मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता का प्रदर्शन

पियूष द्विवेदी

इस वर्ष अप्रैल में हमारी भारतीय सिनेमा ने अपने सौ वर्ष पूरे कर लिए| इन सौ वर्षों के मध्य तमाम उतारों-चढावों से गुजरते हुवे हमारी सिनेमा ने ‘भक्त पुंडलिक’ और ‘राजा हरिश्चंद्र’ कि मूक-अभिव्यक्ति से लेकर ‘रा.वन’ की उच्च प्रोद्योगिकी तक का स्वर्णिम सफर तय किया| इन्ही सौ वर्षों के मध्य, सत्तर-अस्सी के दशक में, हमारे फिल्मोद्योग ने विश्व में सर्वाधिक फिल्मे बनाने का तमगा भी हाशिल किया| इन सौ वर्षों के मध्य की ये तमाम उपलब्धियां अगर हमें गर्वित करती हैं, तो इन्ही सौ वर्षों के अंतिम एक-दो दशकों के मध्य हमारी इसी भारतीय सिनेमा में अश्लीलता और हिंसा के अनावश्यक प्रदर्शन का बढ़ा वर्चश्व हमें लज्जित और चिंतित भी करता है|

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जिन नानाभाई भट्ट ने भारतीय सिनेमा को ‘रामराज्य’ जैसी स्वच्छ और उद्देश्यपूर्ण फिल्म दी थी, उन्हीके वंशज महेश भट्ट तथा इन्हिके परिवार से बने भट्ट कैम्प ने जैसे आज भारतीय सिनेमा को हिंसक, अश्लील और उद्देश्यहीन फ़िल्में देने का ठेका ले रखा है| आलम ये है कि आज किसी भी फिल्म का भट्ट कैम्प से जुड़ना, उसके अश्लील और हिंसक होने का प्रमाण बन गया है| अभी कुछ ही महीने पहले की बात है, जब भट्ट कैम्प द्वारा अपनी एक घटिया और गन्दी फिल्म की आगामी सिक्वल के लिए एक विदेशी पॉर्न स्टार को बतौर अभिनेत्री चुना गया| इस चयन का रहश्य जरा विचार करते ही हमारी समझ में आ जाता है, और ये रहश्योद्घाटन अश्लीलता-प्रिय दर्शकों की बांछे खिलाने के लिए पर्याप्त है| इससे कत्तई इंकार नहीं किया जा सकता कि विक्रम भट्ट ने अभी तत्काल में ही आई अपनी एक फिल्म ‘हेट स्टोरी’ में अश्लीलता की जिन पराकाष्ठाओं को छुआ है, भट्ट कैम्प की एक पॉर्न अदाकारा से सुसज्जित ये अगली फिल्म उन पराकाष्ठाओं को पार कर जाए| अत्युक्ति तो ये है कि भट्ट कैम्प इस तरह की फिल्मों को कतई भी गलत नही मानता, वरन उसकी नज़र में ये समाज का चित्रण है| अब समझ में ये नही आता कि भट्ट कैम्प को समाज में चित्रित करने के लिए सेक्स और हिंसा ही क्यों मिलती है, जबकि समाज में गरीबी, बेरोजगारी आदि तमाम समश्याएं हैं, भट्ट कैप इनका चित्रण क्यों नही करता|

वो भी क्या वक्त होगा, जब सन १९४९ में राजकपूर की फिल्म ‘बरसात’ को सेंसर बोर्ड द्वारा ‘यूं’ सर्टिफिकेट सिर्फ इसलिए नही दिया गया, क्योंकि उसमे अभिनेत्री नर्गिश और निम्मी ने दुपट्टा नहीं लगाया था| पर अब वक़्त बदल गया है, आज अगर ऐसे आधारों पर सर्टिफिकेट दिए जाने लगें तो संभव है कि बच्चों के देखने लायक कोई फिल्म ही न हो| आज की सिनेमा के अनुसार हमारा सेंसर बोर्ड भी बदल गया है, अब चुम्बन तथा हलके-फुल्के अंतरंग दृश्यों वाली फिल्मों को जरा ना-नुकुर के बाद ‘यू.ए’ सर्टिफिकेट मिल ही जाता है| ऐसा कहा जाता है कि सिनेमा समाज का आईना होती है, पर आज की जो सिनेमा है, उसे देखकर समाज ही उसका आईना बनता जा रहा है| इसका सशक्त प्रमाण, फ़िल्मी तरीकों से हो रही तमाम आपराधिक क्रियाएँ हैं|

