हिन्दू महासभा और अछूतोद्धारक बाबासाहेब आंबेडकर

राकेश कुमार आर्य
बात उस समय की है जब 1930 में ब्रिटेन में आयोजित किए गए पहले गोलमेज सम्मेलन के लिए भारत के 53 प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया था। इसमें 20 रजवाड़े अलग – अलग भारतीय राज्यों की ओर से आमंत्रित किए गए थे । जबकि हिंदू नेताओं के रूप में तेज बहादुर सप्रू , एम आर जयकर , श्री चिमनलाल सीतलवाड़ , श्रीनिवास शास्त्री , स्वर्गीय श्री चिंतामणि को और मुसलमानों की ओर से सर आगा खान , मोहम्मद अली जिन्ना , फजलुलहक और सर मोहम्मद आसिफ को आमंत्रित किया गया था। जबकि सरदार उज्जवल सिंह को सिखों का प्रतिनिधि और डॉ मुंजे को हिंदू महासभा के प्रतिनिधि के रूप में बुलाया गया था। सर टी के पौल भारतीय क्रिश्चियन समुदाय के प्रतिनिधि बने और दलित वर्ग के प्रतिनिधि बनकर डॉक्टर अंबेडकर तथा राव बहादुर श्रीनिवासन आमंत्रित किए गए ।30 अक्टूबर 1930 में इन लोगों ने मुंबई से प्रस्थान किया और 12 नवंबर 1930 को यह लोग लंदन पहुंच गए । वहां पर गोलमेज सम्मेलन के सामने तेज बहादुर सप्रू ने अपने भाषण में कहा था कि भारत दृढ़तापूर्वक चाहता है कि उसे ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के अन्य राष्ट्रों जैसे ऑस्ट्रेलिया , कनाडा ,न्यूजीलैंड के समकक्ष दर्जा मिले। जिससे वहां एक उत्तरदाई सरकार बने , जो जनमत के प्रति उत्तरदायी हो । ऐसे ही मिले जुले विचार अन्य वक्ताओं के थे , परंतु इस सम्मेलन में डॉक्टर अंबेडकर ने एक बहुत ही अविस्मरणीय भाषण दिया था । उन्होंने कहा था कि मैं इस तथ्य पर जोर देना चाहता हूं कि ब्रिटिश भारत की कुल जनसंख्या का पांचवां हिस्सा ( दलित लोग ) जो स्वयं ब्रिटेन की कुल जनसंख्या के बराबर है ,उसकी दशा गुलामी से भी बदतर हो गई है। परंतु फिर भी मेरी यह मान्यता है कि भारत के अछूत भी भारत की वर्तमान सरकार को बदलना चाहते हैं। और उसके स्थान पर लोगों की एक ऐसी सरकार चाहते हैं जो जनता के लिए जनता के द्वारा ही हो । अपने भाषण में डॉक्टर अंबेडकर ने सरकार के सम्मुख सीधे तथा असुविधाजनक प्रश्न रखे । उन्होंने कहा कि जब हम अपनी वर्तमान स्थिति की तुलना ब्रिटिश शासन के पूर्व के दिनों से करते हैं तो यह पाते हैं कि आगे बढ़ने के स्थान पर हम जहां थे ,वहीं खड़े हैं । ब्रिटिश शासन के पहले हमारी दुर्दशा का कारण अछूत व्यवस्था थी । क्या ब्रिटिश सरकार ने इस प्रथा को दूर करने के लिए कुछ किया है ? ——- – – उन्होंने आगे कहा कि अगर हम तुलना की दृष्टि से देखें तो अंग्रेजी राज्य के पहले भी हमारी स्थिति इतनी ही बुरी थी, जितनी आज है । हमें इस घृणित स्थिति से निकालने के लिए अंग्रेजी सरकार ने क्या किया ? – हमारी स्थिति तो रिसते हुए खुले घाव की तरह है , हमारे साथ इस अन्याय को खत्म करने के लिए डेढ़ सौ साल से चली आ रही इस अंग्रेजी सरकार ने भी कुछ नहीं किया है । आखिर किसी के लिए भी सरकार के क्या लाभ हैं ? हमें तो एक ऐसी सरकार की जरूरत है जिसमें सत्ताधारी लोग निष्ठापूर्वक समस्त राष्ट्र के हितों के प्रति निष्ठावान हों । हमें एक ऐसी सरकार चाहिए जिसे पता हो कि कहां आज्ञा पालन का अंत तथा विरोध की शुरुआत होगी ? – जो सामाजिक बदलाव या आर्थिक नियम को बनाने या बदलने में डरे नहीं ताकि लोगों को न्याय प्राप्त हो सके।