पूंजीवाद मृत्यशय्या पर जा चुका है

इक़बाल हिंदुस्तानी

पूंजीवाद मृत्यशय्या पर जा चुका है, अब बचना मुश्किल है!

कारपोरेट सैक्टर की लूट अब भारत में भी और नहीं चलेगी!

1930 से अब तक सात बार पूंजीवाद मंदी का शिकार हुआ लेकिन उसकी गति पर हर बार थोड़ा सा ब्रेक लगा और वह संभल गया। इस बार सबप्राइम संकट से अभी वह पूरी तरह से बाहर आया भी नहीं था कि कर्ज और साख संकट की मुसीबत में फंस गया है। इससे निकलने का रास्ता अमेरिका उत्पादन बढ़ाकर इसकी गति तेज करना मान रहा है। उधर अमेरिका में हाल ही में वालस्ट्रीट पर कब्ज़ा करने का जो आंदोलन शुरू हुआ है उसकी मांग बेतहाशा कारपोरेट मुनाफे पर रोक लगाकर समय रहते समान अवसर की व्यवस्था लाने के प्रयास करना है। हकीकत यह है कि पिछले चार दशकों में पूंजीवाद ने जो तेजी हासिल की थी उसकी मुख्य वजह सस्ती मज़दूरी और अधिक लाभ रहा है लेकिन दुनिया के ग्लोबल विलेज बनते जाने से अब ऐसा करना मुमकिन नहीं रह गया है। जो बेरोज़गारी पूंजीवाद के लिये वरदान मानी जाती थी वही आज अमेरिका में पूंजीवाद के संकट का बड़ा कारण बनती नज़र आ रही है। 2008 की मंदी के बाद आज एक बार फिर अमेरिका संकट में फंसता दिखाई दे रहा है। यही हालात कमोबेश यूरोप के भी हैं। मिसाल के तौर पर ग्रीस 160 मिलियन डालर की मदद हासिल करके भी मुसीबत से बाहर नहीं निकल पा रहा है। वहां अब तक 30 हज़ार से अधिक लोग अपनी नौकरी गंवा चुके हैं जिससे इतनी भारी आर्थिक सहायता के बावजूद वहां जनता का विरोध सड़कों पर आने लगा है। इधर ख़बरें आ रही हैं कि इटली, स्पेन, फ्रांस और ब्रिटेन आदि देश भी ग्रीस की राह पर चल पड़े हैं। इससे भी ख़राब हालत इनके पूंजीवादी बॉस अमेरिका की है वहां पिछले एक साल में एक लाख से अधिक लोग बेरोज़गार हो चुके हैं। इतना ही नहीं एक करोड़ से अधिक लोग इससे अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए हैं। अमेरिका में उपभोक्ता विश्वास सूचकांक लगातार गिरावट दर्शा रहा है। एक दौर था जब अमेरिका ने समाजवाद के गढ़ माने जाने वाले सोवियत रूस को घुटने टेकने को मजबूर कर यह संदेश दिया था कि अब दुनिया एक ध्रुवीय यानी पूंजीवाद की एकमात्र राह पर चलने वाली हो चुकी है। दो दशक बाद ही इस दावे की पोल खुलती नज़र आने लगी है। आज अमेरिका पूंजीवाद के बीमार होने से ही भयंकर मंदी की ओर बढ़ रहा है। वहां गरीबी, बेरोज़गारी, मीडियम क्लास की दिन ब दिन ख़राब होती हालत, सार्वजनिक मदों में बढ़ती ख़र्च कटौती से अपराजेय माने जाने वाला अमेरिका हांफता लग रहा है। हालांकि अमेरिकी कारपोरेट मीडिया ने शुरू में इस संकट को अपने प्रभाव से छिपाने और दबाने की खूब कोशिशे की लेकिन अरब देशों की तरह इंटरनेट की सोशल नेटवर्किंग साइटों ने उसके इरादों पर पानी फेर दिया। 17 सितंबर को मुट्ठीभर लोगों ने न्यूयार्क के पास मार्च निकला था लेकिन 18 सितंबर को वालस्ट्रीट के पास एक पार्क में जब मीटिंग की गयी तो इसे जनरल असैंबली का नाम दे दिया गया। बाद में इस पार्क को लिबर्टी पार्क कहा जाने लगा। यहां आंदोलन की रूपरेखा तय होने के बाद अमेरिकी सरकार से मांग की गयी कि बेरोज़गारों को नियमित भत्ता, सबको फ्री शिक्षा, सम्मानजनक वेतन, संरचनागत विकास को दस ख़रब डालर का निवेश, सबको मेडिकल सुविधा, हर क्षेत्र मं बराबरी, कर्ज़ का खात्मा, देनदारी सूचकांक का समापन, तेल पर आधारित अर्थव्यवस्था को वैकल्पिक उूर्जा के श्रोतों पर निर्भर बनाना, मज़दूरों को यूनियन बनाने का अधिकार और भ्रष्टाचार का खात्मा करना शामिल है। अमेरिका सहित पूरे यूरोप में कारपोरेट की लूट का पूंजीवाद बीमार होकर अस्पताल में भर्ती