नायक नहीं, खलनायक हूं मैं


वीरेन्द्र सिंह परिहार
अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की उत्पत्ति समझे जानें वाले अरविन्द केजरीवाल के मामले में पूर्व में आम लोगों की धारणा आम राजनीतिज्ञों से कुछ अलग किस्म की थी। यह माना गया था कि पेषेवर राजनीतिज्ञों की जगह केजरीवाल भारतीय राजनींति को नई दिषा देंगे। उनकी ‘आप’ पार्टी के बढ़ते ग्राफ को देखकर सरसंघ चालक श्री मोहन भागवत को भाजपा को यह चेतावनी देनी पड़ी थी कि वह ‘आप’ पार्टी को हल्के मे न ले। पर वर्ष 2013 में कांग्रेस पार्टी के सहयोग से दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने पर उनके गैर जिम्मेदाराना कृत्य सामने आने लगे। जनवरी 2014 में वह पूरी दिल्ली सरकार को लेकर बिना किसी ठोस वजह के धरने पर बैठ गये। उस दौर मे अपनें विधि मंत्री सोमनाथ भारती के विधि-विरूद्ध ही नहीं आपराधिक कृत्यों का भी उन्होनें जिस ढ़ंग से बचाव किया, उससे लोगों को यह महसूस होनें लगा कि केजरीवाल भी दूसरे राजनीतिज्ञों की तरह ही हैं। जिस तरह से अपनी प्रतिबद्धताओं के उलट उन्होनें बड़ा बंगला, महगी गाड़ी ली , बहुत बड़ा सुरक्षा घेरा लिया, उससे यह अन्दाज लगने लगा कि ये भी औरों जैसे ही हैं। उस दौर में केजरीवाल यह कहते थे कि मैं ब्यवस्था परिवर्तन का पक्षधर हूं, इसलिये अराजकतावादी हूं। जबकि अराजकतावाद के मायने जंगल राज है, जहां कमजोर, ताकतवर का भक्ष्य होता है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान केजरीवाल ने यह पूरी तरह से प्रचारित करने का प्रयास किया कि नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते गुजरात में कोई विकास नहीं हुआ है। नरेन्द्र मोदी मात्र अम्बानी और अडाणी के एजेंट हैं, कुल मिलाकर झूंठे आकड़े देकर और तथ्यों को तोड़ मरोड़कर इस बात का भरसक प्रयास किया किे कुल मिलाकर मोदी खलनायक हैं। जब उन्हें लगा कि लोग उनके दुष्प्रचार से रंच मात्र भी प्रभावित नहीं हो रहे हैं तो वह हताषा और निराषा में मीडिया को ही जेल भेजने की बातें करने लगे। लोगों को यह भी पता होगा कि अगस्त 2011 मे अन्ना हजारे के जन लोकपाल आन्दोलन के दौरान दिल्ली के रामलीला मैदान मे लगे भारत माता के चित्र को जब साम्प्रदायिक कहा गया तो वोट बैंक की राजनीति के तहत केजरीवाल ने उसे हटवा दिया था। हद तो यह हुई कि अपनी बेवसाइट पर केजरीवाल ने कष्मीर को पाकिस्तान मे दिखाया, जिससे नरेन्द्र मोदी को केजरीवाल को पाकिस्तान का एजेन्ट कहना पड़ा था। इसी वोट राजनीति के तहत दिल्ली नगरपालिका के कानूनीं सलाहकार एम.एम. खान की हत्या पर उनके परिजनों को वह एक करोड़ की सहायता राषि देते हैं पर अप्रैल 2016 में बंग्लादेषी मुसलमानों द्वारा डा0 पंकज नागर की हत्या पर केजरीवाल उनके परिजनों से मिलकर सांत्वना देनें की भी जरूरत नहीं समझते। ‘खाप’ पंचायतों का समर्थन कर केजरीवाल और उनकी पार्टी नें यह साबित कर दिया था कि वोट राजनीति के लिये वह कुछ भी करने को तैयार हैं।