डॉक्टर अंबेडकर के इस भाषण से कई बातें स्पष्ट होती हैं । देश में कुछ लोगों ने डॉक्टर अंबेडकर जी के यश को अपयश में बदलने के लिए कुछ ऐसे प्रयास करने आरंभ किए हैं कि जैसे भारत की आजादी अगड़ी जाति के कुछ लोगों ने एक षड्यंत्र के तहत अंग्रेजों से प्राप्त की और दलितों के साथ धोखा किया । जबकि हम अंग्रेजी राज में ही अच्छे थे और अंग्रेजी राज ने हमारे लिए अमुक अमुक बहुत सारे कार्य किए , जिनसे हमारी स्थिति उस समय बहुत अच्छी रही। ऐसे लोगों के लिये डॉक्टर अंबेडकर अपने इस भाषण में स्पष्ट कर रहे हैं कि उन्हें देश की आजादी चाहिए , क्योंकि अंग्रेजों ने उनके लोगों के लिए कुछ भी ऐसा नहीं किया है जिसे न्याय संगत कहा जा सके। दलित लोगों की जो दशा अंग्रेजों के आने से पूर्व थी वही अभी भी बनी हुई है। इसका अभिप्राय है कि आजादी के सही 17 वर्ष पहले तक भी अंग्रेजों ने दलित समाज के लिए ऐसा कुछ भी नहीं किया था , जिससे उल्लेखनीय कहा जा सके तभी तो डॉ अंबेडकर अपनी राष्ट्रवादी सोच का परिचय देते हुए अंग्रेजों से सर्व समाज की मुक्ति चाहते थे। अंग्रेजों ने डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को चाहे दलितों की ओर से एक प्रतिनिधि के रूप में इस सम्मेलन बुलाया था , परंतु डॉक्टर अंबेडकर ने अपने भाषण से यह स्पष्ट कर दिया कि वह राष्ट्र के प्रतिनिधि हैं ,और राष्ट्र में ही क्योंकि दलित समाज भी रहता है इसलिए यहां उसकी बात को उठाना भी उनका परम कर्तव्य है।दूसरी बात डॉक्टर अंबेडकर कह रहे हैं कि हमें ऐसी सरकार चाहिए जिसमें सत्ताधारी लोग निष्ठापूर्वक समस्त राष्ट्र के हितों के लिए निष्ठावान हों । इस वाक्य से स्पष्ट होता है कि डॉक्टर अंबेडकर किसी ऐसी शासन व्यवस्था के समर्थक नहीं थे जो प्रतिशोध पर टिकी हो । वह ऐसा नहीं चाहते थे कि तथाकथित ब्राह्मणवादी व्यवस्था के लोगों से सत्ता छीनकर अपने हाथ में ली जाए और फिर ब्राह्मणवादी लोगों के पूर्वजों ने जो अत्याचार दलित समाज पर किए , उनका प्रतिशोध उनसे लिया जाए । जैसा कि उनका नाम लेकर कुछ लोग अब प्रयास कर रहे हैं कि समाज के अगड़े लोगों के अधिकारों को छीन छीन कर उन्हें दे दिया जाए । डॉ अम्बेडकर यह भी नहीं चाहते थे कि धर्माधीशों , सत्ताधीशों व न्यायाधीशों की ओर से शोषण का चल रहा वर्तमान सिलसिला निरंतर और निर्बाध रूप से अनंतकाल तक बना रहे । वह इसे तुरंत समाप्त करने के पक्षधर थे । डॉ आंबेडकर ऐसी व्यवस्था के समर्थक थे जिसमें सत्ताधारी लोग न्यायसंगत आचरण करें और पक्षपातरहित होकर ऐसी व्यवस्था का सृजन करें जिसमें राष्ट्र के सभी लोगों का समग्र विकास हो सके । राष्ट्र के सभी लोगों को ऐसा लगे कि उन्हें भी न्याय प्राप्त हो रहा है। यही वास्तविक लोकतंत्र है । इसमें किसी के प्रति प्रतिशोध की भावना दूर-दूर तक भी नहीं है । सब सब के प्रति समर्पित हो जाएं और सब सबके कल्याण में रत हो जाएं – इस भाव को लेकर जो सरकार व सत्ताधारी लोग कार्य करते हैं , वही वास्तविक अर्थों में लोकतंत्रिक होते हैं । डॉक्टर अंबेडकर इसी विचार के समर्थक थे ,और मूलरूप में यह विचार मनुस्मृति का है। जो लोग आज जातिवादी संगठन चला कर या जातिवाद के नाम पर आरक्षण की वकालत कर समाज में अराजकता फैला रहे हैं , या सामाजिक व्यवस्था को तार-तार करने का प्रयास कर रहे हैं , या जातीय आधार पर किसी वर्ग को हीनभाव से देखने की चेष्टा कर रहे हैं – वह सब के सब अंबेडकर की आत्मा को ठेस पहुंचा रहे हैं।