मनुस्मृति के बारे में विद्वानों के मत

अध्याय 12 

मनु महाराज की दी गई व्यवस्था को संसार के अनेक देशों ने स्वीकार किया । अनेक देशों में ऐसे प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं जहां मनु महाराज की दी गई व्यवस्था के अनुसार राजनीति और समाज दोनों ही शासित अनुशासित और मर्यादित होते रहे । संपूर्ण भूमंडल के बहुत बड़े भाग पर यदि मनु ने किसी समय विशेष पर अपना प्रभाव डाला और सारे संसार को प्रभावित किया तो मानना पड़ेगा कि उनकी मनुस्मृति में या धर्मशास्त्र में सब कुछ न्याय संगत था । उनका यह धर्मशास्त्र न केवल मानव जाति के लिए न्याय संगत था , अपितु प्राणीमात्र के लिए भी उत्तम व्यवस्था देने में सक्षम हुआ। क्योंकि इसके माध्यम से मनु महाराज ने यद्यपि मानव समाज के चारों वर्णों के लोगों का धर्म स्थापित किया , परंतु उसका लाभ अन्य प्राणियों को मिला । क्योंकि मनु महाराज ने अहिंसा को और सभी प्राणियों के प्रति दया के भाव को अपने 
मानव धर्म में सम्मिलित किया । 
वर्णाश्रम व्यवस्था में महर्षि मनु ने चारों वर्णों का धर्म स्थापित कर बहुत बड़ा कार्य किया इस संबंध में – ” मनुष्यों का चार वर्णों में वर्गीकरण एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था है। इसका कारण यह है कि वास्तव में यह एक स्वाभाविक वर्गीकरण है । चाहे लोग इसे चाहें या ना चाहें , चाहे वे इसे मानें या न मानें मगर वह चार वर्गों में विभाजित हैं । समाज में ब्राह्मण हैं , क्षत्रिय हैं , वैश्य हैं और शूद्र हैं । कोई भी मानवीय कानून कैसी भी दार्शनिक गुत्थियां ,कोई अप्राकृतिक विज्ञान और किसी प्रकार का आतंक इस सत्य को नष्ट नहीं कर सकता है और मानव समुदायों का विकास और सामान्य क्रियाकलाप तभी संभव है जबकि स्वाभाविक चतुर्विध वर्गीकरण को माना और क्रियान्वित किया जाए । ” यह कथन पी डी ऑस्पेंस्की , ए न्यू मॉडल ऑफ द यूनिवर्स , पृष्ठ 509 पर लिखते हैं।
इस वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण को सबसे अधिक प्रमुखता प्रदान की गई , परंतु यह प्रमुखता ब्राह्मण को ही क्यों दी गई ? – इस पर हम स्वामी विवेकानंद जी के इन शब्दों पर ध्यान दें तो बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है:– 
” जाति यथार्थ में क्या है ? -इस बात को लाख में से एक भी नहीं समझता। संसार में बिना जाति का कोई देश नहीं है ।भारतवर्ष में इस जाति से चलकर ऐसी अवस्था पर पहुंचते हैं , जहां कोई जाति ही नहीं है । इसी सिद्धांत पर जाति की सारी रचना हुई है। भारत की यही योजना है कि प्रत्येक व्यक्ति को ब्राह्मण बनाया जाए। क्योंकि ब्राह्मण मानवता का आदर्श है। “
सचमुच भारत वर्ष का या आर्यावर्त का उद्देश्य ही यह रहा कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति ब्राह्मण बन जाए, अर्थात वह इतनी ऊंचाई को छू जाए कि उसके यहां पर जाति नाम की कोई चीज ना रहे और वह सर्वतोभावेन जगत के कल्याण में रत रहकर समाज और संसार के लिए चौबीसों घंटे ऊर्जा और ऑक्सीजन देने वाला बना रहे। तभी तो स्वामी विवेकानंद जी ने अन्यत्र यह भी लिखा है:– 
