जो हमने पहले कभी भी देखा और सुना था

जनवरी 1913 में गुरुदेव ‘शिकागो’ पहुँचे । उनसे पहले उनकी ख्याति वहाँ पहुँच गई थी । शिकागो की ‘पोएट्री’ (Poetry) पत्रिका के दिसम्बर 1912 के अंक में गीतांजलि की छः कविताएँ प्रकाशित हुई थी । विदेश में रवीन्द्रनाथ की कविताएं प्रकाशित करने वाली यह पहली पत्रिका थी । शिकागो में गुरुदेव मिसेज हेरिएट मूडी के घर पर ठहरे थे। यहाँ के विश्वविद्यालय में वे ‘भारत की प्राचीन सभ्यता’ पर भाषण दिए । इस प्रकार अमेरिका में रवीन्द्रनाथ के सम्मानार्थ आयोजित विभिन्न सभाओं में उन्होंने ‘भारतीय आध्यात्म तथा दर्शन’ पर व्याख्यान प्रस्तुत किए । गीतांजलि के प्रकाशन व उसके ओजस्वी व्याख्यान-माला से प्रभावित अमेरिका के कलामर्मज्ञ रवीन्द्रनाथ की एक झलक पाने को उत्सुक थे । इन्हीं दिनों रोचेस्टर में ‘जातियों की कांग्रेस’ का अधिवेशन हो रहा था । रवीन्द्रनाथ वहाँ भी अतिथि के रुप में आमंत्रित किए गए जहाँ उन्होंने ‘जाति संघर्ष’ पर व्याख्यान प्रस्तुत किया । यहाँ उनकी मुलाकात रुडोल्फ यूकेन से हुई जो इस कॉन्फ्रेंस में भाग लेने के लिए जर्मनी से आए हुए थे । मि. यूकेन भी रवीन्द्रनाथ से मिलने के लिए आतुर थे क्योंकि गीतांजलि पढ़ने के बाद वे भी गुरुदेव के प्रशंसक बन चुके थे । इस व्याख्यान-माला से हुए लोक ख्याति के पश्चात आत्मीय निमंत्रण पाकर गुरुदेव ‘बोस्टन’ पहुँचे जहाँ प्रसिद्ध विद्वानों की एक सभा में उन्होंने ‘प्राचीन भारत के आदर्शों’ पर अत्यन्त प्रभावशाली भाषण दिया । इसके पश्चात 10 मार्च 1913 को रवीन्द्रनाथ हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अपने व्याख्यान के साथ सादर आमंत्रित किए गए जहाँ उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी । अप्रैल 1913 में रवीन्द्रनाथ अमेरिका से लंदन वापस लौट आए और वहाँ के ‘कैक्सटन हॉल’ में उन्होंने एक ओजपूर्ण व्याख्यान प्रस्तुत किया । लगभग एक वर्ष पूर्व जून 1912 को जब रवीन्द्रनाथ कलकत्ता से लंदन आए थे तब वे लंदनवासियों के लिए एक अति साधारण व अनजान व्यक्ति थे लेकिन इस एक वर्ष के अन्तराल में गीतांजलि (Song Offerings) के प्रकाशन के बाद, वे एक चिरपरिचित कवि व विराट व्यक्तित्व वाले साहित्यकार बन गए थे । रवीन्द्रनाथ को एक अपरिचित देश में अनजान लोगों से जो स्नेह, सम्मान और अपनापन मिला उसे उन्होंने गीतांजलि के गीतों के माध्यम से कुछ इस प्रकार व्यक्त किया था –

हे प्रभु! कितने अनजानों से परिचित कराया तुमने

कितने घरों में दिया स्थान

दूर को किया करीब, बन्धु

पराए को बनाया भाई ।

 

जुलाई 1913 में गुरुदेव की शारीरिक अस्वस्थता के कारण उन्हें लंदन के एक नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया, जहाँ उनका ऑपरेशन हुआ । सितम्बर 1913 में स्वास्थ्य लाभ और यश दोनों अर्जित करके रवीन्द्रनाथ अपने घर (कलकत्ता) के लिए रवाना हो गए ।

रोथेनस्टीन के अनुसार इंग्लैण्ड और अमेरिका में गुरुदेव की बेशुमार ख्याति अर्जित होने पर ‘फॉक्स स्ट्रैंगवेज’ चाहते थे कि ऑक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज रवीन्द्रनाथ को ऑनरेरी डिग्री प्रदान करें । इंग्लैण्ड ने गुरुदेव के साहित्य में योगदान की ‘प्रथम प्रबल स्वीकृति’ प्रदान करने का जिम्मा स्वीडन पर छोड़ दिया था । स्वीडिश एकेडमी के विशिष्ट सदस्य ‘एण्डर्स ऑस्टरलिंग’ ने प्रामाणिक ब्यौरा दिया कि, गीतांजलि के लिए ‘नोबल पुरस्कार’ की चयन समिति को रवीन्द्रनाथ के नाम का प्रथम औपचारिक प्रस्ताव अंग्रेज कवि टी. स्टर्ज मुर ने भेजा था । मुर ने स्वीडिश एकेडमी की ‘नोबल पुरस्कार’ समिति को पत्र लिखा था –

