बिहार विद्यापीठ : मर रहे हैं गांधी के सपने

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कुमार कृष्णन

गांधी के विचारों और सपनों को अब तक आई सभी सरकारों ने अपने लिए भुनाया है, मगर उनके सपनों के भारत को वे पीछे छोड़ते चले गए। यह कहना है सर्व सेवा संघ के प्रकाशन के संयोजक रहे और युवा संवाद अभियान के राष्ट्रीय युवा संवाद अभियान के राष्टीय संयोजक अशोक भारत का। यदि हम हालात का विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि उनकी बातों में दम है। यदि यह सही न होता तो बिहार विद्यापीठ यानी गांधी के सपनों का विद्यापीठ, मजहरुल हक की त्याग भूमि, डॉ.राजेंद्र प्रसाद की कर्म भूमि, आजादी के दीवानों की चिंतन भूमि और केंद्र भूमि की यह स्थिति न होती। तभी तो लोकगायिका चंदन तिवारी गा रही है—’ का बतलाई कहै सुनै में शरम लगत हौ गान्ही जी, आजादी के माने खाली राजघाट जाना हअुवे साल भरै में एक बार रघुपति राघव गाना।’

जी हां हम बात करतें हैं उस बिहार विद्यापीठ की जिसकी स्थापना महात्मा गांधी ने की थी।बिहार विद्यापीठ एक पूरा इतिहास समेटे हुए है।जब अंग्रेजों के खिलाफ उन्होंने असहयोग आंदोलन (1920-22) छेड़ा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था का विरोध किया, तो उनके आह्वान पर छात्रों ने स्कूल- कॉलेज का बहिष्कार कर दिया। इन छात्रों को भारतीय पद्धति में शिक्षा दिलाने के लिए उन्होंने देश में तीन विद्यापीठ की स्थापना की- काशी विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ और बिहार विद्यापीठ। काशी विद्यापीठ और गुजरात विद्यापीठ तो आज भी बेहतरीन शिक्षा के गढ़ बने हुए हैं। लेकिन बिहार विद्यापीठ सिर्फ नाम का रह गया है। शुरू में इसे भी विश्वविद्यालय के रूप में आगे बढ़ाया गया।स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बिहार विद्यापीठ में रुकते थे।

महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन का शुभारंभ 1 अगस्त 1920 को स्वराज की माँग को लेकर किया गया। इसका उद्देश्य सरकार के साथ सहयोग न करके कार्यवाही में बाधा उपस्थित करना था।असहयोग आन्दोलन  की शुरुवात 1920 में कलकत्ता अधिवेशन से हुई थी। आन्दोलन के उद्देश्य के सम्बंध में गाँधी जी ने कहा था कि, हमारा उद्देश्य है स्वराज्य। यदि संभव हो, तो ब्रिटिश साम्राज्य के अंर्तगत और यदि आवश्यक हो, तो ब्रिटिश साम्राज्य के बाहर।असहयोग आन्दोलन का प्रमुख उद्देश्य था, ब्रिटिश भारत की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक संस्थाओं का बहिष्कार करना और शासन की मशीनरी को बिलकुल ठप्प करना।

जब गांधीजी को महसूस हुआ कि भारतीय संस्कृति और आवश्यकताओं के आधार पर शिक्षा देने के लिए विद्यापीठ की जरूरत है। राजधानी में बिहार विद्यापीठ की स्थापना 1921 में महात्मा गांधी ने की थी। इसके लिए महात्मा गांधी ने झरिया के गुजराती व्यवसायी से चंदा लिया और दो महिलाओं ने अपना सारा गहना दे दिया था। वहां से चंदा का 66 हजार रुपये लेकर पटना आये थे। उस दौर में काशी विद्यापीठ की स्थापना के पहले 6 फरवरी 1921 को स्वतंत्रता सेनानी ब्रजकिशोर प्रसाद , मौलाना मजहरुल हक, प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और महात्मा गांधी ने मिलकर बिहार विद्यापीठ की स्थापना की। 6 फरवरी 1921 को उद्घाटन के मौके पर महात्मा गांधी कस्तूरबा गांधी और मोहम्मद अली के साथ पटना पहुंचे और विद्यापीठ का विधिवत उद्घाटन किया।दरअसल में  चंपारण सत्याग्रह के पहले ही बिहार विद्यापीठ की नींव पड़ गई थी। बिहार विद्यापीठ बनाने के लिए साल 1916 में ब्रजकिशोर प्रसाद ने विधान परिषद में आवाज उठायी थी।10 अप्रैल 1917 को चंपारण सत्याग्रह की शुरुआत हुई थी।