फरवरी 2015 में पुनः दिल्ली मे ‘आप’ पार्टी की सरकार बनी जिसमे केजरीवाल मुख्यमंत्री बने। लेकिन तथ्य यह बताते हैं कि केजरीवाल सरकार नें आधारभूत परियोजनाओं को पूरा करने में लेट-लतीफी की। उदाहरण के लिये मैट्रो के चैथे चरण की स्वीकृति बहुत देरी से जून 2016 मे दी गई। केन्द्र सरकार ने नई पानी एवं सीवर लाइनें डालने, पुरानी लाइनों का नवीनीकरण करने फीडर लाइने डालने, स्कूलों और समुदाय भवनों के शांैचालयों के पुर्नविकास और नये उद्यान विकसित करनें के लिये 900 करोड़ रू0 की योजनायें 2016-2017 मे दी, लेकिन दिल्ली सरकार ने अभी तक उन पर कोई कार्य आरम्भ नहीं किया है। ये बाते तो अपनी जगह पर हैं बड़ी बात यह कि दूसरे दौर के कार्यकाल मे कई ऐसी बातें देखने में आई जिसे ‘आम आदमी के पार्टी की सरकार कही जाने वाली पार्टी के लिये अप्रत्याषित ही कहा जा सकता है। यह तो सभी को पता है कि भारत सरकार के वित्तमंत्री अरूण जेटली द्वारा अरविन्द केजरीवाल पर मानहानि का मुकदमा दायर किया गया है। अब उस प्रकरण मे केजरीवाल के वकील हैं- देष के सबसे मंहगे वकील राम जेठमलानी। कानूनीं स्थिति यह है कि आपराधिक अभियोजन की कार्यवाही किसी ब्यक्ति के विरूद्ध होती है, संस्था या मुख्यमंत्री के विरूद्ध नहीं। खुद जेठमलानी कह चुके हैं कि यह मामला अरविन्द का ब्यक्तिगत मामला है । लेकिन केजरीवाल ने जेठमलानी को अपने प्रकरण के पैरवी का बिल 3 करोड़ 40 लाख रू0 सरकारी खजाने से देने का प्रयास किया । इसी तरह से फरवरी 2016 में दिल्ली सरकार का एक वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य मे बुलाये गये मेहमानों को पांच सितारा होटल से 13000/- रू0 की एक थाली मगाई गई। इससे समझा जा सकता है कि क्या यह आम आदमीं की सरकार है ? इसी तरह से दिल्ली सरकार का खजाना लुटाते हुये नियमों को दर किनार रखते हुये केजरीवाल ने 97 करोड़ रू0 के विज्ञापन अपने और ‘आप पार्टी’ के प्रचार के लिये छपवाए, जिसकी वसूली के आदेष दिल्ली के मुख्य सचिव को उपराज्यपाल ने दे दिये हैं।
शंगलू कमेटी की रिपोर्ट ने तो केजरीवाल के चेहरे की असलियत पूरी तरह से खोल दी है। इस कमेटी ने 440 फैसलों से जुड़ी फाइलों के जांच की और पाया कि केजरीवाल सरकार ने नियुक्ति, आवंटन, प्रषासनिक प्रक्रिया सम्बंधी नियमों की अनदेखी की। कमेटी ने कहा कि स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन की बेटी सौम्या जैन भी मोहल्ला क्लीनिक परियोजना के ‘‘निर्देषक सलाहकार’’ के पद पर हुई नियुक्ति मे नियमों का पालन नहीं किया गया। निकुंज अग्रवाल जो केजरीवाल के रिष्तेदार हैं को स्वास्थ्य मंत्री का विषेष कार्य अधिकारी नियुक्त करनें से पहले उपराज्यपाल की स्वीकृति नहीं ली गई। राउज एवन्यू में आम आदमीं पार्टी केा बंगले का गलत आवंटन किया गया। स्वाति मालीवाल को महिला आयोग का अध्यक्ष बनाने के पहले ही बंगला एलाट कर दिया गया। दिल्ली सरकार ने 500 ऐसे निर्णय लिये, जिनके बारे में उपराज्यपाल को नहीं बताया गया। इसी तरह से केजरीवाल सरकार ने कई महत्वपूर्ण पदों पर मनमाने ढ़ंग से नियुक्तियां कर दीं और इनमें से कुछ के लिये विज्ञापन भी नहीं दिये गये ।
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की उत्पत्ति अरविन्द केजरीवाल दिल्ली की सत्ता में आकर भ्रष्टाचारियों के कैसे पक्षधर बन गये – इसके लिये बहुत से उदाहरण हैं। 15 दिसम्बर 2016 को केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेन्द्र कुमार के कार्यालय में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते सी.बी.