” हमारा आदर्श अध्यात्मिक संस्कृति संपन्न , वैराग्य वान ब्राह्मण है, ब्राह्मण आदर्श से मेरा मतलब क्या है ?- मेरा मतलब है आदर्श ब्राह्मण अथवा जिसमें संसारी भाव बिल्कुल नहीं हो और यथार्थ ज्ञान प्रचुर मात्रा में हो । “
आरक्षण की व्यवस्था को लागू करने के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि इससे सामाजिक समानता और समरसता का भाव पैदा होगा और हम वास्तविक समाजवाद को भारत में स्थापित करने में सफल होंगे। यह तर्क देखने में तो अच्छा लगता है , परंतु इसकी कुछ कमजोरियां भी हैं । जिन पर अभी हम भावातिरेक में ध्यान नहीं दे रहे हैं । जिन पर आज नहीं तो कल देर सबेर हमको ध्यान देना ही पड़ेगा । इस आरक्षणवादी व्यवस्था की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि इसमें जो ऊपर हैं अर्थात ऊंची श्रेणी के जो लोग हैं उन्हें नीचे खींचने का प्रयास किया जा रहा है । इसका प्रभाव यह बन रहा है कि ऊंची श्रेणी वाले लोगों को ऐसा लग रहा है कि जैसे उनके साथ अन्याय किया जा रहा है । यदि समाज में किसी वर्ग विशेष को ऐसा लगे कि उसके साथ अन्याय हो रहा है तो उससे व्यवस्था बनती नहीं अपितु व्यवस्था बिगड़ जाती है ।
इसके लिए अच्छा यही होगा कि विकास की नीति अपनाते समय ऐसी व्यवस्था की जाए कि सरकारी नीतियों में समाज के सभी वर्गों की स्वाभाविक रुचि हो और वे सभी सरकार की नीतियों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में अपने आप को गौरवान्वित अनुभव करते हों । 
स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं :– 
” ऊंची श्रेणी वालों को नीचे नीचे खींचने से समस्या हल नहीं हो सकती , बल्कि नीचे की श्रेणी वालों को ऊपर उठाने से ही वह हल होगी और यही कार्य प्रणाली हम अपने सभी धर्म ग्रंथों में पाते हैं। – – – – – आदर्श एक छोर पर तो ब्राह्मण है और दूसरे छोर पर चांडाल और संपूर्ण कार्य यही है कि चांडाल को ब्राह्मण तक ऊंचा उठा दिया जाए । धीरे धीरे तुम चांडालों को अधिकाधिक अधिकार दिए जाते हुए पाओगे । ( पृष्ठ 9 ) स्वामी विवेकानंद ने यहां पर चांडाल शब्द का प्रयोग किया है । शूद्र या दलित का प्रयोग नहीं किया। इस शब्द के भी गहरे अर्थ हैं । हमें स्वामी विवेकानंद जी की भावनाओं का सम्मान करते हुए इसी शब्द पर विचार करना चाहिए। उनकी दृष्टि में भी शूद्र सबसे अंतिम छोर पर खड़ा हुआ व्यक्ति नहीं है । क्योंकि शूद्र के पास कुछ अधिकार हैं और वह समाज की मुख्यधारा में आया हुआ ऐसा व्यक्ति है जो किसी न किसी प्रकार से समाज के लिए राष्ट्र के लिए बहुत उपयोगी है। इसलिए शूद्र को हेय दृष्टि से देखने की आवश्यकता नहीं है। हां , उसे आगे लाने के लिए कुछ विशेष प्रयास करने की आवश्यकता अवश्य है।