प्रथम गोलमेज सम्मेलन के समय डॉक्टर अंबेडकर के इस स्पष्टवादी और ओजस्वी भाषण ने हमारे देश के प्रतिनिधियों को ही नहीं अंग्रेजी सरकार को भी आश्चर्यचकित कर दिया था । ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी उनके भाषण से बहुत प्रभावित हुए थे । बड़ौदा के महाराजा के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने इस गोलमेज सम्मेलन में एक विशेष भोज का आयोजन कर डॉक्टर अंबेडकर को वहां पर आमंत्रित किया । डॉक्टर अंबेडकर के इस भाषण का अंग्रेजी समाचार पत्रों ने भी गंभीरता से संज्ञान लिया था।इस भाषण से डॉक्टर अंबेडकर ने यह स्पष्ट कर दिया था कि उनके लिए देश प्रथम है । जातिवाद या और किसी प्रकार का संकीर्ण मानसिकता को दिखाने वाला विचार उनके लिए कोई महत्व नहीं रखता। उनके राष्ट्रवादी चिंतन अर्थात समग्रतावादी क्रांतिकारी विचारों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह एक क्रांतिकारी नेता भी हैं । उन्होंने भारत के दलित समाज की बातों को बड़ी प्रमुखता से रखा और स्पष्टत: सरकार की खिंचाई भी की । परंतु दलित समाज के लिए कोई ऐसा अधिकार माँगना , जिससे भारतीय समाज में फूट पड़ती हो या भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर विपरीत प्रभाव पड़ता हो , उन्होंने उचित नहीं माना था। डॉक्टर अंबेडकर के व्यक्तित्व की यह बहुत बड़ी विशेषता थी कि वह यह मानते थे कि अपने अधिकारों के लिए लड़ो , परंतु परिवार में फूट पैदा ना हो इस बात का भी पूरा ध्यान रखो ।अखिल भारत हिंदू महासभा के नेता डॉ मुंजे ने डॉक्टर अंबेडकर द्वारा दलितों के अधिकारों की बात को प्रमुखता से उठाने में उनका भरपूर सहयोग किया था । अंग्रेज और अमेरिकन संवाददाताओं के सामने इन दोनों नेताओं ने संयुक्त वक्तव्य दिया था कि कोई भी कारण नहीं है कि दलित वर्ग अन्य धर्मावलंबियों से असहमत हों , या उनसे स्वयं को अलग मानें या समझें । तत्कालीन परिस्थितियों में इन दोनों महान नेताओं का एक साथ दिया गया यह संयुक्त वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण था । अंग्रेज जिस प्रकार देश में जातिवाद की फूट डालकर डॉक्टर अंबेडकर को दलितों का नेता तो किसी को सिखों का नेता कहकर स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे वह सब उनकी ” फूट डालो और राज करो ” की राजनीति के अंतर्गत स्वाभाविक रूप से हो रहा था ,परंतु इन दोनों नेताओं ने यह संयुक्त वक्तव्य जारी कर अंग्रेजों की इस नीति पर पूर्ण विराम लगाने का प्रयास किया। डॉक्टर अंबेडकर ने भावी स्वतंत्र भारत में दलित वर्गों के सांस्कृतिक ,धार्मिक व आर्थिक अधिकारों से संबंधित मूल अधिकारों की घोषणा का जो प्रारूप तैयार किया था , वह हिंदू नेताओं विशेष रूप से डॉक्टर मुंजे को पूर्णतया स्वीकार्य था । डॉ मुंजे के स्पष्ट विचार थे और वह अपनी पार्टी के उस आदर्श को लेकर