1857: ज़रा याद करो कुर्बानी

डॉ० राजेश कपूर


1857 के स्वतन्त्रता संग्राम को 10 मई को 154 वर्ष पूरे होजाएंगे. इस संग्राम को याद करके आज भी यूरोपियनों की नीद हराम हो जाति है. इस संग्राम की यादों को दफन करने, इससे बदनाम करने, तथ्यों को छुपाने व तोड़ने-मरोड़ने के अनगिनत प्रयास तब भी हुए और आज भी चल रहे हैं. अंग्रेजों ने इसे एक छोटा सा सैनिक विद्रोह बतलाया.

जबकि सच्चाई यह है कि यह संग्राम देश के हर कोने में लड़ा गया. एक ही दिन में १०,१५,२० जगह पर युद्ध चलता था. छोटे बड़े नगरों से लेकर वनवासियों तक ने इस युद्ध में भाग लिया. इस युद्ध के संचालकों की अद्भुत कुशलता और योग्यता का पता इस बात से चलता है कि जिस युद्ध की योजना में करोड़ों लोग भाग ले रहे थे उसका पता अंग्रजों के गुप्तचर विभाग को अंतिम दिन तक तक न चल सका. ऐसा एक भी कोई दूसरा उदाहरण संसार के इतिहास में नहीं मिलता.

आज भी हमारे उपलब्ध साहित्य में तथा नेट पर विश्व के इस सबसे बड़े स्वतंत्रता संग्राम को एक छोटा सैनिक विद्रोह बतलाने का झूठ चल रहा है. उस संग्राम में में 300000 ( तीन लाख ) वनवासियों, नागरिकों व सैनिकों की हत्या हुई थी. फ्रांस, जापान, अफ्रीका अदि संसार का एक भी देश ऐसा नहीं जिसके वीरों ने अपने देश की आजादी के लिए इतना लंबा संघर्ष किया हो या इतने लोगों के जीवन बलिदान हुए हों. ऐसा देश भी केवल भारत ही है जहां स्वतन्त्रता के बाद भी अपने देश के इतिहास को अपनी दृष्टी से न लिख कर देश के दुश्मनों द्वारा लिखे इतिहास को पढ़ा-पढ़ाया जा रहा हो. इससे लगता है कि अभी तक यह देश आज़ाद नहीं हुआ है. केवल एक भ्रम है कि हम आज़ाद है. वरना कोई कारण नहीं कि हम अपने देश के सही, सच्चे इतिहास को फिर से न लिखते. क्या इसका यह अर्थ नहीं कि अँगरेज़ जाते हुए भारत की सत्ता उन लोगों के हाथ में सौंप गए जो उनके ख़ास अपने थे, जो भारत में रह कर उनके हितों के रक्षा करते ? कथित आज़ादी के बाद के 64 वर्ष के इतिहास पर एक नज़र डालें तो इस बात के अनगिनत प्रमाण मिलते हैं कि देश का शासन भारत के शासकों ने अपने ब्रिटिश आकाओं के हित में, अनके अनुसार चलाया. स्वतंत्र इतिहासकरों के अनुसार देश आज़ाद तो हुआ ही नहीं, सत्ता का हस्तांतरण हुआ. कई गुप्त देश विरोधी समझौते भी हुए जिन पर अभीतक पर्दा पड़ा हुआ है. जैसे कि एडविना बैटन के सम्मोहन में नेहरू जी ने बिना किसी को भी विश्वास में लिए देश के विभाजन का पत्र माउंट बैटन को सौंप दिया था. महान क्रांतिकारी नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को अंग्रेजों की कैद में भेजने का गुप्त समझौता आदी. क्या इन सब तथ्यों और आजकल घट रही अनगिनत देश विरोधी घटनाओं व कार्यों के बाद भी कोई संदेह रह जता है कि यह सताधारी भारत में, भारत के लोगों द्वारा चुने जाकर विदेशी आकाओं के हित में, विदेशी आकाओं के इशारों पर काम कर रहे हैं ? अंतर है तो बस केवल इतना कि पर्दे के पीछे भारत के सत्ता के सूत्र संचालित करने वाला, इन विदेशी ताकतों का मुखिया पहले ब्रिटेन होता था जबकि अब इनका मुखिया अमेरिका है.