महात्मा गांधी ने मौलाना मजहरूल हक को बिहार विद्यापीठ के प्रथम कुलपति बनाया और ब्रज किशोर प्रसाद को उप-कुलपति और इससे संबद्ध राष्ट्रीय कॉलेज के प्रिंसिपल बने थे डॉ राजेंद्र प्रसाद। ​जिस जमीन पर बिहार विद्यापीठ आबाद है वह मौलाना मज़हरूल हक़ ने दी ।मौलाना मजहरूल हक ने सदाकत आश्रम की स्थापना की थी और यहीं के अतिरिक्त बने नए भवन में बिहार विद्यापीठ खुला। उनकी कोशिशों के बदौलत एक ज़माने में यह विद्यापीठ तालीम का मशहूर केन्द्र बनकर उभरा था, मगर प्रशासन की लापरवाही और उपेक्षा ने यहां की तस्वीर ही बदल डाली है। इस विद्यापीठ में जो पाठ्यक्रम अपनाया गया वो अंग्रेज़ों द्वारा विश्वविद्यालयों में अपनाई गई नीतियों से काफी अलग था। इस नई पद्धति में यह व्यवस्था की गई थी कि छात्रों की शैक्षिक योग्यता तो बढ़े ही, साथ ही उनमें बहुमुखी प्रतिभा का भी विकास हो, उनमें श्रम की आदत भी पड़े, उन्हें कोई काम छोटा या बड़ा न लगे। उनके अंदर सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध भावना जगे ताकि वे सुव्यवस्थित नए समाज की बुनियाद बन सकें।

महात्मा गांधी मज़हरूल हक़ के लिए ये शब्द उनके देहावसान पर संवेदना के रूप में 9 जनवरी, 1930 को यंग इन्डिया में लिखा था।गांधी के शब्दों में –‘मज़हरूल हक़ एक निष्ठावान देशभक्त, अच्छे मुसलमान और दार्शनिक थे. बड़े ऐश व आराम की ज़िन्दगी बिताते थे, पर जब असहयोग का अवसर आया तो पुराने किंचली की तरह सब आडम्बरों का त्याग कर दिया। राजकुमारों जैसी ठाट-बाट वाली ज़िन्दगी को छोड़ अब एक सूफ़ी दरवेश की ज़िन्दगी गुज़ारने लगे… वह अपनी कथनी और करनी में निडर और निष्कपट थे, बेबाक थे। पटना के नज़दीक सदाक़त आश्रम उनकी निष्ठा, सेवा और करमठता का ही नतीजा है। अपनी इच्छा के अनुसार ज़्यादा दिन वह वहां नहीं रहे, उनके आश्रम की कल्पना ने विद्यापीठ के लिए एक स्थान उपलब्ध करा दिया। उनकी यह कोशिश दोनों समुदाय को एकता के सुत्र में बांधने वाली सिमेंट सिद्ध होगा। ऐसे कर्मठ व्यक्ति का अभाव हमेशा खटकेगा और ख़ास तौर पर आज जबकि देश अपने एक ऐतिहासिक मोड़ पर है, उनकी कमी का शिद्दत से अहसास होगा।’

