वेद एवं वैदिक साहित्य के वैदुष्य से सम्पन्न पं. राजवीर शास्त्री

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वेद एवं वैदिक साहित्य के वैदुष्य से सम्पन्न पं. राजवीर शास्त्री की शिक्षा-दीक्षा एवं शिक्षण आदि कार्य कार्य”

मनमोहन कुमार आर्य

पं. राजवीर शास्त्री आर्य पिता की संस्कारित एवं प्रतिभा सम्पन्न सन्तान थे। आपकी माता पौराणिक वैष्णव परिवार से थी। आपका जन्म 4 अप्रैल, 1938 को उत्तरप्रदेश के जनपद मेरठ निवासी श्री शिवचरण दास आर्य तथा माता श्रीमती मनसादेवी जी के घर हापुड़ के निकटवर्ती मुरादपुर जट्ट ग्राम में हुआ था। आप वैश्य सिंहल परिवार में जन्मे थे। आर्यसमाज के प्रमुख विद्वान पं. रामचन्द्र देहलवी, कुवर सुखलाल, ठाकुर अमर सिंह जी, स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती, पं. शान्ति प्रकाश, पं. बुद्धदेव मीरपुरी, पं. उदयवीर शास्त्री आदि आर्यसमाज के प्रचार के लिए इस क्षेत्र में आते रहते थे। इनके विचार सुनकर ही आपके पिता श्री शिवचरण दास आर्य निष्ठावान आर्यसमाजी बने थे। शास्त्री जी के तीन बड़े भाई और आपसे छोटी एक बहिन भी थी। शास्त्री जी के कुल पांच भाई और दो बहिने थीं जिसमें से दो भाई एवं एक बहिन की चेचक से बहुत पहले मृत्यु हो चुकी थी। पं. राजवीर शास्त्री जी का बचपन में घर का नाम राजकुमार था। राजवीर नाम आपको गुरूकुल झज्जर में अध्ययन के दौरान स्वामी ओमानन्द जी और व्याकरण के आचार्य विश्वप्रिय शास्त्री जी से मिला था। शास्त्री जी की प्रारम्भिक शिक्षा जन्म ग्राम के विद्यालय में हुई। इसके बाद सन् 1946 में जब आप 7-8 वर्ष के थे, आपको दयानन्द वेद विद्यालय गुरुकुल, गौतमनगर, दिल्ली में प्रविष्ट कराया गया। यह गुरुकुल विद्यालय स्वामी सच्चिदानन्द योगी जी द्वारा स्थापित था और इसे चलाते भी आप थे। स्वामी सच्चिदानन्द योगी का पूर्वनाम श्री राजेन्द्र नाथ शास्त्री था। आप स्वामी दयानन्द जी के सहपाठी पं. उदय भान प्रकाश के शिष्य थे। आपको सिद्धान्तो के प्रति गहरी निष्ठा स्वामी दयानन्द और अपने विद्या गुरू से मिली थी। बताते हैं कि गुरुकुल में एक कुआं था जिसमें शास्त्री जी गिर गये थे। लोगों को पता चल गया तो बड़ी कठिनता से आपको बाहर निकाला गया था।