आपको याद होगा कि पहले हमारी पाठ्य पुस्तकों में 1857 के वीरों की कथाएं होती थीं. ” खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी” हम बच्चे पढ़ते थे. रानी झांसी पर नाटक होते थे. धीरे, धीरे वह सब हमारे स्कूली पाट्यक्रम में से कब गायब होता गया, पता भी न चला. इससे भी लगता है कि देश के शासक काले अँगरेज़ आज भी विदेशी आकाओं के इशारों पर देश का अराष्ट्रीयकरण करने के काम में लगे हुए है और देश की जड़ें चुपके, चुपके काट रहे है.

संसार के देश कभी न कभी गुलाम रहे पर आज़ादी के बाद उन सब ने अपना इतिहास अपनी दृष्टी से लिखा. इसका एक मात्र अपवाद भारत है जहाँ आज भी देश के दुश्मनों द्वारा लिखा, देश के दुश्मनों का इतिहास यह कह कर हमें पढ़ाया जाता है कि यह हमारा इतिहास है. जर्मन के एक विद्वान ‘ पॉक हैमर’ ने भारत के प्रचलित इतिहास को पढ़ कर भारत पर लिखी एक पुस्तक ”इंडिया-रोड टू नेशनहुड” की भूमिका में लिखा कि जब मैं भारत का इतिहास पढता हूँ तो मुझे नहीं लगता कि यह भारत का इतिहास है. यह तो भारत को लूटने वाले, हत्याकांड करने वाले आक्रमणकारियों का इतिहास है. जिस दिन ये लोग अपने सही इतिहास को जान जायेंगे, उसदिन ये दुनिया को बतला देंगे कि ये कौन हैं. बस इसी बात से तो डरते हैं भारत के विदेशी आका. वे नहीं चाहते कि हम अपने सही और सच्चे इतिहास को जानें. हम समझें या न समझें पर वे अच्छी तरह जानते है कि हमारे अतीत में, हमारे वास्तविक इतिहास में इतनी ताकत है कि जिसे जानने के बाद हमें संसार का सिरमौर बनने से कोई भी ताकत रोक नहीं पाएगी. इसी लिए उन लोगों ने अनेक दशकों की मेहनत से भारत का झूठा इतिहास लिखा और मैकाले के मानस पुत्रों की सहायता से आज भी उसे भारत में पढवा रहे हैं.

भारत का इतिहास विकृत करने वालों में एक अंग्रेज जेम्स मिल का नाम प्रसिद्ध है. उसके लिखे को प्रमाणिक माना जाता है. ज़रा देखे कि वह स्वयं अपने लिखे इतिहास की भूमिका में अपनी नीयत को स्पष्ट करते हुए क्या कहता है. वह कम से कम एक बात तो सच लिख रहा है कि ये लोग ( भारतीय ) संसार में सभ्य समझे जाते हैं, ये हम लोगों को असभ्य समझते है. हमें इन लोगों का इतिहास इस प्रकार से लिखना है कि हम इन पर शासन कर सकें. इस कथन से तीन बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि (१) सन 1800 तक संसार में भारतीयों की पहचान सभ्य समाज के रूप में थी. इस तथ्य को तो हम नहीं जानते न ? (२) तब तक भारत के लोग इन अंग्रेजों को असभ्य समझते थे जो कि वे थे भी. गो मांस खाना, कई- कई दिन न नहाना, स्त्री- पुरुष संबंधों में कोई पवित्रता नहीं, झूठ, ठगी, रिश्वत आदि ये सब अंग्रेजों में सामान्य बात थी जबकि आम भारतीय तब बड़ा चरित्रवान होता था. अधिकाँश लोग शायद मेरे बात पर विश्वास नहीं करेंगे, अतः इस बात के प्रमाण के लिए 2 फवरी, 1835 का टी. बी. मैकाले का ब्रिटिश पार्लियामेंट में दिया वक्तव्य देख लें. उसे कभी बाद में उधृत करूंगा. (३) तीसरा महत्वपूर्ण निष्कर्स मिल के कथन से यह निकालता है कि उसने भारतीयों को गुलाम बनाए रखने की दृष्टी से जो भी लिखना पड़े वह लिखा. यानी सच नहीं लिखा.भारतीयों में हीनता जगाने, गौरव मिटाने की दृष्टे से लिखा.

