डरता हूं

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डरता हूं आने वाले समय से,
जो भविष्य में भयंकर विपत्तियां लेकर आने वाला है।
नर संहार ,शोषण, अत्याचार और भीषण रक्तपात होनेवाला है।
धर्मवाद, जातिवाद , क्षेत्रवाद, प्रान्तवाद इन सबके पीछे आखिर कौन है?
जब भी किसी से पूछता हूं कारण इस बात पर सब मौन हैं।
तमाम सामाजिक कुरीतियों को देख कर मैं भीतर ही भीतर घुटता हूं ,
जब भी लड़ना चाहूं इन पत्थरों से, मिट्टी के खिलौनें की तरह टूटता बिखरता हूं।
जब भी रैन के साथ देखूं अम्बर  को , सभी तारे एक जैसे नज़र आते हैं।
मन ललचाता है सोचता है आखिर हम भी ऐसे क्यों नहीं हो जातें हैं।
लेकिन फिर डर जाता हूं कि यदि हम तारों की तरह हो जाय।
तो कहीं ऐसा न हो कि तारों की तरह एक-एक करके टूट जाय।
मन में तमाम वेदनाएं लिए हुए डूब जाता हूं एक वैचारिक संसार में।
कुछ तो बदलेगा, कभी तो बदलेगा जी रहा हूं बस इसी आसार में।
रात्रि में नींद को भगाकर, विचारों को बुलाकर कोई भी उलझन सुलझ नहीं पाती है।
शाम होती है , रात बीत जाती है फिर वही उलझन भरी सुबह चली आती है।
डर जाता हूं , सहम जाता हूं दिन में होने वाली घटनाओं को सोचकर ।
वो आता है, सरेआम कत्ल करके चला जाता है, मैं रह जाता हूं अपने बालों को नोचकर।
           – अजय एहसास 

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