आज यह संस्थान अपनी दुर्दशा पर रो रहा है। न शिक्षक हैं, न छात्र हैं, फिर भी चल रहा है विद्यापीठ।बिहार विद्यापीठ की हालत खराब है।  न शिक्षक हैं, न छात्र हैं। गांधी के स्वावलंवन के सारे सपने ध्वस्त हो गए। एक समय में गांधी ने खादी और चरखे का संस्थागत आंदोलन आरंभ किया था। आज यहां करघा कबाड़ में चला गया है। तेल-घानी कमरे में कैद है। खंडहरनुमा पुराने भवन हैं। और बाकी गांधीजी की यादें हैं। राजेंद्र बाबू की थाती है और सरकारी उपेक्षाओं की कहानी है। जबकि लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसे कई महापुरुषों ने इसी बिहार विद्यापीठ में शिक्षा हासिल की

मार्च 1921 तक करीब 500 असहयोगी छात्रों ने बिहार विद्यापीठ के अधीन परीक्षा देने के लिए नामांकन कराया था और 20-25 हजार छात्र बिहार विद्यापीठ से संबद्ध संस्थाओं में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। लेकिन आज विश्वविद्यालयी पढ़ाई के नाम पर यहां कुछ भी नहीं है। न शिक्षक, न छात्र और न कक्षाएं। दीवारों पर बस बिहार विद्यापीठ लिखा हुआ दिख रहा है, बाकी कुछ नहीं।इस बार राज्य सरकार ने शिक्षा विभाग को चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह का नोडल विभाग बनाया है। चंपारण सत्याग्रह का शोर तो बहुत है। सरजमीनी स्तर पर जो काम किए जाने चाहिए उस दिशा में ठोस पहल का अभाव है।

विद्यापीठ से जुड़े लोग कहते हैं कि जब तक राजेंद्र बाबू बिहार विद्यापीठ से जुड़े रहे, इसकी स्थिति ठीक रही। जब अंतरिम सरकार (1946) में बतौर खाद्य व कृषि मंत्री बन कर वे दिल्ली चले गए, तब से इसकी स्थिति डगमगाने लगी। इसके बाद फिर कभी इसकी स्थिति सुधरी नहीं। बिहार विद्यापीठ की मंत्री और राजेंद्र बाबू की पोती तारा सिन्हा कहती हैं कि राजेंद्र बाबू के दिल्ली जाने के बाद जो यहां शिथिलता आयी वह बढ़ती ही गई। धीरे-धीरे छात्र कम होते गए, पाठ्यक्रम बंद होते गए और आज यह स्थिति आ गई है। लेकिन हमलोग फिर से प्रयास कर रहे हैं।

यहीं से महेन्द्रू से नाव पर चढ़कर चंपारण या अन्य क्षेत्र में जाते थे। विद्यापीठ के संग्रहालय में बापू और राजेन्द्र बाबू से जुड़ी कई स्मृतियां सुरक्षित हैं।चबूतरे पर बैठ देते थे डिग्रीबिहार विद्यापीठ में आज भी वह चबूतरा है। जिस पर बैठकर बापू बिहार विद्यापीठ से शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों को डिग्री बांटते थे। चबूतरे के बगल में चारों स्वत्रंतता सेनानी मिलकर झंडोत्तोलन करते थे।आज भी वह स्तंभ वैसे ही खड़ा है। बापू द्वारा बनाया गया बुनियादी विद्यालय है, लेकिन जर्जर हालत में।

विद्यापीठ के सचिव डॉ. राणा अवधेश सिंह कहते हैं कि केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति भवन की अनुशंसा पर बिहार विद्यापीठ को 2009-10 में 10 करोड़ की राशि दी थी।  वही राशि आज आधार बनी हुई है। उससे जो सूद आता है उससे विद्यापीठ का काम चल रहा है। केंद्र सरकार के अलावा कहीं से कोई अनुदान नहीं मिला। बिना पैसे के कोई काम कैसे आगे बढ़ सकता है। हालांकि जल्द ही हमलोग बीएड कोर्स शुरू करवाने जा रहे हैं। इसके लिए 2014 में  का भवन बन कर तैयार हो गया। कोर्स की संबद्धता को लेकर प्रक्रिया चल रही है। इसके अलावा रोजगारपरक शिक्षा को लेकर भी हमलोगों की योजना है। जल्द ही इस दिशा में भी काम तेजी से होगी।