है, एक तरह से मृत्यशय्या पर जा चुका है इस बार उसका बचना कठिन है। अमेरिका में न्यूयार्क की वालस्ट्रीट वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की तरह उसकी मज़बूत आर्थिक स्थिति की पहचान समझी जाती है। यही कारण है कि विरोध प्रदर्शन को सड़कों पर उतरे लोगों ने सबसे पहले ब्रुकलिन पर धवा बोलकर वहां क़ब्ज़ा करने की कोशिश की । प्रदर्शनकारियों ने कारपोरेट पर सीधा हमला बोलते हुए नारा दिया कि वालस्ट्रीट जनता का शत्रु बन चुका है। इस पर कब्ज़ा करने का यह साफ मतलब है कि आगे से कारापोरेट जगत की मनमानी सहन नहीं की जायेगी। प्रदर्शनकारियों की मुख्य मांग है कि सम्पत्ति की असमानता को ख़त्म करो। हालांकि पहली अक्तूबर को ब्रुकलिन पर कब्जे़ की घोषणा से सचेत अमेरिकी सरकार ने इस पूरे क्षेत्र को छावनी में तब्दील कर दिया था लेकिन इसके बावजूद वहां हज़ारों की तादाद में भीड़ जमा होने में कामयाब हो गयी। जब सरकार ने 700 लोगों को गिरफतार कर लिया तब पूंजीवादी मीडिया अपनी बची खुची साख को बचाने के लिये इसकी ख़बर पूरी दुनिया को देने को मजबूर हुआ। देखते ही देखते यह आंदोलन वाशिंगटन, बोस्टन, मियामी, लॉस एंजेलिस, सीएटल, पोर्टलैंड, ओरेंगी, डेनेवर, क्लीवलैंड, मिनीसोटा आदि शहरों में फैल गया। इसका नतीजा यह हुआ कि पहली बार अमेरिका की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन एसएफएल-सीआईओ सहित दूसरी बड़ी यूनियनों के ऑकुपाई वालस्ट्रीट आंदोलन के पक्ष में खुलकर आ जाने से सरकार की मुसीबत बढ़ती जा रही है। 12 लाख से अधिक संख्या वाली स्टील वर्कर्स यूनियन ने भी इस आंदोलन को समर्थन दे दिया है। हालत यह है कि ट्रांस्पोर्ट यूनियन, वर्किंग फैमिली पार्टी, कम्युनिकेशन वर्कर्स, यूनाइटेड ऑटो वर्कर्स, यूनाइटेड फैडरेशन आफ टीचर्स, नेशनल नर्सेज़ यूनाइटेड एसोसियेशन, राइटर्स गिल्ड ईस्ट, एलायंस पफॉर क्वालिटी एजुकेशन, एनवाईसी कोलिसन फॉर एजुकशनल जस्टिस, नेशनल पीपुल्स ऐक्शन, “यूमन सर्विस कौंसिल जैसी सैंकड़ों यूनियन अब इस आंदोलन से लगातार जुड़ रही हैं। पूंजीवाद आज मृत्यशय्या पर पहुंच चुका है जिससे यूरूपीय अमीरों ने खुद ही अपनी सरकारों से कहना शुरू कर दिया है कि उनपर टैक्स बढ़ा दिया जाये ताकि दुनिया आर्थिक बदहाली से बाहर आ सके। हांगकांग स्थित ग्लोबल इंडस्टीच्यूट पफॉर टुमारो के संस्थापक चंद्रन नायर का दो टूक कहना है कि पश्चिमी पूंजीवाद का खेल ख़त्म हो गया है। संसाधन और श्रम की कम कीमत रखकर मुनाफा बढ़ाने के पूंजीवादी खेल की पोल खुल चुकी है। अब दुनिया को एक नई सोच की ज़रूरत है, जिसमें केवल लाभ आधारित विकास की तंग सोच से आगे आकर समग्र मानवीय विकास के बारे में सोचना होगा। उध्र अमेरिका में जनता पूंजीवाद के वर्तमान स्वरूप के खिलाफ सड़कों पर उतर आई है जिससे यह सच सामने आ चुका है कि आज देश को सरकारें नहीं बल्कि मल्टीनेशनल कम्पनियां चला रही हैं। इन कम्पनियों की एक तो लाभ की कोई सीमा नहीं है उूपर से ये किसी तरह की पाबंदी और नियमन के भी खिलाफ हैं। इस मनमानी का नतीजा यह है कि हर बड़ी कम्पनी छोटी कम्पनी को निगल रही है। पूंजीवाद के आका यह भी भूल गये कि पिछली शताब्दी में पूंजीवाद के सबसे बड़े रक्षक जे एम कीन्स ने कहा था कि अनियंत्रित बाज़ार सदा मुसीबत खड़ी करता है इसलिये समानता न केवल अच्छी राजनीति है बल्कि यही अच्छा अर्थशास्त्र भी है। आज हम यह भी भूल चुके हैं कि पहले मुनाफा अगर बाज़ार का होता था तो घाटा भी उसी का होता था लेकिन आज तो कारपोरेट पूंजीवाद ने मुनाफा अपना और घाटा दिवालिया होने से उबरने के लिये सरकार से पैकेज लेने का औज़ार बना लिया है।