मनु महाराज के द्वारा प्रतिपादित वर्ण व्यवस्था का उद्देश्य यही है। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए महर्षि दयानंद जी महाराज और आर्य समाज ने वर्ण व्यवस्था की सटीक परिभाषा करते हुए उसे तार्किक आधार पर लागू करने का प्रशंसनीय प्रयास किया । इस प्रयास को डॉक्टर अंबेडकर ने भी सही संदर्भ में लेते हुए उसकी प्रशंसा की । दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि महर्षि दयानंद और आर्य समाज की शूद्र और वर्ण व्यवस्था संबंधी यह व्याख्या आगे बढ़ नहीं सकी और वह हमारी मुख्यधारा में सम्मिलित नहीं हो सकी।
“जाति प्रथा उन्मूलन ” नामक पुस्तक के पृष्ठ 119 पर अंबेडकर लिखते हैं — ” मैं यह मानता हूं कि स्वामी दयानंद व कुछ अन्य लोगों ने वर्ण के वैदिक सिद्धांत की जो व्याख्या की है , वह बुद्धिमत्ता पूर्ण है और घृणास्पद नहीं है । मैं यह व्याख्या नहीं मानता कि जन्म किसी व्यक्ति का समाज में स्थान निश्चित करने का निर्धारक तत्व है वह केवल योग्यता को मान्यता देता है।”
वास्तव में महर्षि दयानंद और आर्य समाज द्वारा की गई मनु की वर्ण व्यवस्था की व्याख्या और परिभाषा को ही इस देश की शासकीय नीतियों के माध्यम से लागू किया जाना चाहिए था । यह तब और भी अधिक सरल हो जाता जब इस पर डॉक्टर अंबेडकर जैसे राजनीतिज्ञ और संविधानविद की स्वीकृति की मोहर लग चुकी थी।

ब्राह्मण कौन है ? 

ब्राह्मण को हमारे देश में प्रारंभ से ही बहुत ही महत्वपूर्ण और आदरणीय स्थान प्राप्त रहा है । यदि उसे वैदिक दृष्टिकोण से और मनु के धर्मशास्त्र के आधार पर देखा जाए तो इस प्रकार ब्राह्मण के विशेष सम्मान करने में भी कोई दोष नहीं है । बात केवल इतनी सी है कि वह ब्राह्मण कहलाने वाला व्यक्ति किसी जाति , कुल , वंश के आधार पर ब्राह्मण न माना जाकर अपने गुण , कर्म , स्वभाव के आधार पर ब्राह्मण माना जाना चाहिए । 
ब्राह्मण कौन है ? इस प्रश्न का उत्तर हमारे कई धर्म शास्त्रों और विद्वानों ने अपने अपने ढंग से दिया है । इसके बारे में अष्टाध्यायी ( 4 / 2/ 59 ) के अनुसार – ” वेद ज्ञान के अध्ययन और परमेश्वर की उपासना में तल्लीन रहते हुए विद्या आदि उत्तम गुणों को धारण करने से व्यक्ति ब्राह्मण कहलाता है। वेदों के अनुसार जिसका तप , शौच , दम , शम , ज्ञान विज्ञान आदि बल निष्कलंक है, वह ब्राह्मण है । “
( ऋग्वेद 7 / 56 / 8 )। जो ब्राह्मण वर्ण वाले मनुष्य चित्त वृत्ति से सूक्ष्म विषयों का विचार करते हैं , मन की चंचलता से बचकर संयम , इंद्रिय निग्रह कर समदृष्टि से अपनी जीविका चलाते हैं ,तथा बुद्धि तर्क द्वारा ज्ञान का प्रचार करते हैं , यह ब्राह्मण हैं । ( ऋग्वेद 10 / 71 / 8 ) ” जो ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार यज्ञकर्त्ता , सत्यव्रती तथा वेदादि शास्त्रों का चिंतन , मनन ,गायन करता है , ब्राह्मण है। “
