राजनैतिक आत्महत्या: घूंघट नहीं खोलूंगी सैंया तोरे आगे

-डॉ. अरविन्द कुमार सिंह- arvind
बहुत दिनों के बाद आज कुछ लिखने के लिये कलम उठाया हूं। देश चुनावी ताप से तप रहा है। राजनेताओं का कहा हर लफ्ज, कई अर्थों को जन्म दे रहा है। सब अपनी विश्वसनियता को साबित करने हेतु दूसरों पर जमकर आरोप प्रत्यारोप का सहारा ले रहे हैं। मैं समझ नही पा रहा हूं कि लेख की शुरूआत किससे और कहां से करूं।
च्लिये लेख की शुरूआत राजनीति को नयी दिशा देने वाले अरविन्द केजरीवाल से ही करता हूं। दिल्ली के जन्तर – मन्तर पर जब अन्ना हजारे का आन्दोलन चल रहा था, तब अक्सर एक प्रश्न मेरे जेहन में उठता था। उसका उत्तर तो नहीं मिलता था और जो उत्तर मिलता भी था, वह मन्जिल के करीब पहुंचता हुआ दिखायी नहीं देता था। मैं अक्सर सोचता था अपने ही गले के लिये जनलोकपाल के फन्दे को आखिर संसद क्यूकर पास करेगी। बिल पास होते ही आधी संसद जेल की सलाखों के पीछे कैद नजर आयेगी। वैसे भी अपराधी मानसिकता का व्यक्ति क्यो इस बिल का समर्थन करेगा? फिर ऐसे में अन्ना के आन्दोलन का क्या अर्थ?
इस दिशा में एक दूसरी भी सोच थी। देश में चुनाव हो और जनता अच्छे लोगो को संसद में चुनकर भेजे तथा वो इस बिल को पास करे। दूसरे शब्दों में अपराधी किस्म के प्रत्याशियों को संसद की दहलीज पार न करने दी जाय। लेकिन इसमें भी एक दिक्कत दर पेश आ रही थी। अन्ना किसी राजनैति पार्टी के गठन के बरखिलाफ थे। आखिरकार, अरविन्द केजरीवाल ने दूसरी सोच को अमलीजामा पहनाते हुये एक नयी राजनैतिक पार्टी (आप पार्टी) के गठन का बीड़ा उठा लिया। जनता को अरविन्द केजरीवाल के रूप में एक ऐसे राजनेता की छवि दिखी, जो उसे उसकी समस्याओं से निजात दिला सकता था। जो और लोगों की तरह नहीं था।
तमाम ओपिनियन पोलो को झूठा साबित करते हुये आप पार्टी ने दिल्ली विधानसभा में 28 सीटें जीतकर दूसरे नम्बर की पार्टी का दर्जा हासिल किया। यहां तक सबकुछ अरविन्द केजरीवाल की सोच के  मुताबिक था। अब राजनीति के क्षेत्र में बातों की नहीं एक्शन की जरूरत थी। सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने दिल्ली में सरकार बनाने से इन्कार कर दिया। यही वह वक्त था, जब आप पार्टी को सोचना था। अरविन्द को सोचना था। वर्षों का अनुभव होने के बावजूद आखिर भाजपा सरकार क्यों नहीं बना रही है? मुझे ऐसा लगता है, यही वो बिन्दू था जहां अरविन्द ने अपनी जिन्दगी का सबसे गलत निर्णय लिया।
जिस पार्टी का विरोध करके अरविन्द केजरीवाल ने सत्ता की 28 सीटें हासिल की थी, उसी पार्टी का सहयोग लेकर अरविन्द दिल्ली के तख्त पर आसीन हुए। वो भी अपने बेटे के कसम के बावजूद। देखने में सरकार उनकी थी पर वास्तव में सरकार के ताले की चाभी कांग्रेस के पास थी। क्या अरविन्द को पता नही था कि मेरी सरकार कभी भी गिर सकती है? क्या अरविन्द को पता नहीं था कि कुछ ही महीनों के बाद आचार संहिता लागू हो जायेगी? और मैं सिर्फ सपने दिखाने के अतिरिक्त कुछ न कर पाऊंगा।