उम्रभर औरों पे हंसना ही था मेरा मशगला,

क्या पता था औरों के हंसने का सामां मैं भी हूं।।

 

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

5 COMMENTS

  1. डाक्टर मधुसुदन जी,सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि इसे आर्यान्वित करेगा कौन?

  2. अनिल गुप्ता, मिरत से सहमति व्यक्त करता हूँ. एकात्म मानव दर्शन पर जब भी मैं ने यहाँ गोष्ठियों में विचार रखे, प्रशंसा ही हुयी| उसी पर आधारित मानव केन्द्रित अर्थ शास्त्र भी दत्तोपंत ठेंगडी जी ने Third Way नामसे बिज रूपमें लिखा है| यह भारत की विश्वको मौलिक देन सिद्ध होगी. इसे तत्काल क्रियान्वित किया जाना चाहिए|

  3. यह तो सही है कि साम्यवाद का वर्तमान रूप पूँजीवाद का विकल्प नहीं हो सकता,तब बचता है दीन दयाल उपाध्याय का एकात्म मानव वाद या फिर गांधीवाद.दोनों का मूल सिद्धांत मेरे विचारानुसार स्वार्थ से ऊपर उठने की भावना पर आधारित है.यही निस्वार्थ भावना यदि पूंजीवादी व्यवस्था के प्रवर्तक भी अपना लें और यह मान कर चले कि जब पड़ोसी भूखा रहेगा तो हम बहुत दिनों तक अमीरी में नहीं जी सकेंगे,तो सारी समस्या का समाधान अपने आप हो जाएगा.हमारे प्राचीन ग्रंथों से लेकर गांधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत इसी पर आधारित है.ये विकल्प इतने आसान भी नहीं है.ऐसे मनुष्य स्वभाव ऐसा है कि कोई न कोई विकल्प तो ढूंढ ही लेगा. हो सकता है जैसे मार्क्स वाद सामने आ गया था वैसा ही अन्य वाद सामने आ जाए.ऐसे तो मुझे व्यक्तिगत रूप से ऐसा नहीं लगता कि पूंजी वाद के मर्सिया लिखने का समय अभी आया है.