बात स्पष्ट है कि ब्राह्मण अपने आप में कोई व्यक्ति नहीं अपितु एक संस्था है । वह दिव्य गुणों से भूषित है और उसके दिव्य गुण समाज में व्यवस्था उत्पन्न करने में सहायक होते हैं, ना कि व्यवस्था को विकृत करने में। जिन लोगों ने अपने आपको ब्राह्मण होते हुए समाज की व्यवस्था के विकृतिकरण में सहायक बनाया , वह किसी कुल या वंश के आधार पर ब्राह्मण हो सकते हैं ,परंतु वह वास्तविक अर्थों में ब्राह्मण नहीं हो सकते। इस बात को हमें ब्राह्मण जैसे पवित्र शब्द के साथ जोड़ कर देखना होगा। 

विद्वानों की दृष्टि में मनुस्मृति

चीन में प्राप्त पुरातात्विक प्रमाण विदेशी प्रमाणों में मनुस्मृति की काल संबंधी जानकारी उपलब्ध कराने के बारे में जानकारी देते हुए डॉक्टर सुरेंद्र कुमार कहते हैं कि एक महत्वपूर्ण पुरातात्विक प्रमाण हमें चीनी भाषा के हस्तलेखों में मिलता है । सन 1932 में जापान ने बम विस्फोट द्वारा जब चीन की ऐतिहासिक दीवार को तोड़ा तो उसमें लोहे का एक ट्रंक मिला । जिसमे चीनी पुस्तकों की प्राचीन पांडुलिपियां भरी हुई थीं। वह हस्तलेख सर ओगुट्स फ्रिट्स को मिल गए । वह उन्हें लंदन ले आया और उनको ब्रिटिश म्यूजियम में रख दिया। उन हस्तलेखों को प्रोफेसर एंथनी ग्रेमे ने चीनी भाषा के विद्वानों से पढ़वाया । उनमें यह जानकारी मिली कि चीन के राजा चिन इज वांग ने अपने शासनकाल में यह आज्ञा दे दी थी कि सभी प्राचीन पुस्तकों को नष्ट कर दिया जाए । जिससे चीनी सभ्यता के सभी प्राचीन प्रमाण नष्ट हो जाए । तब उनको किसी विद्या प्रेमी ने ट्रंक में छुपा लिया और दीवार बनाते समय उस ट्रंक को दीवार में चुनवा दिया । संयोग से ट्रंक बम विस्फोट में निकल आया । उनमें से एक में लिखा है :— ” मनु का धर्मशास्त्र भारत में सर्वाधिक मान्य है जो वैदिक संस्कृत में लिखा है और 10000 वर्ष से अधिक पुराना है । यह विवरण केवल मोटवानी की पुस्तक ” मनु धर्मशास्त्र ए सोशियोलॉजिकल एंड हिस्टोरिकल स्टडी ” पृष्ठ – 232 – 233 में दिया है । यह चीनी प्रमाण मनुस्मृति के वास्तविक काल विवरण को तो प्रस्तुत नहीं करता , किंतु यह संकेत देता है कि मनु का धर्म शास्त्र बहुत प्राचीन है । फिर भी पश्चिमी लेखकों द्वारा कल्पित काल निर्णय को यह प्रमाण झुठला देता है ।” 
इस उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है कि चीन जैसे विशाल देश में भी मनुस्मृति का कितना सम्मान रहा है ,? इस देश ने अपने आप को दीर्घकाल तक मनुस्मृति के आदेशों के आधार पर मर्यादित शासित और अनुशासित रखा है।
” दि हिस्ट्री ऑफ इंडिया ” में अंग्रेज इतिहासकार ने लिखा है कि अंग्रेज भारत में आए तो भारत और दक्षिण तथा दक्षिण पूर्वी एशिया के वर्मा ,कंबोडिया , थाईलैंड , जावा , बाली , दीप श्रीलंका , वियतनाम , फिलीपीन , मलेशिया , इंडोनेशिया , चीन और रूस के कुछ क्षेत्रों में संविधान के रूप में मनुस्मृति को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त थी । इन देशों के संविधान मनुस्मृति पर आधारित थे। वहां के राजा और संविधान प्रणेता गौरव के साथ ‘ मनु ‘ उपाधि धारण किया करते थे। वहां के प्राचीन शिलालेखों में मनुस्मृति के श्लोक खुदे हुए मिलते हैं। वर्मा के संविधान का नाम ही धम्मथट और