ईश्वरोपासना व ईश्वरपूजा की सही वैदिक विधि

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मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य कोई भी काम करे, यदि वह उसे सही विधि से करता है तो अच्छे परिणाम सामने आते हैं और यदि विधि में कहीं त्रुटि वा न्यून ता रह जाती है तो अच्छे परिणाम नहीं आते। संसार में तीन सत्तायें ईश्वर, जीव व प्रकृति हैं। ईश्वर वह है जिसने अपनी शाश्वत प्रजा जीवात्माओं के लिए यह संसार बनाया है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, नित्य, अमर, सृष्टिकर्ता आदि स्वरूप वाला है। सृष्टि की रचना, उसका पालन व प्रलय करना उसका स्वाभाविक कर्म वा कार्य है। किसी का जो स्वभाव होता है वह उस कर्म को करता ही है। उसमें जो गुण होता है उसका भी अनेक प्रकार से प्रकाश होता ही है। जड़ पदार्थों के भी अपने अपने गुण, कर्म व स्वभाव होते हैं जिसका पालन व धारण वह हर स्थिति में करते हैं। इन्हीं को प्राकृतिक नियम भी कह दिया जाता है। अग्नि का गुण व धर्म अर्थात् स्वभाव जलाना, प्रकाश देना व गर्मी देना है। वह हमेशा ऊपर की ओर ही जाती है। जल का स्वभाव व गुण शीतलता प्रदान करना होता है। अग्नि के सम्पर्क में आने पर इसमें गर्मी का प्रवेश हो जाता है जिससे इसमें उष्णता आ जाती है। वायु का गुण स्पर्श है। वायु में जलीय कणों में जो शीतलता व अग्नि के प्रभाव से उष्णता होती है, उसका अनुभव वायु के स्पर्श गुण व स्वभाव से मनुष्यों व अन्य प्राणियों को होता है। अतः ईश्वर भी अपने गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार अनादि काल से सृष्टि की रचना, उसका पालन व प्रलय करता चला आ रहा है और अनन्त काल तक ऐसा करता रहेगा, इसमें सन्देह की गुंजाइश नहीं है।

 

हम जीवात्मा हैं और हमारा शरीर हमारे उद्देश्यों की पूर्ति में साधन रूप में कार्य करता है। हमें भोजन करना है तो हमें हाथों व मुंह आदि अवयवों व शरीर के कुछ अन्य बाह्य व भीतरी अंगों व अवयवों द्वारा उस क्रिया को सम्पन्न करना होता है। कहीं जाना है तो हमें अपने पैरों व चरणों की सहायता से उस क्रिया व कार्य को अंजाम देना होता है। हम अध्ययन कर रहे हैं ंतो हमे अपने मन को उसमें लगाकर नेत्रों व बुद्धि आदि की सहायता से उसे समझना व हृदंगम करना होता है। हमारा जीवात्मा चेतन तत्व वा पदार्थ है। यह जीवात्मा अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अजर, अमर, अविनाशी, एकदेशी, ससीम, कर्म-फल के बन्धनों में बंधा हुआ, जन्म, पूर्वजन्म व पुनर्जन्म में आता-जाता रहता है। आत्मा का एक मुख्य गुण व स्वभाव इसके एकदेशी, ससीम व जन्म व मरण के कारण अल्पज्ञता का है। यह अल्प ज्ञान ही रखता है। उसकी सामर्थ्य ईश्वर के समान समस्त गुण, कर्म व स्वभाव को धारण करने व उन्हें सम्पन्न करने की नहीं है। ईश्वर सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान होने से इस सृष्टि की रचना करता है परन्तु जीवात्मा सृष्टि की रचना नहीं कर सकता। जीवात्मा अपनी सामथ्र्य के अनुसार अनेक कार्यों को सम्पादित करता है जिन्हें पौरूषेय कार्य कहा जाता है। ऐसे ही पौरूषेय कार्य में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना भी होता है। यही ईश्वर की वास्तविक पूजा कहलाती व होती है। ईश्वर चेतन पदार्थ है और जीवात्मा भी। चेतन में मुख्य विशेष गुण ज्ञान व कर्म का होता है। ईश्वर सर्वज्ञ है और जीवात्मा अल्पज्ञ। ईश्वर सर्वशक्तिमान है और जीवात्मा अल्पशक्ति वाला है। अतः जीवात्मा को ईश्वर से ज्ञान व शक्ति की आवश्यकता होती है। इसी की पूर्ति के लिए जीवात्मा वा मनुष्य को ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की आवश्यकता मुख्यरूप से होती है। ईश्वर से ज्ञान शक्ति आदि की आवश्यकताओं की पूर्ति किस प्रकार होती है, इसका उत्तर है संगतिकरण द्वारा। मनुष्य माता, पिता, आचार्य आदि से जो ज्ञान व शक्तियां प्राप्त करता है वह भी संगतिकरण के द्वारा ही करता है। संगति में एक गुण ध्यान भी सम्मिलित है। जीवात्मा को माता-पिता व आचार्य आदि की बातों व निर्देशों को ध्यान पूर्वक ग्रहण करना पड़ता है, आवश्यकता होने पर शंका-समाधान भी करना पड़ता है जिससे माता-पिता व आचार्य द्वारा कही गई बातों किंवा ज्ञान को वह प्राप्त हो जाता है। ईश्वर से ज्ञान व शक्तियों की प्राप्ति के लिए भी उसे आसन लगाकर बैठकर उसके स्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव का ध्यान करना होता है। ध्यान करते हुए वह ईश्वर की स्तुति सहित उससे प्रार्थनायें भी करता है। स्तुति करने से ईश्वर के प्रति प्रेम वा प्रीति हो जाती है। वह दोनों परस्पर मित्र बन जाते हैं। अब जीवात्मा जो प्रार्थना व मांग करता है उसे ईश्वर पूरी करता है। यहां यह ध्यान रखना चाहिये कि ईश्वर व जीवात्मा का व्यापक-व्याप्य संबंध है अर्थात् ईश्वर सर्वव्यापक व सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने से जीवात्मा के भीतर व बाहर उपस्थित, विद्यमान व व्यापक है। ईश्वर की आंख नहीं परन्तु वह देखता है, पैर नहीं परन्तु वह चलता है, हाथ नहीं परन्तु वह हाथ से होने वाले सभी कामों को करता है, कर्ण नहीं परन्तु सब कुछ सुनता है। इसी प्रकार ईश्वर जीवात्मा व उपासक के मनोभावों को जानता व उसकी प्रार्थनाओं को भलीभांति सुनता है। हम जो विचार करते हैं, हमारे जो भाव होते हैं ईश्वर उन्हें सुनता व पूर्णतः जानता है। ऐसा करके हम ईश्वर से उन उत्तम पदार्थों को प्राप्त करने में सफल होते हैं जो केवल ईश्वर ही प्रदान कर सकता है। शर्त यही है कि हमारी प्रार्थना नियमों के अनुसार हों, उसमें अविद्या न हो, प्रार्थना के अनुरूप हमारे कर्म हों, हममें पात्रता हो आदि आदि।