मैं सोचता हूं यदि अरविन्द ने थोड़ी हिम्मत दिखायी होती और सरकार बनाने से इन्कार कर दिया होता और यदि मैं गलत नहीं हूं तो अरविन्द केजरीवाल दोबारा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में वापस होते। यही वो चूक है जिसकी कीमत मेरी समझ से आने वाले वक्त में उन्हे चुकानी पडेगी। पूर्ण बहुमत की सरकार के साथ पांच साल दिल्ली में कार्य करके भारतीय राजनीति के वे, वो धूमकेतु बन जाते जिसकी चमक वर्षों फीकी नहीं पड़ती। लेकिन क्या कीजिएगा हुजूर, सत्ता का नशा ही ऐसा होता है। राजनीति की सबसे बड़ी विडम्बना देखिए, जिस सबसे बड़ी भ्रष्ट पार्टी का विरोध कर वो सत्ता में आये थे, अन्जाने में उसी को पुनः सत्ता सौंपकर अरविन्द पुनः भ्रष्टाचार मिटाने की मुहिम पर निकल पडे। कांग्रेस एक बार पुनः राज्यपाल के माध्यम से सत्ता में वापस आ गयी।
अबतक अरविन्द पूर्णत: राजनीतिज्ञ हो चुके थे। आप पार्टी आप से खास बन चुकी थी। बहुत सोच समझकर बातें कही जाने लगीं। पार्टी के वरिष्ठ सदस्य प्रशान्त भूषण जी ने कश्मीर पर जनमतसंग्रह की बात कह दी। अरविन्द का काम उन्होने आसान कर दिया। इस वक्तव्य का आशय मात्र इतना था कि नयी गठित पार्टी के लिये मुसलमानो की सहानुभूति एवं वोट बटोरे जा सके। काम हो चुका था। अरविन्द इस पर चौंकने के बजाय, इसे प्रशान्त का नीजी विचार बताकर अपना पल्ला झाड़ लिये। ये अलग बात है कि विचार निजी था व्यक्ति पार्टी का था।
अब अरविन्द केजरीवाल ने बिजली, पानी की समस्या के साथ एक और नयी बात अपने भाषण में जोड़ ली। वह था मोदी विरोध। भ्रष्टाचार की आवाज धीमी हो गयी, मोदी विरोध मुखर हो गया। विरोध इतना मुखर हो गया कि बात विरोध से निकलकर अब मोदी को रोकने पर जा टिकी। यहां भी आकर अरविन्द चूक गये। अरविन्द ने कभी नहीं सोचा कि भाजपा का विरोध करने वाले, साम्प्रदायिकता के नाम पर भाजपा को गाली देने वाले एक भी राजनेता ने ( सोनिया गांधी, लालू यादव , मुलायम सिंह, नीतीश आदि) नरेन्द्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने की बात कभी नहीं कही। अन्य प्रत्याशियो को चुनाव लड़वाने की बात कही। यह राजनैतिक पाखण्ड नहीं तो और क्या है?
कम से कम अरविन्द इतने ईमानदार तो निकले कि वो नरेन्द्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़ने की घोषणा की। इस ईमानदारी को मैं राजनैतिक सूसाईट बोलता हूं। कल तक भारतीय सेना का वो व्यक्ति बहादुर माना जाता था, जो दुश्मन से लडते हुये वीरगति को प्राप्त होता था। पर क्षमा कीजिएगा आज की तारीख में सम्पूर्ण विश्व में बहादुरी की परिभाषा बदल चुकी है। आज जो व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा दुश्मन को मारकर अपने को जिन्दा रखता है वो बहादुर बोला जाता है। अरविन्द केजरीवाल आज की तारीख में गुरिल्ला युद्ध लड़ रहे हैं। गुरिल्ला युद्ध में दुश्मन को परेशान तो किया जा सकता है, पर युद्ध नहीं जीता जा सकता है। 1971 के बाद पाकिस्तान ने भी भारत के विरूद्ध इसी गुरिल्ला युद्ध का सहारा लिया।