आई. ने छापा मारा था तो यह लोगों के याददाष्त मे होगा कि तब केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी ने कैसा कोहराम मचाया था। यह कह कर हंगामा खड़ा करने का प्रयास किया गया कि यह छापा उनके यानी मुख्यमंत्री के कार्यालय मे डाला गया है। उन्होनें इस बात को लेकर भी घोर आपत्ति उठाई कि उनके प्रधान सचिव के यहां छापा डालने से पहले उनसे पूछा क्यों नहीं गया ? ऐसी स्थिति में बड़ा प्रष्न यह कि क्या यह वही केजरीवाल हैं जो अन्ना आन्दोलन के प्रमुख आधार-स्तम्भ होने के चलते यह कहा करते थे – सी.बी.आई. को भ्रष्टाचारियों के विरूद्ध कार्यवाही करने के लिये पूरी छूट होनी चाहिये। ‘‘इंडिया अगेस्ट करप्सन’’ के कार्यकर्ताओं का कहना था कि उन्होनें राजेन्द्र कुमार के विरूद्ध भ्रष्टाचार के विरूद्ध षिकायतें भेजी थी। पर उस पर कोई कार्यवाही करने के बजाय राजेन्द्र कुमार जैसे दागी को प्रधान सचिव बनाकर वह दिल्ली वासियों को स्वच्छ प्रषासन दे रहे थे। जब राजेन्द्र कुमार को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया तो केजरीवाल की जुबान तो बंद ही हो गई, बाध्य होकर निलम्बित भी करना पड़ा। आम आदमी की पार्टी कही जाने वाली सरकार ने विधायकों की तुष्टीकरण के लिये विधायकों का वेतन सीधे दो लाख दस हजार कर दिया तो अपना वेतन प्रधानमंत्री से भी ज्यादा बढ़ा लिया। शायद इस तरह से वे यह बताना चाह रहे हांे, कि उनका दर्जा प्रधानमंत्री से भी बड़ा है। यह बात अलग है कि केन्द्र सरकार की अनुमति न मिलने से उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। उनकी निर्बाध सत्ताकंाक्षा की स्थिति यह है कि ‘आप’ पार्टी उनकी प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी बन चुकी है, जहां उनके विरूद्ध कोई अंगुली नहीं उठा सकता। इसी निर्बाध सत्ताकांक्षा के चलते ‘आप’ पार्टी के प्रमुख स्तम्भों योगेन्द्र यादव और प्रषान्त भूषण जैसों को वह सिर्फ ‘आप’ पार्टी से तो निकाल ही चुके हैं उनके पिछवाड़े लात मारने को भी कह चुके हैं। केजरीवाल का विचित्र रवैया तब भी सामने आया था, जब 13 मार्च 2015 को 21 विधायकों को उन्होनें संसदीय सचिव बना दिया। अरे ये तो अपने ही-हैं खाऊं-कमाऊ नीति बनाना इनके लिये उचित ही है। अब लाभ के पद पर होनें के चलते इन 21 विधायकों को आयोग्य घोषित किये जाने का मामला चुनाव आयोग के पास लंबित है। निकट भविष्य में इन 21 विधायकों को आयोग्य घोषित किया जाता है तो उम्मीद है कि पुर्ननिर्वाचन में उनके अधिकांष विधायक हारेंगे। ऐसी स्थिति में केजरीवाल सरकार आने वाले समय मे सड़कों पर खड़ी दिखाई दे तो कोई आष्चर्य नहीं होना चाहिये। केजरीवाल आये दिन यही दुहाई देते रहे कि वह जनता द्वारा निर्वाचित सरकार हैं, पर केन्द्र सरकार उन्हें काम नहीं करनें दे रही है। पर आधा सच झूंठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है। पहली बात कोई भी निर्वाचित सरकार संविधान की सीमाओं में ही काम कर सकती है, फिर दिल्ली तो वैसे भी केन्द्र शासित प्रदेष है। पूर्व में शीला दीक्षित सरकार केन्द्र मेे एन.डी.ए. सरकार के दौर में भी बिना किसी षिकवा – षिकायत के काम करती रही। पर केजरीवाल को कुछ भी करने की छूट चाहिये । तभी तो उन्होनें पंजाब में मुख्यमंत्री का कोई चेहरा नहीं घोषित किया , ताकि आप पार्टी को बहुमत मिलने पर स्वतः पंजाब के मुख्यमंत्री बन सकंे और ‘‘खुला खेल फरूरूखावादी’’ को सार्थक कर सके। पारदर्शिता और जबावदेही को लेकर जन आन्दोलन खड़ा करने वाले केजरीवाल दिल्ली एम.सी.डी. चुनाव में मतदाताओं को यह कहकर भयादोहन का प्रयास करते हैं कि यदि दिल्ली में डेंगू फैला तो उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी।