सरकारी उपेक्षाओं का दंश झेल रहे बिहार विद्यापीठ के पास आमदनी का कोई खास जरिया नहीं है। 35 एकड़ में फैले विद्यापीठ में करीब दो-ढाई सौ आम के पेड़ हैं। ये आम के पेड़ विद्यापीठ की आमदनी का जरिया है। हर साल दीघा मालदह के इन बगीचों की निलामी होती है और इससे जो राशि मिलती है, उससे विद्यापीठ के कर्मचारियों का वेतन और मेंटनेंस कार्य होता है। इस साल भी 4 लाख 51 हजार में निलामी हुई है। इसके अलावा विद्यापीठ अपने कुछ कमरों को किराये पर भी लगाया है जिससे कुछ राशि मिलती हैं।

विद्यापीठ के पास कुल 35 एकड़ जमीन है और भू-माफियाओं की नजर इस जमीन पर है। जमीन को लेकर कई बार विवाद हो चुके हैं। भूमि हथियाने के विवाद में कई बड़े नाम सामने आए। अभी भी जमीन का विवाद चल रहा है। दूसरी तरफ विद्यापीठ प्रबंधन के ढुलमुल रवैये से स्थिति खराब होती जा रही है। करीब 60 परिवार विद्यापीठ कैंपस में रहता है। लेकिन इनमें से करीब 60 फीसदी लोग अवैध तरीके से रह रहे हैं। लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। कुछ लोग तो अवैध तरीके से कई कमरों को अपने कब्जे में रखे हुए हैं। लेकिन प्रबंधन चुप्पी साधे हुए है।किराया देकर कैंपस में रहनेवाले कुछ लोगों का कहना है कि प्रबंधन को सिर्फ बगीचों की निलामी और किराया से मतलब रह गया है। न मेंटनेंस कराते हैं न कुछ और। बाढ़ के समय में बेड तक डूब गए मगर विद्यापीठ प्रबंधन हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। लगभग सारे मकान जर्जर हो गए हैं,किसी भी दिन बड़ा हादसा हो सकता है, लेकिन इस ओर ध्यान नहीं है।

विधानपरिषद के सभापति अवधेश नारायण सिंह ने पटना स्थित बिहार विद्यापीठ की 32 एकड़ जमीन को कुछ लोगों द्वारा फर्जी तरीके से बेच देने और जालसाजी कर दाखिल खारिज करा लेने से संबंधित मामले की जांच के लिए विशेष समिति का पुनर्गठन किया है। जदयू के राजकिशोर सिंह कुशवाहा समिति के अध्यक्ष और केदारनाथ पांडेय और डाॅ. राम वचन राय सदस्य बनाए गए हैं। प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय सदाकत आश्रम के समीपस्थ विद्यापीठ की जमीन को फर्जी तरीके बेचने और इसका दाखिल खारिज कराने का मामला परिषद में गूंजने पर कांग्रेस के अशोक चौधरी की अध्यक्षता में विशेष जांच समिति बनी थी। परिषद सभापति के कक्ष में समिति की बैठक भी हुई। जांच की कार्रवाई आगे बढ़ने के पहले अशोक चौधरी शिक्षामंत्री बन गए और अन्य कई सदस्यों का कार्यकाल पूरा हो गया था।

बिहार विद्यापीठ से जुड़े अजय आनन्द बताते हैं कि –‘बिहार विद्यापीठ ट्रस्ट के तहत वर्तमान में ‘देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय’ व ‘गांधी कम्प्यूटर शिक्षा एवं प्रसारण तकनीकी संस्थान’ चलाया जा रहा है। इसके अलावा इस  ट्रस्ट के तहत राजेन्द्र स्मृति संग्रहालय, ब्रजकिशोर स्मारक प्रतिष्ठान और मौलाना मज़हरूल हक़ स्मारक पुस्तकालय चलाया जा रहा है।’