गुरुकुल गौतमनगर, दिल्ली में अध्ययन के दिनों में स्वामी ओमानन्द जी, जो पहले इसी गुरुकुल में पढ़े थे, उन दिनों गुरुकुल झज्जर का संचालन करते थे। आपकी दृष्टि ब्रह्मचारी राजकुमार पर पड़ी तो आप उनके व्यक्तित्व व गुणों की ओर आकर्षित हुए। आपने ब्र. राजकुमार को अपने गुरुकुल झज्जर में पढ़ाने के लिए आपके पिता को सहमत कर लिया। स्वामी ओमानन्द जी ने उन्हें आश्वासन दिया था कि वह राजकुमार को शास्त्रों का विद्वान आचार्य बनायेंगे। यह भी जान लें कि गुरूकुल झज्जर की स्थापना स्वामी श्रद्धानन्द जी की प्रेरणा से पं. विश्वम्भरदास जी ने की थी। इस गुरूकुल के प्रथम आचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द जी थे। गुरूकुल झज्जर में रहकर राजवीर जी ने सन् 1954 तक पूरे मनोयोग से वेद वेंदांगों का गहन अध्ययन किया। आपने गुरूकुल में सरकारी परीक्षायें न देकर परम्परागत शास्त्रीय अध्ययन किया। आपके आचार्यों में आचार्य भगवान देव अर्थात् स्वामी ओमानन्द जी, आचार्य विश्वप्रिय शास्त्री, पं. जगदेव सिंह सिद्धान्ती, पं. महामुनि, मुनि देवराज विद्यावाचस्पति आदि थे। स्वामी ओमानन्द जी के आग्रह पर उन दिनों कविवर मेधाव्रत, आचार्य उदयवीर शास्त्री, स्वामी ब्रह्ममुनि, स्वामी वेदानन्द दयानन्द तीर्थ, स्वामी व्रतानन्द, स्वामी आत्मानन्द आदि वैदिक विद्वान गुरूकुल झज्जर में आकर ब्रह्मचारियों को अध्ययन कराते थे। इन सभी से अध्ययन का सौभाग्य पं. राजवीर शास्त्री जी को मिला। वैयाकरण आचार्य शिवपूजन जी, योगदर्शन के ख्याति प्राप्त विद्वान पं. महामुनि जी, दर्शनाचार्य पं. ईश्वरचन्द्र जी और वैदिक विद्वान पं. दामोदर सातवलेकर जी आदि ने गुरूकुल झज्जर में अध्ययन करने के दिनों में राजवीर शास्त्री जी की परीक्षा ली थीं। पं. राजवीर शास्त्री जी ने पौरोहित्य कर्म की शिक्षा प्रसिद्ध कर्मकाण्डी विद्वान स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती से ली थी।

स्वामी दयानन्द जी के शिष्य पं. भीमसेन शर्मा थे और शर्मा जी के पुत्र डा. हरिदत्त शास्त्री थे जिन्हें शास्त्री जी गुरू तुल्य आदर देते थे। डा. हरिदत्त शास्त्री ने पं. राजवीर जी की आगरा विश्व विद्यालय से एम.ए. की परीक्षा दिलाने में सहायता की थी। कारण था कि नये मेरठ विश्वविद्यालय की स्थापना और मेरठ क्षेत्र के विद्यार्थियों को आगरा के स्थान पर मेरठ विश्वविद्यालय से सम्बद्ध किया गया था। डा. हरिदत्त शास्त्री जी की सहायता से पं. राजवीर शास्त्री एम.ए. की परीक्षा दे सके जिस कारण वह उनके प्रति गुरु के समान आदर भाव रखते थे। जिन दिनों राजवीर जी गुरुकुल झज्जर में पढ़ते थे, उन दिनों पं. यज्ञदेव जी, पं. वेदव्रत मीमांसक, पं. सुदर्शनदेव जी, श्री सत्यवीर जी, श्री मनुदेव जी (स्वामी सत्यपति जी), श्री भीमसेन जी, श्री अतरसिंह जी, श्री जयदेव जी, श्री जगदीश जी आदि आपके सहपाठी थे। पं. राजवीर शास्त्री ने अनेक शास्त्रीय परीक्षायें उत्तीर्ण की थी। कुछ के नाम हैं सिद्धान्त रत्न सन् 1950, सिद्धान्त भास्कर सन् 1951, उपनिषद् विषय अलंकार परीक्षा सन् 1952, संस्कृतिविज्ञ परीक्षा सन् 1952, सिद्धान्त शास्त्री सन् 1952, संस्कृत प्रवीण परीक्षा सन् 1953 में तथा छन्दोलंकार शास्त्र साहित्याचार्य सन् 1954 में।

उपर्युक्त परीक्षाओं के अतिरिक्त शास्त्री जी ने सन् 1961 में वाराणसेय संस्कृत विश्व विद्यालय से शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1962 में पंजाब विश्वविद्यालय से आपने व्याकरणाचार्य किया। सन् 1964 में वाराणसी के वाराणसेय संस्कृत विश्व विद्यालय से आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की। उपुर्यक्त परीक्षाओं के अतिरिक्त पं. राजवीर शास्त्री जी ने पंजाब विश्व विद्यालय से विशारद (संस्कृत में उच्च दक्षता), शास्त्री (संस्कृत आनर्स) एवं प्रभाकर (हिन्दी आनर्स) क्रमशः सन् 1955, 1956 एवं 1958 में उत्तीर्ण की। शास्त्री जी ने काशी राष्ट्रीय संस्कृत महाविद्यालय से सम्पूर्ण मध्यमा सन् 1956 में उत्तीर्ण की। पंजाब के शिक्षा विभाग से सन् 1958 में आपने लैंग्वेज टीचर्स कोर्स भी पास किया। एम.ए. (संस्कृत) की उाधि आपने आगरा/मेरठ विश्वविद्यालयों से सन् 1967 में उत्तीर्ण की। इस प्रकार पं. राजवीर शास्त्री जी ने परम्परागत अधीत शास्त्र सहित आधुनिक परीक्षा प्रणाली दोनों शिक्षा पद्धतियों से संस्कृत की उच्च स्तरीय शिक्षा प्राप्त की।