 

महर्षि दयानन्द जी ने स्तुति, प्रार्थना व उपासना के आठ मन्त्रों का विधान कर उनका पदार्थ वा भावार्थ भी दिया है। हम प्रथम दो मन्त्रों को प्रस्तुत कर उनका अर्थ दे रहे हैं। प्रथम मन्त्रः ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद्भद्रं तन्न आ सुव।।1।। द्वितीय मन्त्रः ओ३म् हिरण्यगर्भः समवत्र्तताग्रे भूतस्यं जातः पतिरेकं आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।2।। इन दोनों मन्त्रों के अर्थः हे (सवितः) सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, (देव) शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके (नः) हमारे (विश्वानि) सम्पूर्ण (दुरितानि) दुर्गुण, दुव्र्ससन और दुःखों को (परा सुव) दूर कर दीजिए, (यत्) जो (भद्रम्) कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, (तत्) वह सब हमको (आ सुव) प्राप्त कीजिए (दीजिए व प्राप्त कराईये)।।1।। जो (हिरण्यगर्भः) स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करने हारे सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो (भूतस्य) उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का (जातः) प्रसिद्ध (पतिः) स्वामी (एकः) एक ही चेतनस्वरूप (आसीत्) था, जो (अग्रे) सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व (समवर्तत) वर्तमान था, (सः) वह (इमाम्) इस (प्रथिवीम्) भूमि (उत्) और (द्याम्) सूर्यादि को (दाधार) धारण कर रहा है, हम लोग उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) शुद्ध परमात्मा के लिए (हविषा) ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से (विधेम) विशेष भक्ति किया करें।।2।। इन मन्त्रों में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना का प्रकार व तरीका पता चलता है। ईश्वर को हमें स्तुति रूप में कहना है कि वह सकल जगत् का उत्पत्तिकर्ता है, समग्र ऐश्वर्ययुक्त है, शुद्धस्वरूप है, सब सुखों का दाता आदि है। प्रार्थना रूप में कहते हैं कि आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक वा हितकारी गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमें प्राप्त कराईये वा दीजिए। दूसरे मन्त्र के अर्थ से भी स्तुति, प्रार्थना व उपासना की संगति पाठक स्वयं लगा सकते हैं। अन्य मन्त्रों व उनके अर्थ के लिए संस्कारविधि व नित्यकर्म विधि आदि पुस्तकों को देखा जा सकता है। स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हुए हमारा ध्यान पूर्णतयः ईश्वर के स्वरूप में स्थिर व केन्द्रित होना चाहिये। ईश्वर हमारे भीतर व बाहर विद्यमान है, वह मेरी स्तुति व प्रार्थना को सुन वा जान रहा है। वह उसे पूरी करने में समर्थ है। ऐसे सच्चे भाव भी उपासक के मन में होने चाहिये। यदि हम पूरे ज्ञान व सच्चे हृदय से स्तुति, प्रार्थना व उपासना के मन्त्रों के अर्थों को जानकर उपासना करते है तो स्तुति व प्रार्थना के अनुरूप लाभ अवश्य होता है, इसका विश्वास उपासक व भक्त के हृदय में होना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में उपासना का फल बताते हुए कहा है कि जैसे शीत से आतुर मनुष्य का शीत अग्नि के समीप जाने से, अर्थात् अग्नि की संगति करने से, दूर हो जाता है उसी प्रकार से ईश्वर के समीप जाने अर्थात् उपासना अर्थात् उसकी संगति करने से उपासक व भक्त के सभी दुर्गुण, दुव्र्यसन व दुःख दूर हो जाते हैं। उस उपासक भक्त को उपासना से कल्याण सहित हितकारी गुण, कर्म, स्वभाव व पदार्थ प्राप्त होते हैं। इतना ही नहीं किन्तु आत्मा का सामथ्र्य इतना बढ़ता है कि पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी उपासक वा उसका जीवात्माघबराता नहीं है। क्या यह छोटी बात है? हमें लगता है कि यहां पहाड़ के समान दुःख शब्दों में ऋषि दयानन्द ने अपनी व अपने प्रियजनों की मृत्यु व इसी प्रकार के सभी दुःखों को माना है।