यह भी सभी को पता है कि ईमानदारी का दम भरने वाले और साफ सुथरी सरकार देने का दावा करने वाले केजरीवाल के कई विधायकों पर तरह-तरह के आरोप हैं। कुछ पर महिलाओं से छेंड़छांड़ का तो किसी पर फर्जी डिग्री का । उनके विधायक गिरफ्तार भी हुये और उन पर आपराधिक मुकदमें भी चल रहे हैं। ‘आप’ पार्टी की प्रवक्ता अलका लांबा नें स्वतः स्वीकार किया है कि गोपाल राय घोटाले के चलते परिवहन मंत्री के पद से हटाये गये। स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन हवाला घोटाला के आरोपी हैं, फिर भी केजरीवाल उन्हें मंत्री बनाये हुये हैं। हकीकत यह है कि ‘आप’ पार्टी के 12 विधायक अब तक विभिन्न आपराधिक गतिविधियों के चलते गिरफ्तार हो चुके हैं। जुलाई 2016 मे ‘आप’ पार्टी की एक महिला कार्यकर्ता को यौन – प्रताड़ना के चलते आत्महत्या को बाध्य होना पड़ा। जिससे ‘आप’ पार्टी के विधायक शरद चैहान एवं 7 अन्य लोगों को गिरफ्तार किया गया। हद तो यह हुई कि ‘‘आप’’ पार्टी के नेता संजय सिंह और दुर्गेष पाठक पर पंजाब विधानसभा चुनाव में रूपये लेने से लेकर महिलाओं के यौन शोषण तक के आरोप लगे। पर उन्हें पंजाब इकाई के बगावती धमकी के चलते एम.सी.डी. चुनावों के बाद अपनें पदों से हटाया गया। वस्तुतः नई किस्म की राजनीति का दावा करने वाले केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा के चुनाव मे अधिकांष ऐसे लोगों को टिकट दिया जिनकी छवि भ्रष्ट एवं पृष्ठभूमि .आपराधिक थी। इस तरह से ‘आप’ पार्टी को स्वार्थी एवं आपराधिक तत्वों का जमावड़ा कहा जाये तो कोई अयुक्ति न होगी।
यह बात तो सभी को पता है कि 2011 मे अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार दूर करनें के लिये केन्द्र मे निष्पक्ष एवं शक्तिषाली जन लोकपाल तथा राज्यों में इसी तरह लोकायुक्त गठन करने की माग की थी। यह भी लोगों को पता है कि अरविन्द केजरीवाल इस आन्दोलन के प्रमुख सेनानीं थे। परन्तु गौर करने का विषय यह है कि दिल्ली का मुख्यमंत्री बनकर उन्होनें इस दिषा में क्या किया ? पहली बार मुख्यमंत्री बनने पर उन्होनें कहा कि उनका जनलोकपाल दिल्ली के रामलीला मैदान में आम जनता द्वारा बनाया जायेगा। अब जरा केजरीवाल की चालबाजी दंेखे – लोकपाल तो केन्द्र के लिये था, राज्यों में लोकायुक्त का प्रावधान है। फिर यदि आम जनता स्वतः सब कुछ कर लेती तो केजरीवाल जैसे नेताओं की क्या जरूरत थी ? इसी बहाने कि केन्द्र सरकार उन्हें जन लोकपाल नहीं बनाने दे रही है। इस आधार पर त्याग-मूर्ति का वाना पहन कर उन्होनें दिल्ली सरकार का त्यागपत्र देते हुये लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री बनने के लिये निकल पड़े। पर मात्र पंजाब में 4 सीटें पाकर रह गये। दुवारा दिल्ली की सत्ता मे आने पर ऐसा जन लोकपाल (लोकायुक्त नहीं) बनाने का नाटक किया जो केन्द्रीय अधिकारियों, सांसदों, केन्द्रीय मंत्रियों और प्रधानमंत्री की भी जांच करता ऐसा संविधान – विरोधी लोकपाल बनने का सवाल ही नहीं पैदा होता। पर केजरीवाल की यही तो चाल थी कि कोई ऐसी सक्षम एजेंसी न बन सके जो उनकी, उनके मंत्रियों, विधायकों और अधिकारियों की निष्पक्ष जांच कर सकती क्योंकि केजरीवाल तो ठहरे अराजकतावादी अर्थात मनमर्जी से काम करने वाले। फिर नियम-कानून और ईमानदारी से काम हो रहा है यह देखने के लिये सषक्त लोकायुक्त संस्था का गठन कर भला वह अपनें पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारते ? इन सबसे यह साबित है कि केजरीवाल का चरित्र किस हद तक दुहरा है। यानीं उनकी कथनी और करनी में कितना बड़ा अन्तर है? ऐसी स्थिति में यदि उन्हें राजनीतिक महाठग कहा जाये तो कोई गलत न होगा।