  4. इक़बाल हिन्दुस्तानी जी आपका बहुत – बहुत धन्यवाद मै सोच ही रहा था कि प्रवक्ता डाट कॉम पर इस बावत कब लेख आयेगा और देखिये आ ही गया इसके लिए इस साईट के प्रबंधक का भी शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ अब भाई शंकर शरण जैसे लोगों कि प्रतिक्रिया पढना चाहूँगा कौन सा बहाना बना कर इसके लिए मार्क्सवाद को ही जिम्मेदार ठहराएंगे यह दुर्दिन तो आना ही था एक डायलोग वक्त फिल्म का है कि जिनके घर शीशे के होते है वे दूसरों के घर मै पत्थर नहीं फेंकते सोवियत रूस मै साम्यवाद का पतन जब हुआ तो इसी अमेरिका के सिद्धांतकार तरह तरह की थ्योरिया दे रहे थे की अब तो इतिहास का अंत हो गया अब विश्व मै एक ध्रुवीय व्यवस्था ही होगी इत्यादि आज अख़बार जो पूंजीवादी व्यवस्था के गीत गाते थकते नहीं इस विशाल प्रदर्शन और जनाक्रोश के उभार को बहुत ही हलके तौर पर ले रही है इसे पूंजीवाद के मौत के तौर पर नहीं देख रही हैं
    हर जगह इस बेशर्म पूंजी का नगा नाच चल रहा है भारत जैसे देश इसके लिए प्रदर्शन स्थल का इंतजाम कर रहे है कौन दिन ऐसा जाता है जब कोई न कोई घोटाला और महाघोटाला की ख़बरें नहीं आती रूस मै एक कहावत बहुत प्रचलित था कि इफ यू वांट टू किल ए डॉग गिव हिम ए बैड नेम तो सारी दुनिया मै मार्क्सवाद को गाली देने वालों कि कभी कमी नहीं रही भारत के लोग भी पीछे क्यों रहते अपने यहाँ कि तमाम सामाजिक बुराइयों और आर्थिक प्रबंधों के समझों मै ना समझी होते हुए भी पश्चिम के सुर मै सुर मिला कर राग भैरवी गा रहे है मुख्य स्वर मनमोहन सिंह और अहलुवालिया का है बाकि प्रणब मुखर्जी और अन्य तबले ढोलक ले कर ताल दे रहे है तभी तो बत्तीस रुपया पाने वाला अमीर की श्रेणी मै आ जाता है यह तर्क सिर्फ पूंजी वादी व्यवस्था दे सकता है भिखमंगे तक अमीर की श्रेणी मै आ गए है .इससे बढ़िया
    बात और क्या हो सकती है तो चलिए सभी लोग इस मौत का मर्शिया गाये और इसको दफ़न कर कुछ मिटटी भी इसे दे
    बिपिन कुमार सिन्हा