मानवसार तथा कंबोडिया के संविधान का नाम मानवनीतिसार या मनुसार नाम था । कंबोडिया के प्राचीन इतिहास में आता है कि कंबोडिया वासी मनु के वंशज हैं। इसी प्रकार ईरान , इराक के प्राचीन इतिहास विषय को आर्य और आर्यवंशी घोषित करते रहे । मिश्र के वासी स्वयं को सूर्यवंशी मानते हैं । उनके पिरामिडों में सूर्य का चित्र अंकित मिलता है , जो सूर्यवंशी होने का प्रमाण है । इन सभी देशों के इतिहास पर फिर से शोध करने की आवश्यकता है । ऐसे अनेकों विद्वान इन देशों में मिल जाएंगे जो अभी भी अपने आप को भारत की प्राचीन संस्कृति से जोड़कर देखने में गर्व और गौरव का अनुभव करते हैं । यदि उनसे संपर्क साधकर इन देशों के इतिहास को भारतीय संस्कृति के आधार पर लिखने का प्रयास किया जाए तो न केवल इतने बड़े भूभाग पर पृथ्वी पर शांति का राज होगा ,अपितु वैश्विक भ्रातृत्व की भावना में भी वृद्धि होगी। इस भ्रातृत्व की भावना को लोग “ग्लोबल ब्रदरहुड ” कहते हैं । यह अलग बात है कि उन्हें ” ग्लोबल ब्रदरहुड ” की सच्चाई का पता नहीं है कि वह किन उपायों को अपनाकर लागू की जा सकती है ? बंधुत्व उनमें पनपता है जिन्हें यह पता होता है कि हमारा पिता एक है , अर्थात हमारा मूल एक है। मूल को अलग अलग हो खोजोगे तो बना बनाया बंधुत्व भी बिगड़ जाएगा । उचित यही है कि बंधुत्व की स्थापना के लिए एक पिता को खोजा जाए और वह मनु का भारत ही हो सकता है।
जर्मन के एक विद्वान जब इस मूल पर खोजते – खोजते पहुंच गए तो उन्होंने स्पष्टत: यह स्वीकार किया कि यह संसार बाइबल की शिक्षाओं से नहीं ,मनु के धर्म शास्त्र की आज्ञाओं से ही चल सकता है , और उसी को अपना कर विश्व शांति स्थापित की जा सकती है ।
जर्मन के विख्यात दार्शनिक फ्रीड्रिक नीत्से ने ” विदाउट मार्क्स ” में मनुस्मृति और बाइबल की तुलना करके मनुस्मृति को बाइबल से उत्तम शास्त्र माना । बाइबल को छोड़कर मनुस्मृति को पढ़ने का नारा दिया । नीत्से कहते हैं — ” मनुस्मृति बाइबल से उत्तम ग्रंथ है । बाइबल से तो अश्लीलता और बुराइयों की बदबू आती है । बाइबिल को बंद करके रख दो और मनुस्मृति को पढ़ो । “
भारत में भी अनेकों विद्वान ऐसे हुए हैं जिन्होंने मनुष्य स्मृति पर विशेष कार्य किया है । ऐसे ही एक विद्वान’ भारत रत्न ‘ पी वी काणे जो धर्म शास्त्रों के प्रमाणिक इतिहासकार व शोधकर्त्ता हैं , ने भी अपने ‘ धर्मशास्त्र का इतिहास ‘ नामक ग्रंथ में ऐसी ही जानकारी दी है । वे लिखते हैं :– मनुस्मृति का प्रभाव भारत के बाहर भी गया । चंपा (दक्षिणी वियतनाम ) के एक अभिलेख में बहुत से श्लोक मनुस्मृति से मिलते हैं । बर्मा में जो धर्म है वह मनु पर आधारित है । बाली द्वीप का कानून मनुस्मृति पर आधारित रहा है । (भाग 1 पृष्ठ 47 ) एशिया के इतिहास पर पेरिस यूनिवर्सिटी से डिलीट उपाधि प्राप्त और अनेक पुरस्कारों से सम्मानित इतिहासज्ञ डॉक्टर सत्यकेतु विद्यालंकार ने ” दक्षिण पूर्वी और दक्षिणी एशिया में भारतीय संस्कृति” – पुस्तक में प्रस्तुत विषय से संबंधित अनेक जानकारियां दी है । जो इस प्रकार हैं – 