यह बात अलग है कि केजरीवाल अपनीं कमियां छिपानें के लिये और अपने को मोदी का समकक्ष साबित करनें के लिये प्रधानमंत्री मोदी को बराबर निषानें में लेते रहे , उनके लिये मनोरोगी तथा गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल करते रहे । संभवतः उन्हें गोयबल्स के इस कथन पर भरोसा था कि झूंठ को 100 बार दुहरानें से वह सच में बदल जाता है। यद्यपि एम.सी.डी. चुनावों के पूर्व उन्हें यह समझ में आया कि मोदी तो देष मे महानायक हो चुके हैं, और उनके लिये इस तरह की भाषा का इस्तेमाल कहीं -न -कहीं अपनीं ही थुक्का – फजीहत करा रहे हैं। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कहा गया है कि बुद्धिमान दूसरे के अनुभव से सीख लेता है, और मूर्ख अपनें अनुभव से। ऐसी स्थिति में केजरीवाल अपने को चाहे जितना चतुर – सुजान समझंे, पर वह क्या हैं यह समझा जा सकता है, । ‘‘यह पब्लिक है, सब जानती है’’ के अनुसार सर्व प्रथम मार्च माह में राजौरी गार्डन विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में उनके पार्टी का प्रत्यासी की जमानत जप्त हुई, और अब दिल्ली महानगरपालिका में भाजपा को 181 सीटें देकर और उन्हें मात्र 48 सीटें देकर यह साबित हो गया है कि केजरीवाल पूरी तरह से बेनकाब हो चले हैं । उनके लिये ‘‘पुर्नमुषको भव’’ की स्थिति चरितार्थ हो रही है । भले केजरीवाल और उनकी पार्टी अपनी इस बुरी पराजय के लिये ई.व्ही.एम. को दोषी ठहरायें जैसा कि वह पंजाब और गोवा विधानसभा के चुनावों में भी बुरी पराजय के लिये ई.व्ही.एम. से छेंड़-छांड़ बता चुके हैं। पर केजरीवाल के पास इस बात का क्या जबाव है कि 2015 में दिल्ली विधानसभा में उन्हें 70 में से 67 सीटें मिली थीं तब ई.व्ही.एम. से छेड़-छांड़ क्यों नहीं हुई। जैसा कि स्वराज पार्टी के योगेन्द्र यादव का कहना है-ई.वी.एम. से लोकतंत्र को खतरा नहीं है, बल्कि ई.वी.एम. पर सवाल उठाना लोकतंत्र के लिये खतरा जरूर है।
वस्तुतः उनकी तुलना हंगेरियन उपन्यासकार डी. सर्वजीत के उपन्यास के नायक डान क्विकजोट से की जा सकती है। डान क्विकजोट अपने को दुनिया का महायोद्धा समझता था, और तलवार लेकर घोड़े पर बैठकर विष्व-विजय के लिये निकल पड़ा था और अपनीं हरकतों के चलते बुरी तरह घायल होकर घोड़े से गिर पड़ा था। विष्व तो नहीं पर भारत विजय की आकांक्षा लेकर केजरीवाल कुछ औंधे मुंह ही गिरे हैं। चीन में एक कहावत है कि- ‘‘वह शेरों की तरह दहाड़ते हुये आये और सांपों की तरह पूंछ हिलाते चले गये’’ केजरीवाल और उनकी पार्टी की भी कुछ यही स्थिति है। अब सुनने में आ रहा है कि ‘आप’ पार्टी के 25 विधायक बगावत करनें को तैयार है तभी तो केजरीवाल को भगवान याद आनें लगे हैं। पर केजरीवाल जैसे लोगों की समझ में अब तो आ गया होगा – ‘‘बोये पेड़ बबूल के आम कहां से होय’’। सर्वेष्वर दयाल सक्सेना के शब्दों में एक क्रान्ति – यात्रा, शव-यात्रा में बदल रही है। अब भले केजरीवाल अपनी गलती मानकर आत्मनिरीक्षण की बात कह रहे हों। पर कुल मिलाकर केजरीवाल और ‘‘आप’’ पार्टी के लिये यही कथन उपयुक्त है। ‘‘ नायक नहीं खलनायक हूं मैं ’’

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