इसी प्रकार उन्होंने भारत के सभी महल, किले, नगर, भवन भारतीयों की निर्मिती न बतला कर अरबी अक्रमंकारियों की कृती लिखा और हम भोले भारतीयों ने उसी को सच मान लिया. इतना तो सोच लेते कि जो हज़ारों साल से इस भारत भूमि में रह रहे हैं, उनके कोई भवन, महल, किला हैं कि नहीं ? जिन विदेशी आक्रमक अरब वासियों को भारत के सारे वास्तु का निर्माता बतला रहे हैं उन्हों ने अपने देश में ऐसे कितने, कौनसे भवन बनाए ? वहाँ क्यूँ नहीं बनाए ? इसी प्रकार हमारा इतिहास झूठ, विकृतीकरण व विदेशी षड्यंत्रों का शिकार है. कथित भारतीय इतिहासकार भी यूरोपीय झूठे लेखकों के लिखे पर संदेह योग्य स्वाभिमानी व दूरद्रष्टा नहीं थे. ऐसे ही लोगों द्वारा 1857 के महान स्वतन्त्रता संग्राम के सत्य को दबाया, छुपाया गया है.

अतः यदि सदीप्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के सच्चे इतिहास को जानना है तो वीर सावरकर के लिखे 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास को पढ़ना होगा. यदि संक्षेप में सारे तथ्यों और प्रमाणों को जानना चाहें तो डा. सतीश मित्तल जी की लिखित पुस्तिका पढ़े जो कि ” सुरुचि साहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली- 55” से प्राप्त हो जाएगी.

इतना तो हम सब को समझने का प्रयास करना ही चाहिए कि हमारे सही, सच्चे इतिहास में कुछ ऐसी ताकत है कि जिस से हम संसार का सिरमौर बन सकते हैं, अपनी ही नहीं तो दुनिया की समस्याओं को हल कर सकते हैं. तभी तो अंग्रजों ने १०० साल से अधिक समय तक अथक प्रयास करके हमारे आतीत को विकृत किया. किसी अज्ञात विद्वान ने कहा है कि यदि किसी देश को तुम नष्ट करना चाहते हो तो उसके अतीत को नष्ट करदो, वह देश स्वयं नष्ट हो जाएगा. क्या हमरे साथ यही नहीं हुआ और आज भी हो रहा है.

तो आईये हम अपने अतीत को सुधारने के क्रम में अपने उन शहीदों को याद करें जो इस लिए बलिदान हो गये कि हम सुखी, स्वतंत्र रह सकें. 10 मई के दिन 1857 की अविस्मर्णीय क्रान्ति और उसके क्रांतिकारियों की याद में अपनी आँखों को नम हो जाने दें और सकल्प लें कि उनके बलिदानों से प्ररेणा लेकर हम आज के इन विदेशी आकाओं के पिट्ठुओं से देश को स्वतंत्र करवाने के लिए संघर्ष करेंगे, भारत को भिखारी बना रहे बेईमानों के चुंगल से स्वतंत्र होने के लिए एक जुट होकर कार्य करेंगे. विश्वास रखें कि हमारे सामूहिक संकल्प से सबकुछ सही होने लगेगा. ध्यान रहे कि हमें टुकड़ों में बांटने के षड्यंत्र अब सफल न होने पाए. वन्दे मातरम !

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डॉ. राजेश कपूर
लेखक पारम्‍परिक चिकित्‍सक हैं और समसामयिक मुद्दों पर टिप्‍पणी करते रहते हैं। अनेक असाध्य रोगों के सरल स्वदेशी समाधान, अनेक जड़ी-बूटियों पर शोध और प्रयोग, प्रान्त व राष्ट्रिय स्तर पर पत्र पठन-प्रकाशन व वार्ताएं (आयुर्वेद और जैविक खेती), आपात काल में नौ मास की जेल यात्रा, 'गवाक्ष भारती' मासिक का सम्पादन-प्रकाशन, आजकल स्वाध्याय व लेखनएवं चिकित्सालय का संचालन. रूचि के विशेष विषय: पारंपरिक चिकित्सा, जैविक खेती, हमारा सही गौरवशाली अतीत, भारत विरोधी छद्म आक्रमण.