गुरुकुल झज्जर से सन् 1958 में शिक्षा पूरी करने के बाद यहीं पर सन् 1960 तक आपने अध्यापन कार्य किया। पंजाब के शिक्षा विभाग में भी सन् 1960 से 1967 तक संस्कृत अध्यापक के पद पर आप कार्यरत रहे। शास्त्री जी ने झज्जर के ग्राम बेरी में शासकीय विद्यालय में भी अध्यापन कार्य किया। इन्हीं दिनों आप ने स्वामी रामदेव जी के विद्यागुरू महात्मा बलदेव जी तथा इन्द्रदेव मेधार्थी परवर्ती नाम स्वामी इन्द्रवेश सांसद को व्याकरण व महाभाष्य पढ़ाया। सन् 1967 से पं. राजवीर शास्त्री जी ने दिल्ली प्रशासन में संस्कृत शिक्षक के पद पर कार्यरत रहे और यहीं से सन् 1998 में सेवा निवृत्त हुए।

 

शास्त्री जी का घर-संसारः

पं. राजवीर शास्त्री जी का विवाह सन् 1962 में नांगल-देहरादून निवासी एक धार्मिक, ईश्वर विश्वासी तथा गृह कार्यों में निपुण देवी पुष्पलता जी के साथ हुआ था। आपने गृहस्थ जीवन का आदर्श रूप में पालन करते हुए आर्य अतिथियों की सेवा के साथ अपनी सन्तानों को सुयोग्य बनाया। आपकी चार सन्तानें क्रमशः विनय कुमार आर्य, संजय कुमार, आयु. अर्चना और अजय कुमार हैं। सभी बच्चे उच्च शिक्षित एवं विवाहित हैं। बड़े पुत्र विनय एम.एस-सी. (जीव विज्ञान) एवं बी.एड. हैं और दिल्ली के एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में अपनी सेवायें दे रहे हैं। दूसरे पुत्र श्री संजय कुमार ने वाणिज्य में स्नात्कोत्तर उपाधि प्राप्त की हुई है। आप कपड़े का व्यवसाय करते हैं। आपकी पुत्री आयु. अर्चना ने स्नात्कोत्तर उपाधि सहित बी.एड. किया हुआ है और आप एक विद्यालय में शिक्षिका हैं। चौथी सन्तान श्री अजय कुमार चार्टेड एकाउण्टेण्ट हैं और केन्द्र सरकार के अधीन अधिकारी हैं। आपकी सभी पुत्र वधुएं एवं दामाद भी आर्य संस्कारों से सुभूषित हैं। आपकी पुत्र वधुएं क्रमशः श्रीमती रेखा, श्रीमती सारिका एवं श्रीमती रश्मि हैं। आप तीनों ने शास्त्री जी की रूग्णावस्था में पूरी तन्मयता से सेवा की है। तीनों पुत्रों के साथ भी शास्त्री जी के आदर्श पिता-पुत्र के संबंध रहे हैं। शास्त्री जी को अपने गृहस्थ जीवन में जब जितना समय मिलता था, उसमें वह अपन्ी चारों सन्तानों से निकटता बना कर रखते थे।

हमने उपर्युक्त पंक्तियों में वेद एवं शास्त्रों के प्रमाणित विद्वान, वैदिक कोष, योगदर्शन पर व्यास भाष्य पर हिन्दी टीका सहित अनेकानेक ग्रन्थों के सम्पादक पं. राजवीर शास्त्री जी के पैतृक परिवार, शिक्षा, उनके गृहस्थ, अध्ययन-अध्यापन सहित शिक्षण कार्यों की चर्चा की है। अन्य अवसरों पर हम शास्त्री जी के जीवन के कुछ अन्य पहलुओं की भी चर्चा करेंगे। इस लेख को यहीं पर विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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