1 – फ़िलिपीन के निवासी यह मानते हैं कि उनकी आचार संहिता मनु और लाओत्से की स्मृतियों पर आधारित है । इसलिए वहां की विधानसभा के द्वार पर उन दोनों की मूर्तियां भी स्थापित की गई है । ( पृष्ठ 43) 
भारत में यदि हमारे इस महापुरुष की प्रतिमा संसद के परिसर में लगा दी जाए , या कोई संगठन वहां उनकी प्रतिमा लगाने की मांग करने लगे तो मनु के आलोचक तुरंत सड़कों पर उतर आएंगे । इतना ही नहीं देश के बड़े-बड़े नेताओं को भी पसीना आ जाएगा और वह शोर मचाने लगेंगे कि यह देश तो धर्मनिरपेक्ष देश है , इसलिए इसमें किसी साम्प्रदायिक व्यक्ति की प्रतिमा संसद में या संसद के परिसर में नहीं लगाई जा सकती । सचमुच हमारे देश का यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि जो व्यक्ति सचमुच मानवतावादी धर्म का उपासक था, वही इस देश में सांप्रदायिक हो गया है । जिन्होंने खून की नदियां बहा दीं वह क्रूर शासक इनकी दृष्टि में इस देश के लिए वरदान हैं, और धर्मनिरपेक्षता की प्रतिमूर्ति हैं।
2 – चंपा ( दक्षिणी वियतनाम ) के अभिलेखों , राजकीय शिलालेखों से सूचित होता है कि वहां के कानून प्रधानतया मनु , नारद तथा भार्गव की स्मृतियों तथा धर्म शास्त्रों पर आधारित रहे हैं । एक अभिलेख के अनुसार राजा जयइंद्रवर्मा देव मनुमार्ग ( मनु द्वारा प्रतिपादित मार्ग ) का अनुसरण करने वाला था । (पृष्ठ 254 ) इसका अभिप्राय है कि चंपा ( दक्षिणी वियतनाम ) को भी अपने आपको मनुवादी कहने में गर्व की अनुभूति होती रही है और वह भी अपने यहां के कानूनों को मनु संगत बनाने में गौरव की अनुभूति करता रहा है। 
3 – चंपा (दक्षिणी वियतनाम ) को तो मनु ने सामाजिक स्तर पर भी प्रभावित किया यही कारण रहा कि चंपा का जीवन वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था । वहां के राजाओं ने भी अपने आपको मनु के प्रति समर्पित किया रखा , यही कारण रहा कि वह भी वर्णाश्रम धर्म का सम्मान करते रहे । राजा वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थापना के आदर्श को सदा अपने सम्मुख रखते थे । 1799 ईस्वी के राजा इंद्रवर्मा प्रथम के अभिलेख में उसकी राजधानी के संबंध में यह लिखा गया है कि वहां वर्ण तथा आश्रम भली-भांति सुव्यवस्थित हैं । ( पृष्ठ 257 ) इसका अभिप्राय है कि दक्षिणी वियतनाम वर्णाश्रम धर्म को जीवन जीने की सर्वोत्तम शैली मानता रहा और वह प्रत्येक क्षेत्र में अपने आप को भारत से जोड़े रखकर आत्मगौरव की अनुभूति करता रहा।
4 – बर्मा भारत का सांस्कृतिक पुत्र है । कभी के आर्यवर्त का यह अभिन्न अंग रहा है। यहां पर भारतीय संस्कृति की झलक आज भी देखी जा सकती है । इस देश ने भी भारत के साथ अपने आप को जोड़े रखकर बहुत लाभ अर्जित किया । धम्मथट या धम्मसथ नाम के ग्रंथ बर्मा देश की आचार संहिता हैं । यह मनुस्मृति पर आधारित हैं । इन ग्रंथों को अनूदित कर वर्मा देश ने अपने विधि-विधान को मनु के अनुसार बनाए रखा ।
