वक्त है बदलाव का

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वर्तमान में दल-बदल विरोधी कानून की प्रासंगिकता पर सवाल उठना लाजमी है। करीब एक साल के भीतर अलग अलग राज्यों के विधानसभा अध्यक्ष ने कई विधानसभा सदस्यों को उनके आचरण के कारण अयोग्य घोषित किया है ।जिस दिन से इन्हें सदन की सदस्यता से अयोग्य घोषित किया जाता है ,उसी दिन से अयोग्य सदस्यों को मंत्री पद से भी अयोग्य कर दिया जाता है ।ऐसे में मध्यप्रदेश में सदन से अयोग्य घोषित सदस्य को मंत्रिमंडल में शामिल करना कितना संवैधानिक है ।इसकी  संवैधानिक पध्दति से जांच करना राज्यपाल की जिम्मेदारी है ।क्योंकि सदन के मुखिया विधानसभा स्पीकर ने दल बदल कानून के अंतर्गत सदस्यों की अयोग्यता को सही ठहराया है ।अब सदन से अयोग्य घोषित नागरिक को  मंत्री पद देकर अन्य दल द्वारा सदन में  ले जाना  क्या सदन और स्पीकर का अपमान नहीं है । पदानुसार स्पीकर के  अयोग्य घोषित आदेश की सदस्यों द्वारा सदन में जाना  अवहेलना की कैटेगरी में नहीं आएगी । चुनावी लोकतंत्र का यह घटनाक्रम स्पष्ट तौर पर दल-बदल विरोधी कानून में बदलाव की ओर इशारा करता है, क्योंकि इस घटनाक्रम ने चुनावी दलों के समक्ष दल-बदल विरोधी कानून के दुरुपयोग का एक उदाहरण प्रस्तुत किया है और संभव है कि ऐसी घटनाएँ भविष्य में भी देखने को मिलें। इस्तीफा दो मंत्री पद लो।
 क्या है दल-बदल विरोधी कानून?
1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दल-बदल विरोधी कानून’ पारित किया गया। साथ ही संविधान की दसवीं अनुसूची जिसमें दल-बदल विरोधी कानून शामिल है को संशोधन के माध्यम से भारतीय से संविधान जोड़ा गया।इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में ‘दल-बदल’ की कुप्रथा को समाप्त करना था, जो कि 1970 के दशक से पूर्व भारतीय राजनीति में काफी प्रचलित थी।दल-बदल विरोधी कानून में किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित किया जाता है यदि एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है।कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट किया जाता है।कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है।छह महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
भले ही दल-बदल विरोधी कानून ने राजनीतिक पार्टियों के सदस्यों को दल बदलने से रोक कर सरकार को स्थिरता प्रदान करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। सरकार ना गिरे इसलिए इस कानून को लाया गया।कानून के प्रावधानों ने धन या पद लोलुपता के कारण की जाने वाली अवसरवादी राजनीति पर रोक लगाने और अनियमित चुनाव के कारण होने वाले व्यय को नियंत्रित करने में भी मदद की है।साथ ही इस कानून ने राजनीतिक दलों की प्रभाविता में वृद्धि की है और प्रतिनिधि केंद्रित व्यवस्था को कमज़ोर किया है।लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसका उल्टा हो रहा है।
एक श्रेष्ठ लोकतंत्र ने संवाद की संस्कृति को माना है, लेकिन दल-बदल विरोधी कानून की वज़ह से पार्टी लाइन से अलग किंतु महत्त्वपूर्ण विचारों को नहीं सुना जाता है। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि इसके कारण अंतर-दलीय लोकतंत्र पर प्रभाव पड़ता है और दल से जुड़े सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है।

दलों के राज को बढ़ावा देता कानूनजनता का, जनता के लिये और जनता द्वारा शासन ही असली लोकतंत्र है। लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होती है, उसकी अनुमति आज्ञा से शासन होता है, उसकी प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है। परंतु यह कानून जनता का नहीं बल्कि दलों के शासन की व्यवस्था अर्थात् ‘पार्टी राज’ को बढ़ावा देता है

दल बदल कानून में और बदलाव की जरूरत
वर्तमान में स्थिति यह है कि राजनीतिक दल स्वयं किसी महत्त्वपूर्ण निर्णय पर पार्टी के अंदर लोकतांत्रिक तरीके से चर्चा नहीं कर रहे हैं और पार्टी से संबंधित विभिन्न महत्त्वपूर्ण निर्णय सिर्फ शीर्ष के कुछ ही लोगों द्वारा लिये जा रहे हैं।आवश्यक है कि विभिन्न समितियों द्वारा दी गई सिफारिशों पर गंभीरता से विचार किया जाए और यदि आवश्यक हो तो उनमें सुधार कर उन्हें लागू किया जाए।दल-बदल विरोधी कानून में संशोधन कर उसके उल्लंघन पर अयोग्यता की अवधि को 6 साल या उससे अधिक किया जाना चाहिये, ताकि कानून को लेकर नेताओं के मन में डर बना रहे। परंतु सदन सदस्य को व्हिप से स्वतंत्रता भी मिले ताकि सत्ता प्रमुख उसकी अनदेखी ना करें ।जैसा अभी माहौल से दृष्टिगोचर हो रहा है।
नहीं पनप पाते छोटे दल
 पार्टी के दो तिहाई से अधिक  निर्वाचित सदस्यों पर यह कानून लागू नहीं होता है ।इसका फायदा बड़ी पार्टियों को अधिक होता है । जिनकी सदस्यों की संख्या अधिक होती है ,क्योंकि अधिक सदन सदस्यों को पद का लोभ ,धन देना थोड़ा मुश्किल होता है ।लेकिन जो छोटे दल है जिनके सदस्य कम निर्वाचित होकर आते है उन्हें  आसानी से तोड़ मरोड़ लिया जाता है ।जिससे छोटे दल राज्य में अपनी  राजनैतिक भूमिका नहीं निभा पाते ।

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