अश्लील तथा हिंसात्मक सिनेमा सिर्फ हमारे समाज को गन्दा ही नही कर रही, वरन हमारे संविधान पर भी चोट कर रही है| हमारा संविधान किसी भी ऐसी चीज के प्रदर्शन की अनुमति नही देता है, जिससे हमारा सामाजिक वातावरण बिगड़े और उसमे व्यभिचारी, उत्तेजक और हिंसात्मक भावनाओं का जन्म हो, पर आज की ये सिनेमा संविधान को ताक पर रखकर, मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता और हिंसा के रूप में वही भावनाएँ परोस रही है| प्यार के नाम पर सेक्स और एक्शन के नाम पर अत्यधिक अनावश्यक हिंसा, यही हमारी वर्तमान सिनेमा का ट्रेड बन गया है| विडम्बना तो ये है कि संविधान की संरक्षक हमारी न्यायपालिका भी इसमे कोई हस्तक्षेप नही कर रही|

मीडिया, सिनेमा में अश्लीलता और हिंसा के बढ़ावे में इसका भी कुछ कम योगदान नहीं है| अश्लील और हिंसक सिनेमा को ‘मशालेदार सिनेमा’ की संज्ञा और कहीं से नहीं, इसी मीडिया से मिली है| घटिया, अंतरंग दृश्यों को न्यूज चैनल्स ‘हॉट सीन्स’ का नाम देकर कुछ ऐसे दिखाते हैं, जैसे इन दृश्यों को दिखाना ही उनका प्रथम दायित्व है| और तो और, कुछ न्यूज चैनल तो ऐसे भी हैं, जिनके खुद के ऐसे कार्यक्रम हैं, जिनमे इशारों-इशारों में, बातचीत के द्वारा अश्लीलता परोसी जाती है| कहीं तीन लडकियां बैठकर अश्लीलता बतियाती हैं, तो कहीं वीना मलिक एंकरिंग करती हैं| ऐसा सिर्फ ई-मीडिया में ही नही, वरन प्रिंट मीडिया कमोबेश ऐसी ही है| अख़बारों में अभिनेताओं-अभिनेत्रिओं के जो चित्र निकलते हैं तथा उनके आगे जो खबर छपती है, ये द्दोनो चीजें अगर आपने देखि हैं, तो फिर मुझे कुछ और अधिक कहने की कोई विशेष आवश्यकता नही लगती| इस तरह की खबरों के प्रदर्शन के दौरान शायद मीडिया भूल जाती है कि न्यूज चैनल बड़ा, बूढ़ा, बच्चा, कोई भी देख सकता है, और अखबार भी सभी पढते हैं|

अश्लीलता का क्षेत्र इतना व्यापक होता जा रहा है, या यूँ कहें कि हो गया है कि अगर सौ लोगों के पास मल्टीमीडिया फोन है, तो उन सौ में से अस्सी लोगों के फोन में आपको पोर्नोग्राफी के विडिओज मिल जाएँगे| इसके अतिरिक्त इंटरनेट पर पोर्नोग्राफी देखने का प्रतिशत भी दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है| और अब तो, ये अश्लीलता हमारे धारावाहिकों में भी आ रही है| इसका प्रमाण, अभी तत्काल में ही कुछ धारावाहिकों में फिल्माए गए कुछ अंतरंग दृश्य हैं|

इन सब बातों को देखने के बाद सवाल ये उठता है कि सिनेमा में अश्लीलता के इस महातांडव के लिए वास्तव में जिम्मेदार कौन है? इस सवाल पर लोगों का जवाब प्रायः निर्माता-निर्देशक होते हैं, ये जवाब कुछ हद तक सही भी है| पर एक बात को लोग जान-बूझकर नज़र अंदाज़ कर देते हैं कि आखिर निर्माता-निर्देशक ऐसी फ़िल्में बनाते क्यों हैं? सीधा जवाब है कि ऐसी फिल्मों से उन्हें फायदा होता होगा, मतलब ऐसी फ़िल्में सफल होती हैं| फिल्मे सफल होने का सीधा अर्थ है कि दर्शकों द्वारा ऐसी इल्में देखी जाती हैं| बस, यही कारण है, हमारी सिनेमा में दिन-प्रतिदिन बढ़ती इस अश्लीलता का| बेशक, इसके लिए हमारे निर्माता-निर्देशक भी दोषी हैं, पर उनसे लाख गुना अधिक दोषी हमारा ये दर्शक वर्ग है, क्योंकि वो तो बस मांग के अनुसार आपूर्ति कर रहे हैं| बात साफ़ है कि सिनेमा कि अश्लीलता के लिए हर किसी से पहले, खुद हम दोषी हैं| पर, सिर्फ खुद को दोषी कहने से ये नही मिटने वाली, इसको मिटने का सिर्फ एक उपाय है- अश्लील सिनेमा का पूर्ण बहिष्कार- और जिस दिन ऐसा होने लगा, उस दिन से बिना किसी प्रतिबन्ध के अश्लील सिनेमा आणि बंद होने लगेगी, और धीरे-धीरे खत्म भी हो जाएगी| बस जरूरत है, तो खुद को और खुद की इस बीमार मानसिकता को बदलने की

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