पाकिस्तान का नाम आया तो इक बात और याद आ गयी। जम्मू की सभा में अभी हाल में, नरेन्द्र मोदी ने एक बहुत ही संगीन आरोप केजरीवाल पर लगाया। उन्होंने कहा आप पार्टी की बेवसाईट पर प्रदर्शित भारत के मानचित्र में कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा दिखलाया गया है। और इस आधार पर नरेन्द्र मोदी ने केजरीवाल को पाकिस्तान का ऐजेन्ट करार दिया। केजरीवाल जी ने मोदी की भाषा पर आपत्ति उठायी। पर एक बार भी यह नहीं बतलाया कि नरेन्द्र मोदी द्वारा बतायी गयी बात सच है या गलत? राजनीत में आरोप दो तरह के होते है। प्रमाणिक और अप्रमाणिक। प्रशान्त भूषण द्वारा कश्मीर पर जनमत संग्रह की बात और आप की बेवसाईट पर मानचित्र में कश्मीर ही पाकिस्तान में प्रदर्शित करने को हुजूर आप ही बतलाइये, किस एंगल से देखा जाय? अरविन्द केजरीवाल की राजनैतिक महत्वाकांक्षा ने उन्हे राजनैतिक हाराकीरी तक पहुंचा दिया। अरविन्द केजरीवाल अच्छी तरह जानते हैं, वह न तो नरेन्द्र मोदी को वाराणसी से हरा सकते हैं और ना ही बड़ोदरा में। ना ही भाजपा को 2014 के चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी होने से रोक सकते है। आखिर मात्र एक व्यक्ति का विरोध करने वाला देश की सियासत का विकल्प कैसे बन सकता है? देश के संचालन के लिये अनुभव की जरूरत है,योजना की आवश्यकता है और सबसे बड़ी बात सबको साथ लेकर चलने की आवश्यकता है, जिसके पास ये तीनो चीज होगी, वही देश की सत्ता का सूत्र संचालन करेगा।
आज विडम्बना ये है, जिसके पास कोई अनुभव नहीं है वही देश का प्रधानमंत्री बनने के लिये सबसे ज्यादा व्याकुल है। यदि अरविन्द केजरीवाल जी दिल्ली में पांच वर्ष कुछ कर के दिखलाये होते तो ऐसा मेरा मानना है कि वह बेहतर प्रधानमंत्री की कतार में खड़े दिखायी देते। आज वाराणसी की जनता के समक्ष एक यक्ष प्रश्न है। एक तरफ तीन बार सफलतापूर्वक मुख्यमंत्री का दायित्व निभाने वाला व्यक्ति है तो दूसरी तरफ मात्र 49 दिन में दायित्व मुक्त होने वाला व्यक्ति है। एक तरफ जीत हासिल होने के बाद प्रधानमंत्री की सम्भावना वाला व्यक्ति है तो दूसरी तरफ जीत जाने के बाद भी मंत्री का पद न पाने वाला व्यक्ति है। अब ऐसे में अरविन्द केजरीवाल यदि ये समझते हैं कि वाराणसी की जनता राजनैतिक आत्महत्या करेगी तो वो मुगालते में है। वो भले ही राजनैतिक आत्महत्या कर ले, पर याद रखिये वाराणसी की जनता से लेकर सोनिया, लालू, मुलायम नीतिश या देश का कोई भी राजनेता राजनैतिक आत्महत्या नहीं करने वाला है।
चाण्यक्य ने कभी कहा था ‘‘जिस सत्ता के प्रति जनता के मन में आदर एवं भय न हो, उस सत्ता को शासन करने का अधिकार नही है।’’ आज देश में एक ऐसे ही सबल सत्ता की आवश्यकता है। हम गठबन्धन भी करेंगे और घूंघट भी नहीं उठायेंगे। ऐसा कैसे चलेगा। अब तो चन्द दिन ही चुनाव में बचे हैं। अब यह कहने से काम नहीं चलेगा, घूंघट नहीं खेालूंगी, सैयां तोरे आगे।
और चलते-चलते अभी-अभी एक समाचार मिला है। हरियाणा के चरखी दादरी में एक रोड शो के दौरान एक व्यक्ति ने अरविन्द केजरीवाल को थप्पड़ मार दिया। जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप आप पार्टी के समर्थकों ने उस नवयुवक की धुनाई कर दी। बाद में एक प्रेस कॉन्फ्रेन्स के दौरान अरविन्द ने अपने समर्थको को कसम दिलाई कि वे हिंसा का जबाव हिंसा से न दे। अब यह भी एक दिलचस्प बात है जो व्यक्ति अपने बच्चे की कसम खाकर उसे तोड़ दिया वह व्यक्ति अपने समर्थकों को कसम दिला रहा है?
याद रख्खे दोहरा व्यक्तित्व आपको तो फायदा पहुॅचा सकता है पर राष्ट्र का भला कभी नही कर सकता।

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