  5. नब्बे के दशक में साम्यवाद/समाजवाद के खात्मे के बाद अब पूंजीवाद की मौत केवल कुछ समय का खेल रह गया है. इकोनोमिक्स के विद्यार्थी , खास कर भारत के विद्यार्थी, जब इकोनोमिक्स की परिभाषा पढ़ते हैं तो जहाँ पश्चिमी अर्थशास्त्रीगण इकोनोमिक्स की परिभाषा में ये बताते है की इकोनोमिक्स उस विज्ञानं को कहते हैं जिसके द्वारा इच्छाओं/ आवश्यकताओं की पूर्ती ( वांट्स सेटिस्फेक्शन ) का रास्ता बताया जाता है. लेकिन भारतीय परिभाषा डॉ. जे.के मेहता द्वारा दी गयी की इकोनोमिक्स उस विज्ञानं को कहते हैं जिससे आवश्यकताओं को न्यूनतम (वांट्स मिनिमयिजेशन) का रास्ता बताया जाता है. उनका कहना था की जब हम एक आवश्यकता की पूर्ती कर लेते हैं तो इक्षाएं गणितीय ढंग से बढती हैं और दस नयी इक्षाएं उत्पन्न हो जाती हैं जब हम उनकी पूर्ती का प्रयास करते हैं तो सेंकडो नयी इक्षाएं आ खड़ी होती हैं. हम अक्षों की पूर्ती के इस दुष्चक्र से कभी बहार नहीं निकल पाते. अतः सुख प्राप्ति के लिए इक्षाओं का न्यूनीकरण करना ही उचित है और इसका तरीका बताने वाला विज्ञानं ही इकोनोमिक्स है. यही बात हमारे ऋषियों ने हजारों वर्ष पहले इशावास्योपनिषद में इस प्रकार कही थी ” इशावास्यम इदं सर्वं यात्किंचन जगत्यां जगत, तें त्यक्तेन भुन्जिथं माँ गृध कस्यस्विध्नाम”.अर्थात जो कुछ भी इस चराचर विश्व में है वो सभी उस परमात्मा का है. हमें अपनी आवश्यकता भर पर ही अधिकार है अधिक से हमारा कोई सम्बंद्ग नहीं है.( मैंने भाव बताने का प्रयास किया है, यदि सूत्र लेखन में या अर्थ बताने में कोई त्रुटी हो गयी हो तो मै छामाप्रार्थी हूँ). लगभग पेंतालिस वर्ष पूर्व इसी बात को पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने एकात्म मानववाद के नाम से उद्घोषित किया था. लेकिन इस दर्शन को उनके अनुयायियों ने ही छोड़ दिया.जबकि इस दर्शन में आज के विश्व की साड़ी परेशानियों का हल संभव था. यह दर्शन मानव जीवन के लिए केवल अर्थ को सर्वोपरि नहीं मानता है बल्कि प्राचीन भारतीय दर्शन की नए रूप में प्रस्तुतीकरण करता है जिसके अनुसार मनुष्य को अर्थ के अतिरिक्त धर्म, कम व मोक्ष की भी आवश्यकता है. और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का ये पुरुषार्थ चतुस्य ही मानव जीवन को पूर्णता दे सकता है. दुर्भाग्य वश हमारे देश के कर्णधारों की ज्ञान की seema केवल लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स अथवा हार्वर्ड स्कूल ऑफ़ बिजनिस मेनेजमेंट तक ही सीमित है. उन्होंने केन्स और डाल्टन के आगे पब्लिक फाईनेंस नहीं पढ़ा है. एक तरीका सहभागी अर्थतंत्र का भी हो सकता है ये उनके जेहन में नहीं आता है. ऐसे बहुत से लोग हैं जो कर नियोजन के द्वारा भारी कर बचाते हैं लेकिन चेरिटी में करोड़ों रुपये दान दे देते हैं. इस दान को भी पेरा टेक्सेशन या हिन्दू पब्लिक फाईनेंस कह सकते हैं इसे सहभागी अर्थतंत्र भी कह सकते हैं. इस पर प्रयोग किया जाना चाहिए. जहाँ तक पूंजीवाद का सवाल है तो ये भी मानव के shosan पर adharit है अतः इसका तो अंत होना लाजिमी था. इसके समाप्त होने से पहले ही भारत को एकात्म मानववाद पर आधरित तीसरा विकल्प दुनिया के सामने रखना चाहिए. जहाँ पूंजीवाद सरवाईवल ऑफ़ द फिटेस्ट पर आधारित है वहीँ समाजवाद मानव को स्वंत्र न मानकर एक मशीनरी का अंग मानता है. जबकि एकात्म मानववाद सारी दुनिया को वसुधैव कुटुम्बकम तथा सर्वे भवन्तु सुखिनः का सन्देश देते हैं.इसी में आज के कर्ज की विभीषिका से त्रस्त विश्व के कल्याण का मार्ग छुपा है. क्या कोई इस पर विचार करेगा?

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