ये ग्रंथ वर्मा देश की आचार संहिता है और संविधान हैं यह मनु आदि की स्मृति पर आधारित हैं । 16वीं शताब्दी में बुद्ध घोष ने उसे मनुसार नाम से पालि भाषा में अनूदित किया । इस धम्मथट का मनुसार नाम होना ही यह सूचित करता है कि मनुस्मृति या मानव संहिता के आधार पर इसकी रचना की गई थी । धम्मसथ वर्ग के जो अनेक ग्रंथ 17 वीं और 18वीं शताब्दी में बर्मा में लिखे गए उनके साथ भी मनु का नाम जुड़ा है। पृष्ठ 297 
5 . – कंबोडिया के लोग मनुस्मृति से भलीभांति परिचित थे । राजा उदयवीर वर्मा के सदोक काकथेम से प्राप्त अभिलेख में मानव नीतिसार का उल्लेख है । जो मानव संप्रदाय का नीति विषयक ग्रंथ था । यशोवर्मा के प्रसत कोमनप से प्राप्त अभिलेख में मनु संहिता का एक श्लोक भी दिया गया है। जो आज मनुस्मृति अध्याय 2 श्लोक 136 पर प्राप्त है । इसमें सम्मान व्यवस्था का विधान है । ( पृष्ठ 198 ) आज तो कंबोडिया के विषय में भारत में बात करना भी दूभर है , जबकि कंबोडिया पर विशेष शोध कर कंबोडिया सहित अन्य ऐसे सभी देशों के इतिहास को भारत का इतिहास माना जाए , जहां – जहां तक आर्यव्रत की सीमाएं थीं , या जहां – जहां पर भी आज तक भारतीय संस्कृति की झलक हमको देखने को मिलती है।
6 – ” 668 ईसवी में जय वर्मा पंचम कम्बुज कंबोडिया का राजा बना—- – – – । एक अभिलेख में इस राजा के विषय में लिखा है कि उसने वर्णों और आश्रमों को दृढ़ आधार पर स्थापित कर भगवान को प्रसन्न किया । ( पृष्ठ149 ) इस उदाहरण से भी स्पष्ट होता है कि कंबोडिया में किस प्रकार राजाओं ने भी मनु प्रतिपादित धर्म व्यवस्था को अपने शासन का आधार बनाया।
7- राजा जय वर्मा प्रथम के अभिलेख में दो मंत्रियों का उल्लेख है । जो धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे । मनुसंहिता सदृश ग्रंथों को धर्मशास्त्र कहा जाता था। – – – – – जो धर्मशास्त्र कंबोज ,( कंबोडिया ) देश में विशेष रूप से प्रचलित है , उनमें मनु संहिता का विशिष्ट स्थान था । ( पृष्ठ 198 ) कुल मिलाकर यह बहुत ही गर्व और गौरव के साथ कहा जा सकता है कि मनु की मनुस्मृति इस देश को बहुत लंबे काल तक प्रभावित करती रही, और यहां के लोग अपने आपको स्वाभाविक रूप से मनु से जोड़कर उसकी धर्मव्यवस्था और राज्यव्यवस्था से शासित और अनुशासित होते रहे।
8 – बालि द्वीप ( इंडोनेशिया ) के समाज में आज भी वर्ण व्यवस्था का प्रचलन है । वहां अब भी वैदिक वर्ण व्यवस्था के प्रभाव से उच्च जातियों को ‘ द्विजाति ‘ तथा शूद्र का नाम ‘ एकजाति ‘ प्रचलित है । जो कि मनु ने 10 . 4 श्लोक में दिया है। वहां शूद्रों के साथ कोई भेदभाव तथा ऊंचनीच, छुआछूत आदि का व्यवहार नहीं है । यही मनु की वर्ण व्यवस्था का वास्तविक रूप था । ( दक्षिण पूर्वी और दक्षिणी एशिया में भारतीय संस्कृति , डॉक्टर सत्यकेतु विद्यालंकार , पृष्ठ 19 , 114 ) 