वहां पर उपस्थित थे कि भारत भारतीयों का है और भारतीयों में हर वह व्यक्ति सम्मिलित है जो इस देश को अपनी पुण्य भूमि और पितृभूमि मानता है। दलित भाई चूंकि प्राचीन काल से ही इस पवित्र भूमि को अपनी भूमि मानते चले आए हैं , इसलिए वह हमारे समाज का एक अविच्छिन्न भाग हैं और हम उनके अधिकारों को देने के लिए हर प्रकार का आंदोलन चलाने के लिए तत्पर हैं । कहने का अभिप्राय है कि अखिल भारत हिंदू महासभा उस समय भी दलित वर्ग के अधिकारों को मान्यता देती जा रही थी ,और डॉ आंबेडकर के क्रांतिकारी विचारों का समर्थन कर उन्हें और भी प्रखरता प्रदान करने का कार्य कर रही थी। यह बात हम यहां इसलिए भी लिख रहे हैं कि आजकल कुछ लोग अखिल भारत हिंदू महासभा को डॉक्टर अंबेडकर के विचारों के विपरीत एक ऐसी संस्था मानते हैं जो ब्राह्मणवादी सोच की या मनुवाद के तथाकथित स्वरूप की पोषक संस्था है । जबकि सच यह है कि इस संस्था ने डॉक्टर अंबेडकर के जातिविहीन समाज के विचार का सदा समर्थन किया है ।ब्रिटिश समाचार पत्र ” संडे क्रॉनिकल ” ने डॉक्टर अंबेडकर के प्रयासों की भूरि – भूरि प्रशंसा करते हुए उस समय लिखा था कि — ” हृदय से सच्चे राष्ट्रवादी डॉक्टर अंबेडकर को उन अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्षरत रहना पड़ा जो उन्हें फुसलाकर अपनी ओर कर लेना चाहते थे । साथ ही साथ उनका काम और भी दुष्कर इसलिए भी हो गया था कि वह अपने सहयोगी प्रतिनिधि राव बहादुर श्रीनिवासन को राष्ट्रवादी गुट में बनाए रखना चाहते थे। “” डॉक्टर भीमराव अंबेडकर : जीवन और संघर्ष ” नामक पुस्तक के लेखक एम एल शहारे ने पृष्ठ संख्या 40 पर लिखा है कि :– ” गोलमेज सम्मेलन की पहली बैठक में अंग्रेजों ने डॉक्टर अंबेडकर को राष्ट्र के संघीय ढांचे को निर्मित करने वाली समिति से अलग रखा था , क्योंकि उन्हें मालूम था कि डॉक्टर अंबेडकर सच्चे देशभक्त हैं , तथा एक संगठित और स्वतंत्र भारत के समर्थक हैं , फिर भी दूसरे गोलमेज सम्मेलन में डॉक्टर अंबेडकर को भारत के लिए एक नए संविधान का प्रारूप तैयार करने का महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया था। नए संविधान का प्रारूप तैयार करने का नतीजा यह हुआ कि पहले जो अखबार या पत्रिका उनकी आलोचना करते थे , उनके विरुद्ध थे , वही लोग उन्हें समझने लगे । उनके विचार और देशभक्ति की कदर करने लगे । भारतीय अखबार ‘ डेली मेल ‘ ने उनके लिए लिखा कि – ” वे ऐसे सच्चे देशभक्त हैं , जो भारत में राष्ट्रीय सरकार बनाने के पक्ष में है ।भविष्य में मताधिकार , सीनेट, संघीय व्यवस्थापिका इत्यादि को लेकर जो भी विचार-विमर्श होगा , उसमें निश्चित ही दलित वर्गों का यह प्रतिनिधि अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा । इसी प्रकार के भाव ‘ केसरी ‘ नामक समाचार पत्र में व्यक्त किए गए । जो पहले डॉ अंबेडकर का विरोध करता था । स्वर्गीय श्री जोशी जो सामाजिक कार्यकर्ता समाजवादी नेता थे , उन्होंने डॉक्टर अंबेडकर की प्रशंसा की। “डॉ आंबेडकर मर्यादित आचरण करने के अभ्यासी थे। वह अपनी मांगों को लेकर जितने कड़े होते थे उतने ही मर्यादित और अनुशासित रहने के लिए भी जाने जाते थे । उन्होंने अत्यंत उत्तेजक परिस्थितियों