प्रदेश के इस कोरोना योद्धा को ना भूलिए

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मनोज कुमार

हम सब एक नए समाज में जी रहे हैं। इस नए समाज का ताना-बाना सिर्फ प्राप्त करने के लिए है। हमने एक-दूसरे की चिंता करना छोड़ दिया है। अपनी जरूरतों के हिसाब से हमने अपनी जिम्मेदारी तय कर दी है कि जो मुखिया है, उसका काम जरूरत की पूर्ति करना है। मुखिया के लिए जिम्मेदारी तय करते समय हम भूल जाते हैं कि वह मुखिया भी हमारी तरह मनुष्य है। उसके भीतर भी दुख-सुख हिल्लोरे मारता है। कभी उसका भी मन होता होगा कि वह खुलकर हंसे, कभी खुलकर रोये। उसे भी एक कांधे की जरूरत होती है जिस पर वह सिर रखकर बच्चा बन जाए। लेकिन जिम्मेदारी का बोझ इस कदर लाद दिया जाता है कि वह खुद को भूल जाता है। यह हालात घर से लेकर समाज के हर उस तबके में है जो अपनी प्रतिभा से शीर्ष पर बैठा हुआ है। कोरोना महामारी ने तो जैसे इन सब मसलों पर सोचने के लिए विवश कर दिया है। सरकार यानि समाधान और समाधान ना बन पाये तो संकट। यह वाक्य थोड़ा कठिन है लेकिन कुछेक चर्चा के बाद समझना आसान हो जाएगा। संकट से निपटना और समाज को राहत दिलाना किसी भी चुनी हुई सरकार का दायित्व है। और जब कोरोना जैसे महामारी का प्रकोप संकट बनकर खड़ा हो जाए तो सरकार की प्राथमिकता में यह संकट सबसे ऊपर होता है।
अब सरकार यानि कौन? सरकार यानि मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री का अर्थ राज्य का मुखिया। यह उसका पुरुषार्थ है कि वह संकटों को झेलते हुए अपनों लोगों के प्रति निहित दायित्व की पूर्ति में सतत लगा रहता है लेकिन यह मुखिया भी हमारी तरह हाड़-मांस का बना होता है। उसके भीतर भी एक दिल धडक़ता है। लेकिन उसकी धडकऩ को हम नहीं समझना चाहते हैं। उसके भीतर उमड़ते-घुमड़ते दर्द और उल्लास को उसे छिपाना होता है। महादेव की भांति विष पीकर दूसरों को अमृत बांटने की उसकी जवाबदारी होती है।
एक साल से भी अधिक समय से पूरी दुनिया के साथ मध्यप्रदेश कोरोना महामारी के चपेट में है। कोरोना ने ना केवल मनुष्य के जीवन को समाप्त किया बल्कि सामाजिक-आर्थिक ताना-बाना को भी ध्वस्त किया। इस बीच चौथी बार मुख्यमंत्री के रूप में शिवराजसिंह चौहान की ताजपोशी होती है। यह ताज कांटों भरा होता है। कोरोना से प्रदेशवासियों को राहत दिलाने के साथ विकास कार्यों को सतत रूप से जारी रखने की चुनौती। कोरोना की पहली लहर में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान स्वयं पीडि़त हो गए थे। एक मुखिया के नाते उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास था। वे अस्पताल में होकर भी कामकाज करते रहे। समय गुजर गया लेकिन तूफान के पहले की शांति थी।
कोरोना की दूसरी लहर एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आयी। लगा कि सब बेकाबू हो गया है लेकिन यह शिवराजसिंह चौहान के इम्तहान का वक्त था। अस्पतालों में बिस्तर की कमी, दवा, इंजेक्शन और ऑक्सीजन नहीं मिल पाने से हाहाकार मच रहा था। तो दूसरी तरफ निजी अस्पताल मनमानी पर उतर आए थे। लोगों में गुस्सा फूट रहा था। ऐसे में शिवराजसिंह चौहान ने अकेले मोर्चा सम्हाला और सारे इंतजाम की बागडोर सम्हाली। अफसरों को कसते रहे, परखते रहे। एक रणनीति बनाकर केन्द्र सरकार से सहायता मांगी। उनकी दूरदृष्टि और रणनीति का ही परिणाम था कि सेना के संसाधनों का उपयोग कर ऑक्सीजन और दवा-इंजेक्शन की कमी पर बहुत कम समय में नियंत्रण पा लिया गया। इस तरह का प्रयास करने वाला मध्यप्रदेश देश का पहला राज्य था जिसका अनुकरण बाद में देश के दूसरे राज्यों ने किया। मध्यप्रदेश में निजी अस्पतालों पर छापामार कार्यवाही कर आम आदमी को लूट से निजात दिलाने की भरपूर कोशिश की। आम लोगों से उन्होंने आह्वान किया कि वे निजी अस्पतालों की लूट के खिलाफ आगे आएं। आम आदमी को पहले से ज्यादा राहत मिलने लगी। आम आदमी से लेकर उद्योगपतियों से सहयोग मांगकर प्रदेश को कोरोना महामारी के भयावह संकट से मुक्ति दिलाने की कोशिश की और वे कामयाब रहे, इसमें संदेह नहीं किया जा सकता है।