इंडोनेशिया या हिंदेशिया के लोग अपने आपको आज तक भी भारत से जुड़ा हुआ अनुभव करते हैं । वह भारत के साहित्य को पढ़ना चाहते हैं ,और यहां की वैदिक संस्कृति से स्वयं को जोड़कर उससे अनुप्राणित होना चाहते हैं । इसके लिए वह भारत की ओर अभी भी टकटकी लगाए देख रहे हैं कि भारत हमको धर्म व्यवस्था दे और हमें अपना छोटा भाई मानकर चलने में प्रसन्नता व्यक्त करें। यह अलग बात है कि भारत की धर्मनिरपेक्ष सरकारों को सेक्युलरिज्म का पाला मार गया और यहां की सरकारों ने इंडोनेशिया की ओर उतने आत्मीय भाव से हाथ नहीं बढ़ाया जितने आत्मीय भाव की अपेक्षा यह देश हमसे करता था। 
यूरोप के प्रसिद्ध लेखक थामस अपनी पुस्तक हिंदू रिलिजन कस्टम्स एंड मैनर्स में मनुस्मृति का महत्व वेदों के उपरांत सबसे अधिक बतलाते हैं । वे कहते हैं कि मनु का संविधान अर्थात मनुस्मृति सर्वोच्च स्थान रखती है । वेदों के बाद उसी का सर्वोच्च महत्व है।
अमेरिका से प्रकाशित दि मैकमिलन फैमिली इनसाइक्लोपीडिया में भी मनु को मानव जाति का आदि पुरुष और आदि समाज व्यवस्थापक बताया गया है । वहां लिखा है कि मनु मानव जाति का अधिकृत है वह आदि समाज का व्यवस्थापक या आदि समाज व्यवस्थापक व पथ प्रदर्शक राजा है ।
रूस के विचारक पी डी औसमेन्सकी ने कहा है कि मनुस्मृति की सर्वश्रेष्ठ समाज व्यवस्था के अनुसार मनुष्य समाज की पुनः संरचना होनी चाहिए ।
इंग्लैंड के प्रसिद्ध लेखक डॉक्टर जी एच मीज ने वर्ण व्यवस्था के बारे में कहा है कि वर्ण व्यवस्था के पहले तीन वर्णों में समाज को बांटते हुए कहा है कि इस व्यवस्था के होने पर धरती स्वर्ग में बदल जाएगी ।
विश्व में इस व्यवस्था के प्रसार के संबंध में डॉक्टर अंबेडकर का कथन है कि चातुर्वर्ण्य पद्धति संपूर्ण विश्व में व्याप्त थी । वह मिस्र के निवासियों में थी । प्राचीन फारस के लोगों में थी । प्लेटो इसकी उत्कृष्टता से इतना अभिभूत था कि उसने इसे सामाजिक संगठन का आदर्श रूप कहा था । ( डॉ आंबेडकर वांग्मय खंड 7 प्रश्न 210 ) 
मैडम एनी बेसेंट ने मनुस्मृति की प्रशंसा करते हुए कहा कि — ” यह ग्रंथ भारतीय और अंग्रेज सभी के लिए समान रूप से उपयोगी है। क्योंकि आज के समस्यापूर्ण दैनिक प्रश्नों के समाधानात्मक उत्तरों से यह ग्रन्थ परिपूर्ण है। ” 
बेल्जियम के विद्वान लेखक मनुस्मृति को अध्यात्म ज्ञान एवं वैज्ञानिक प्रमाण में सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ मानते हैं । उनका कहना है कि यह जीवन के सत्य को प्रतिपादित करता है । लेवेटस्की ने अपनी कृति “आइसिस अनवेल्ड ” में मनुस्मृति को आदिम ज्ञान का श्रोत प्रतिपादित किया है। पुरातत्व वक्ता डॉक्टर बी गार्डन ने चाइल्ड के मत का समर्थन किया है ।
इतने पवित्र ग्रंथ के बारे में भी यदि हमारी मानसिकता अभी भी दोषपूर्ण और विकृत है तो इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा । देशहित में उचित यही होगा कि मनुस्मृति पर सकारात्मक दृष्टिकोण अपना कर उसके अनुसार देश और समाज की व्यवस्था को चलाने का संकल्प हम लें ।

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