में भी कभी किसी नेता से अपशब्दों का यह अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं किया । गांधीजी से उनके सैद्धांतिक मतभेद थे । परंतु इसके उपरांत भी वह उनका सम्मान करते थे और अपनी बात के लिए बहुत उच्चतम स्तर की बहस उनसे कर लिया करते थे । आज के तथाकथित अंबेडकरवादियों को अपनी भाषा और भाषण शैली को डॉक्टर अंबेडकर की भाषा और भाषण शैली के अनुरूप बनाने की आवश्यकता है। डॉक्टर अंबेडकर किसी दलित भारत , या ब्राह्मण भारत या हिंदू भारत के समर्थक नहीं थे । वह केवल भारतवर्ष के समर्थक थे और इसी के लिए वह संघर्ष कर रहे थे । इसके भीतर सामाजिक वर्ग संघर्ष के वह विरोधी थे । वह चाहते थे कि वर्ग संघर्ष की भावना और जातिवाद मिटे । इसके उपरांत एक ऐसा समाज निर्मित हो जो ” राष्ट्र प्रथम ” की भावना से ओतप्रोत हो तथा समाज के लिए समर्पित होकर सर्व समाज की उन्नति में विश्वास रखने वाले लोग जिसके निवासी हों ।सितंबर 1931 में द्वितीय सम्मेलन द्वितीय गोलमेज सम्मेलन आरंभ हुआ। इस गोलमेज सम्मेलन में 15 सितंबर 1931 को गांधीजी ने अपने प्रथम भाषण में यह स्पष्ट किया कि भारतीय हितों , धर्मों तथा जातियों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ही है । गांधीजी का यह वक्तव्य कुछ सीमा तक सही था। वह अंग्रेजों की ‘ फूट डालो और राज करो ‘ की कूटनीति को ध्वस्त करना चाहते थे , इसलिए वह कांग्रेस को भारतीय हितों , धर्मों तथा जातियों की एक मात्र प्रतिनिधि संस्था के रूप में स्थापित करना चाहते थे । उनका तर्क इस तथ्य पर आधारित था कि मुस्लिम , हिंदू दलित वर्गों के व्यक्ति , क्रिश्चियन , पारसी तथा अन्य लोग कांग्रेस के सिर्फ सक्रिय सदस्य ही नहीं है , अपितु उन्हें दल में महत्वपूर्ण पद भी प्राप्त हैं , इसलिए कांग्रेस सभी का प्रतिबिंब है। गांधी जी के भाषण के पश्चात डॉक्टर अंबेडकर का भाषण उसी दिन अर्थात 15 सितंबर 1931 को ही हुआ । डॉक्टर अंबेडकर ने अपने भाषण में भारतीय नरेशों से स्पष्ट किया कि यह समिति उन्हें वह सब कुछ नहीं दे सकती जो वह चाहते हैं । उनके आंतरिक मामलों में पूर्ण अहस्तक्षेप की मांग भी यह समिति पूरी नहीं कर पाएगी । डॉक्टर अंबेडकर ने यह भी कहा कि भारत के प्रस्तावित भारतीय संघ में देसी रियासतों को सम्मिलित करने से पहले उन्हें प्रमाण पत्र देना होगा कि उनके पास वे सभी आवश्यक संसाधन एवं क्षमताएं उपलब्ध हैं , जिससे वे अपने नागरिकों को एक सभ्य जीवन उपलब्ध करा सके । स्पष्ट है कि डॉक्टर अंबेडकर भारत के देसी राज्यों से यह सुनिश्चित करा लेना चाहते थे कि वे अपने राज्यों में दलित समाज के लोगों के लिए भी वे सभी अधिकार उपलब्ध कराएंगे जो एक सभ्य समाज में प्रत्येक मानव के लिए उपलब्ध कराए जाने आवश्यक होते हैं । डॉक्टर अंबेडकर ने अपने भाषण में दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह उठाया कि प्रस्तावित संघीय विधायिका में राज्यों के प्रतिनिधि सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर लोगों द्वारा चुनकर भेजे जाएं न कि रियासतों के शासकों द्वारा मनोनीत किए जाएं।