राज्यपाल रामनाथ कोविंद ने कहा कि बिहार विद्यापीठ चंपारण सत्याग्रह का एक प्रतिफल रहा है। चंपारण सत्याग्रह के क्रम में ही चंपारण आने–जाने के दौरान बिहार में अशिक्षा की समाप्ति का अभियान और 1920 में ई. में सविनय अवज्ञा आंदोलन के फलस्वरूप महात्मा गांधी के आह्वान पर सरकारी शिक्षण संस्थानों को छोड़ चुके छात्रों के शिक्षा के लिए महात्मा गांधी ने 1921 में मौलाना मजरूल हक, ब्रजकिशोर प्रसाद, देशरत्न डॉ राजेंद्र प्रसाद आदि नेताओं के सहयोग से बिहार विद्यापीठ की स्थापना की।

राज्यपाल रामनाथ कोविंद ने बिहार विद्यापीठ को राज्य का ऐतिहासिक स्थान बताते हुए इसे तीर्थस्थल बनाने की सलाह दी थी।उनका स्पष्ट तौर पर कहना था कि –‘प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद बारह सालों तक राष्ट्रपति भवन में रहने के बाद यहां दो कमरे की कुटिया में आकर रहे। यहां राष्ट्रपिता गांधी जी भी आ चुके हैं। इसलिए विद्यापीठ को तीर्थ-स्थल बनाना चाहिए, ताकि यहां आकर लोग ज्यादा से ज्यादा महापुरुषों के बारे में जानकारी ले सकें।’पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग से बिहार विद्यापीठ पर शोध कर रहे संजीव कुमार का कहना है कि –‘जहां तरफ़ गुजरात और काशी विद्यापीठ एक विश्वविद्यालय के रूप में काम कर रहे हैं, वहीं बिहार विद्यापीठ अपने प्रांरभिक स्वरूप को भी खो चुका है।’

आज जब पूरे देश में गांधी के चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी मनायी जा रही है। उस हाल में देशरत्‍न डॉ राजेंद्र प्रसाद, मौलाना मजरूल हक और ब्रजकिशोर प्रसाद आदि नेताओं के सहयोग से सन् 1921 में महात्मा गांधी द्वारा स्थापित बिहार विद्यापीठ को पुनः जीवित करने की फिर से एक उम्मीद जगी है। चम्पारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह के क्रम में आयोजित कार्यक्रम में बिहार विद्यापीठ पहुंचे राज्यपाल रामनाथ कोविंद ने इसे गांधी जी के सपने के मुताबिक विश्वविद्यालय बनाने की दिशा में काम करने की बात कही है। उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से यह भी माना कि ऐतिहासिक बिहार विद्यापीठ की सरकारी तौर पर अनदेखी की गई है. इस संबंध में कोविंद ने कहा कि इसका विकास अपेक्षित रूप से नहीं हो पाया। उनके मुताबिक गुजरात विद्यापीठ हो या बिहार विद्यापीठ, गांधी जी ने विद्यापीठ का चलन शुरु किया था। उन्होंने कहा कि गांधी जी ने जिस तरह से विद्यापीठ को बनाना चाहा था हम सब उसी दिशा में काम करेंगे। उन्होंने विद्यापीठ के अध्यक्ष विजय प्रकाश को सलाह दी कि वह विद्यापीठ को विश्वविद्यालय बनाने के संबंध में एक ज्ञापन दे। राज्यपाल ने कहा कि वह इस बात को मुख्यमंत्री के संज्ञान में लाएंगे और उन्हें पीठ से जुड़े लोगों की भावनाओं से अवगत कराएंगे।

बिहार विद्यापीठ के अध्‍यक्ष विजय प्रकाश ने कहा  कि महात्‍मा गांधी के सपनों के अनुसार, बिहार विद्यापीठ बहुविध व्‍यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने जा रही है। बी एड प्रशिक्षण का प्रारंभ इसी सत्र से शुरू किया जा रहा है।गांघीवादी रजी अहमद भी इसके जीर्णोद्धार की बात कहते हैं।

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