महोदय,

यूनाइटेड किंगडम की रॉयल सोसाइटी के सम्मान्य फैलो होने के नाते मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक सुयोग्य साहित्यकार / कवि – रवीन्द्रनाथ टैगोर का नाम प्रस्तावित करता हूँ और मेरे विचार से इनकी श्रेष्ठ कृति ‘गीतांजलि’ के लिए इन्हें ‘नोबल पुरस्कार’ से सम्मानित किया जा सकता है ।

“टी.स्टर्ज मुर”

 

‘नोबल पुरस्कार’ समिति के दो सदस्यों पेर हॉलस्ट्राम और बर्नर वॉन हाइडेन स्टॉम के तर्कसंगत समर्थन से गुरुदेव को ‘नोबल पुरस्कार’ देने का निर्णय लिया गया था। पेर हॉलस्ट्राम नोबल पुरस्कार समिति के सुयोग्य सदस्य सचिव थे, जिन्होंने नोबल पुरस्कार समिति को अपने कार्यालय प्रतिवेदन में लिखा – “गीतांजलि के असाधारण काव्यसौंदर्य के बारे में कोई मिथ्या धारणा नहीं है अपनी अभिव्यक्ति में यह क्लासिकल सहजता लिए हुए हैं इसमें निहित बिम्ब विचारपूर्ण एवं स्वतःस्फूर्त भाषा के साथ विद्यमान है, इन्हें किसी आकारगत ढाँचे की जरूरत नहीं है, क्योंकि शब्दों के उल्लेख मात्र से इन्हें पूर्णता प्राप्त हो गई है ” वॉन हाइडेन स्टॉम समिति के एक विद्वान व्यक्ति थे, इन्हें भी कालान्तर में नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ है । वॉन हाइडेन स्टॉम ने गीतांजलि के सम्बन्ध में लिखा है – “जब मैंने गीतांजलि के गीत पड़े तब मैं अंदर से हिल गया और मुझे याद नहीं कि पिछले दो दशकों में मैंने ऐसी कोई प्रगीतात्मक रचना पढ़ी हो इन गीतों के पढ़ने से मुझे अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ है कवि के विचार में शुचिता, उनकी शैली में स्वाभाविक गरिमा, ह्रदय की निर्मलता से एक सर्वांग सुंदर रचना की सृष्टि हुई जो अद्भुत, असाधारण आध्यात्मिक भावसौंदर्य से परिपूर्ण है गीतांजलि एक निर्मल काव्यसंग्रह है अंततः हमें महान स्तर का एक आदर्श कवि मिल ही गया है, और शायद दीर्घ समय तक हमें यह गौरव प्राप्त रहेगा कि हमने एक महान व्यक्ति का नाम खोज निकाला है

अंग्रेजी के तत्कालीन प्रायः सभी समीक्षकों ने यह विचार प्रकट किया था कि – “हम सबने सचमुच एक युगान्तरकारी घटना का साक्षात्कार किया है ” बल्कि कुछ विद्वानों का तो यहाँ तक मानना था कि यदि साहित्य के क्षेत्र में ‘नोबल पुरस्कार’ से भी बड़ा कोई पुरस्कार होता, तो वह भी गीतांजलि के लिए ‘गुरुदेव’ को प्रदान किया जाना चाहिए था । दरअसल गीतांजलि के गीतों की वास्तविकता तो यह है कि इन्हें पढ़ते या सुनते हुए ऐसा महसूस होता है जैसे यह किसी कवि के द्वारा रची हुई मात्र कविताएँ ही नहीं है, बल्कि साधारण जनों के अन्तर्मन से निकली हुई उद्गार है ।

अंततः सितम्बर 1913 में गुरुदेव अपनी यूरोप यात्रा पूरी करके भारत के लिए रवाना हो गए और 06 अक्टूबर 1913 को वे कलकत्ता, शांतिनिकेतन पहुँचे । शांतिनिकेतन पहुँचने के लगभग सवा महीने पश्चात 13 नवम्बर 1913 को लंदन से रूटर द्वारा भेजा गया एक समाचार कलकत्ता के प्रमुख समाचार पत्र ‘दैनिक स्टेट्समैन’ में इस प्रकार छपा –

 

रवीन्द्रनाथ टैगोर

‘नोबल पुरस्कार’ दिया गया

लंदन 13 नवम्बर 1913

 

यह समाचार छपते ही संपूर्ण देश में खुशियों की लहर दौड़ गई । आखिर क्यों न हो, सदियों से गुलामी की जंजीरों में जकड़ी भारत माता का ये सपूत सारे संसार को न केवल मानवता का पाठ पढ़ाया बल्कि मंत्रमुग्ध भी किया । इस प्रकार 1913 में गीतांजलि की गीतों के माध्यम से गुरुदेव ने विश्व-मानव को मानवता का जो अद्भुत संदेश दिया, शताब्दी पश्चात आज भी उसकी प्रासंगिकता वैसी ही बनी हुई है, और आगे भी जब तक मानव-सभ्यता जीवित रहेगी, तब तक यह महाकाव्य, मानव-सभ्यता और संस्कृति के लिए प्रेरणा स्रोत बना रहेगा ।

 

 

 

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