यह सब जिम्मेदारी एक मुख्यमंत्री की होती है और उन्होंने इसे शिद्दत से पूरा करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। लेकिन नए समाज के नए दस्तूर में ऐसी कोई खबर नुमाया नहीं हुई जिसमें किसी ने मुख्यमंत्री की नहीं, शिवराजसिंह चौहान की खैर-खबर पूछी होगी। सत्ता-संगठन, विपक्ष और समाज के विभिन्न तबके से कोई ऐसी खबर नहीं आयी। शिवराजसिंह के मन में एक आम आदमी की तरह यह पीड़ा तो हुई होगी कि कोई एक बार उनसे भी उनका हाल पूछ ले। ढाढ़स बंधा दे कि सब ठीक होगा। कोई तो कंधे पर हाथ रखकर उन्हें दिलासा दे दे लेकिन विभिन्न मोर्चो पर जूझते और कामयाब होते शिवराजसिंह पर विपक्ष निर्मम होकर वार करता रहा और वे खामोशी के साथ सहते रहे। उनका संजीदा जवाब था-‘यह समय राजनीति करने के लिए नहीं है। अभी तो साथ चलकर प्रदेश को संकट से उबारने का है। मैं अभी ऐसे किसी भी आरोप का जवाब नहीं दूंगा।’
शिवराजसिंह चौहान हमेशा से मीडिया फ्रेंडली रहे हैं. उनकी संवाद कला बेजोड़ है. वे अपनी बात सरलता और सहजता से आम लोगों तक पहुंचाने में हमेशा कामयाब रहे हैं. शायद यही कारण है कि वे जो भी आह्वान आम आदमी से करते हैं, सब उन्हें मान लेते हैं. उनके कम्युनिकेशन स्कील के कारण ही वे आम आदमी के हीरो बन जाते हैं. वे मीडिया के प्रभाव को जानते हैं और मानते हैं कि झाबुआ से शहडोल तक अपनी बात पहुंचानी है तो मीडिया उनका एकमात्र स्रोत है. इसलिए जब भी किसी मीडिया के साथी ने उनसे बात करना चाही, वे हमेशा उत्सुक नजर आए. यह भी उनकी सबसे बड़ी थाती है कि वे इतने लम्बे कार्यकाल में मीडिया में अपने किसी बयान को लेकर विवाद में नहीं घिरे. कब और कहां, क्या बोलना है, यह शिवराजसिंह बेहतर ढंग से जानते हैं. फिर वह कोरोना महामारी का भयावह संकट हो या सामान्य दिनों में. एक बात जरूर है कि उनकी प्राथमिकता में हमेशा मध्यप्रदेश सर्वोपरि रहा है.
मुख्यमंत्री शिवराजसिंह के लिए निरोगी प्रदेश की सुख-शांति पहले थी। इसलिए वे अपने सुख के अनमोल पल को भी तिरोहित करने से भी पीछे नहीं हटे। इस कोरोना संकट के दौर में उनकी निजी खुशी भी कहीं विलुप्त हो गई। वे अपने आप को जब्त करना जानते हैं, ठीक वैसे ही जैसे परिवार का कोई मुखिया। स्वयं की शादी की सालगिरह का कोई उल्लास नहीं दिखा तो जीवनसंगिनी का जन्मदिन और युवा बेटे का जन्मदिन भी मनाने से उन्होंने परहेज कर दिया। मध्यप्रदेश को अपना मंदिर मानते हैं और एक पुजारी की तरह उन्होंने अपनी भावना का मान रखा। शिवराजसिंह दर्शन शास्त्र में गोल्ड मेडलिस्ट हैं और उनका जीवन दर्शन बिलकुल जुदा जुदा सा है। वो औरों से इसलिए अलहदा और कभी-कभी तनहा भी दिखते हैं। अपनी निजी जिंदगी और खुशी का त्याग करने वाले शिवराजसिंह ताने और आलोचना से जख्मी भी होते हैं लेकिन विनम्रता उनकी पहचान है, सो पलटकर जवाब नहीं देते हैं। वे मंझे हुए राजनेता हैं लेकिन सौम्य और समभाव की राजनीति के वे पक्षधर रहे हैं।
शिवराजसिंह एक पिता हैं और पति भी और उन्हें पिता और पति की जवाबदारी पता है। कोरोना महामारी में अनाथ हुए बच्चों की जिंदगी कैसे खुशहाल बने, इसके लिए उन्होंने जतन किया। आर्थिक सुरक्षा के साथ उनकी शिक्षा-दीक्षा का मुकम्मल इंतजाम किया गया। ऐसे लोगों को भी सहारा देने की योजना बनायी गई जिनका आशियाना उजड़ गया है। यहां पर सरकार ने नैतिक जवाबदारी ओढक़र अपने नागरिकों को राहत देने और साथ देने की अनुपम पहल की। शुरू से अब तक शिवराजसिंह चौहान की पहल का अनुगामी देश के दूसरे प्रदेश बने रहे हैं। इस बार भी कोरोना महामारी में जो पहल उन्होंने की, बाद में देश के दूसरे राज्यों ने भी अनुसरण किया। सही मायनों में शिवराजसिंह चौहान ‘फ्रंटलाइन कोराना वॉरियर’ बन चुके हैं।
नए जमाने के समाज में यह सवाल वाजिब हो सकता है कि मुख्यमंत्री के रूप में शिवराजसिंह चौहान ने जो कुछ किया, वह उनकी जवाबदारी थी लेकिन यह सवाल हमेशा जवाब मांगता रहेगा कि क्या शिवराजसिंह चौहान हममें से एक नहीं हैं? क्या शिवराजसिंह को हम एक मनुष्य के रूप में नहीं देख सकते हैं? क्या एक मनुष्य होने के नाते उनकी चिंता नहीं की जानी चाहिए? क्या प्रदेश के हम नागरिक नहीं हैं और हमारी प्रदेश के प्रति क्या कोई जवाबदारी नहीं है? एक मनुष्य, दूसरे मनुष्य के लिए सवाल का जवाब चाहता है लेकिन राजनीति से परे। एकदम परे।

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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