डॉक्टर अंबेडकर ने इस गोलमेज सम्मेलन में अछूतों के लिए विशेष प्रतिनिधित्व की व्यवस्था करने की मांग की थी । यद्यपि उनकी इस प्रकार की मांग से महात्मा गांधी असहमत थे । महात्मा गांधी का विचार था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस शूद्रों के अधिकारों का संरक्षण करने में सक्षम है, क्योंकि वे हिंदू धर्म के ही अंग हैं । यहीं पर गांधी जी ने अपने स्वभाव के अनुसार मुस्लिम तुष्टीकरण करते हुए केंद्रीय विधान परिषद तथा राज्यों की प्रांतीय विधायिकाओं में मुसलमानों के लिए स्थान सुरक्षित करने की मांग का समर्थन किया । गांधी जी की इस प्रकार की अनेकों भूलें हैं जो अब भारतीय इतिहास का एक अंग बन चुकी हैं । गांधी जी यहां पर मुस्लिम तुष्टिकरण करते हुए मुस्लिमों के लिए इस प्रकार की मांग का समर्थन ना करते तो भारत में मुस्लिम सांप्रदायिक समस्या विकराल रूप न ले पाती। पंडित मदन मोहन मालवीय ने अछूतों के विषय में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि यदि राष्ट्र अशिक्षा को हटाने के कार्यक्रम में अब से पूर्व पर्याप्त धनराशि व्यय करता तो ‘ दलित वर्ग ‘ शब्द का स्वत: ही अंत हो जाता । डॉक्टर अंबेडकर ने अपनी स्वभावगत प्रत्युतपन्नमति से कहा कि यद्यपि उन्होंने अमेरिका , ब्रिटेन और जर्मनी के श्रेष्ठ अध्ययन केंद्रों में उच्चतम शिक्षा प्राप्त की है , इसके उपरांत भी वे शूद्र ही कहलाते हैं अर्थात अपनी शिक्षा पर पर्याप्त धनराशि व्यय करने के उपरांत भी वह शूद्र ही हैं । मालवीय जी के पास डॉक्टर अंबेडकर के इस तर्क का कोई उत्तर नहीं था। क्योंकि उनके शब्दों में कटु सत्य छिपा हुआ था।द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के अंत में ब्रिटेन के सम्राट ने अपनी ओर से गोलमेज सम्मेलन में उपस्थित रहे अतिथियों के लिए एक भोज का आयोजन किया था । जिसमें डॉक्टर अंबेडकर भी उपस्थित थे । जब सम्राट ने उनसे भारत के अछूतों की स्थिति के विषय में जानकारी लेनी चाही तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में अछूतों की सदियों से चली आ रही स्थिति का चित्रण किया। डॉक्टर अंबेडकर की जीवन कथा लिखने वाले एक लेखक ने यह लिखा है कि बाबा साहेब द्वारा दिए गए हृदय विदारक विवरण से सम्राट का ह्रदय द्रवित हो गया था। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के बाद से अब तक हमने कितनी ही घटनाओं को घटित होते देखा है । हमने भारत की आजादी को भी देखा और उसके बाद संविधान , संविधान सभा और संविधान के लेखन की पूरी होती हुई प्रक्रिया को भी देखा। संविधान को लागू होते भी देखा और उसके पश्चात संविधान को लागू करने वाले भी देखे । इसी प्रकार देखते – देखते अब तक 17 लोकसभा चुनाव हो चुके हैं । दलितों की राजनीति करने वाले भी अनेकों नेताओं को इस भारत ने देखा, परंतु समस्या वही की वही है जो अब से एक शताब्दी पूर्व थी । ऐसा क्यों हुआ ? हमारे संविधान में कहीं दोष है या संविधान को लागू करने वालों की इच्छा शक्ति दुर्बल है ,या फिर हमारी सोच ही डॉक्टर अंबेडकर जैसी नहीं है , और हम केवल वोटों की राजनीति करते हुए जातीय समूहों में बंटे रह कर जातिवाद के नाम पर लड़ते रहने में ही आनंदानुभूति करते हैं ? – सचमुच सोचने का समय है।

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