 

ईश्वरोपासना व ईश्वर की पूजा और वैदिक सन्ध्या परस्पर पर्याय हैं। ऋषि दयानन्द जी ने सन्ध्या अर्थात् ईश्वर के ध्यान करने की विधि भी लिखी है जो प्रातः सूर्योदय से पूर्व व सायं सूर्यास्त के समय व उसके कुछ बाद की जाती है। ध्यान का अर्थ है कि अपने समस्त विचारों व भावनाओं को ईश्वर में समाहित किया जाता है और सन्ध्या के मन्त्रों को बोल कर, उनके अर्थ की भावना करके निर्दिष्ट क्रिया को किया जाता है। यदि हम सन्ध्या के  क्रमानुसार मन्त्रों को बोलते हैं, निर्दिष्ट क्रियायें करते हैं और मन्त्रों के अर्थ व भावों को अपने हृदय में रखकर उसके अनुरूप भावना से ईश्वर से स्तुति व प्रार्थना कर रहे होते है तो हमारा यह कार्य करना सफल होता है। सन्ध्या समाप्त होने पर भी हम ईश्वर की कृपाओं को अपनी भावनाओं में स्मरण कर उसके लिए कृतज्ञता का भाव अपने हृदय में बनाते हैं। अष्टांग योग का पालन करते हैं। सन्ध्या से पूर्व व पश्चात योग दर्शन का अध्ययन कर योगदर्शन के सूत्रों पर विचार व चिन्तन करते रहते हैं और सन्ध्या करते समय उसके अनुरूप विचार व भावनायें हमारी होती है, तो सन्ध्या का पूरा लाभ मिलता है। यह भी लिख दें कि जो कार्य छोटा व अल्प लाभ का होता है उसकी सफलता में अल्प साधन व समय लगता है। कार्य बहुत बड़ा व अधिक लाभ देने वाला हो तो पुरुषार्थ भी उसके अनुरुप ही करना होता है। सन्ध्या व अग्निहोत्र आदि ऐसे कर्म हैं जिनसे हमारी शुभ कर्मों की पूंजी में अप्रत्याशित वृद्धि होती है। इससे हमें धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होनी है। मोक्ष से बढ़कर संसार में कोई वैभव, बहुमूल्य रत्न व ऐश्वर्य नहीं है। इसके लिए तो हमारे वैराग्यवान योग्य पुरुषों व महापुरुषों ने अपना घर, माता-पिता और यहां तक कि राज्य को भी ठोकर मार दी। स्वाभाविक है कि इस कार्य में पुरुषार्थ भी असीमित व अत्यधिक करना होगा। मनुष्य को घबराना नहीं चाहिये। जितना बन पड़े उसे विधिपूर्वक व सच्ची लगन से करना चाहिये। परिणाम अच्छे ही होंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि उपासक को सत्यार्थप्रकाश अवश्य पढ़ना चाहिये। वेदों का स्वाध्याय भी करें। इससे सन्ध्या व ईश्वरोपासना में बहुत लाभ होगा। लेख का और आधिक विस्तार न कर हम यहीं विराम देते हैं। हमने संकेत मात्र में कुछ कहा है। यदि किसी को यह अच्छा लगे व किसी को सन्ध्या व ईश्वरोपासना की प्रेरणा मिले तो हम अपने श्रम को सार्थक समझेंगे। ओ३म् शम्।

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