हरसिंगार

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हरसिंगार की  ख़ुशबू

कितनी ही निराली हो चाहें

रात खिले

और सुबह झड़ गये

बस इतनी ज़िन्दगानी है।

जीवन छोटा सा हो

या हो लम्बा,

ये बात ज़रा बेमानी है,

ख़ुशबू बिखेर कर चले गये

या घुट घुट के जीलें चाहें जितना।

जो देकर ही कुछ चले गये

उनकी ही बनती कहानी है।

प्राजक्ता कहलो या

पारितोष कहो

केसरिया डंडी श्वेत फूल

की चादर बिछी पेड़ के नीचे

वर्षा रितु कीबिदाई  है

शरद रितु की अगवानी है।

अब शाम सुबह सुहानी हैं।

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

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