22 COMMENTS

  1. १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम को सचमुच में बहुत वर्षों बाद स्वाधीनता की पहली लड़ाई के रूप में मान्यता मिली थी. इसमें हम भारतीय ही दोषी हैं .ऐसे भी प्रमाणिक इतिहास लिखने के मामले में हम हमेशा पिछड़े रहे हैं.इसीका परिणाम है, की आज तक हम दूसरों द्वारा मनमाने रूप से थोपे हुए इतिहास पर विश्वास करते रहे हैं. आजादी के बाद इस पर गंभीर रूप से विचार किया जाना चाहिए था,पर वह भी आज तक नहीं हुआ.ऐसे १८५७ के स्वतंत्रता की लड़ाई का एक काला पक्ष भी है. सिखों और राजपूताना के राजपूतों का इसमे सहयोग न देना,नहीं तो परिणाम कुछ और होता.
    यहाँ मैं यह भी कहना चाहूंगा कि इतिहास न लिखने कि हमारी यह परम्परा बहुत पुरानी है. आज भारत के बारे में जो भी इतिहास हमारे पास है,वह ज्यादातर विदेशी राजदूतों(मेगास्थनीज),विदेशी पर्यटकों (फाहियान और हुएन्साङ्ग) कि देन है.

    • सिंह साहेब टिपण्णी हेतु धन्यवाद !
      – अपने इतिहास के बारे में हमारी जानकारिया उस इतिहास तक सीमित है जो कि हमारे देश के शत्रुओं द्वारा हमें बरबाद करने के लिए लिखा गया. जिसे एक छोटा सा सैनिक विद्रोह कहा गया, वास्तव में वह एक राष्ट्र व्यापी स्वतन्त्रता संग्राम था जिसमें आसाम से लेकर हिमालय तक के प्रान्त व जनपद भागीदार थे. पंजाब और राजस्थान के सिखों व जाटों की भागीदारी भी भरपूर थी. पर हम तो वही जानते हैं न जो विदेशी शत्रुओं ने हमें बांटने, तोड़ने, हीन बनाने के लिए लिखा. और जो सच, सही लिखा गया उसे सामने आने ही नहीं दिया गया.
      * इतिहास के विद्वान प्रो. सतीश मित्तल ने इस पर प्रमाणिक सामग्री प्रकाशित की है, उसे पढना चाहिए. फिर हम ये नहीं कहेंगे कि सिखों और जाटों ने इसमें भागीदारी नहीं की. हाँ सेना के बारे में यह सच है पर उसके कारणों पर अलग से विश्लेषण की आवश्यकता है.
      – यह भी भ्रम है कि हमने इतिहास पर नहीं लिखा. लिखा बहुत गया पर सामने नहीं आने दिया गया. प्रयास करने पर काफी कुछ मिलजायेगा.
      शेष फिर . सादर आपका .

      • बहुत सुंदर जवाब दिया है डाक्टर साहब आपने श्रीमान सिंह जी को, इनकी बहुत से लेखों में यही टिप्पणी लिखी मिली की राजपूतों और सिखों की भागीदारी नही थी. इनका हाल वही है की बुढ़िया की सुई घर में खोई थी और सुई ढूँढने वो बिजली के खम्भे के नीचे गई थी. इतिहास की सम्पूर्ण जानकारी की नहीं और जानकारी को खोजने का प्रयास भी नहीं किया, जितना मैकाले के मानस पुत्रों ने लिखा बस उतना ही पढ़ा और लगे टीका टिप्पणी करने….. अति उत्तम … सादर

  2. लिखाई पढ़ाई की दिशा और दशा ही बदल दी गई है, मैकाले के मानस पुत्रों ने देश का इतिहास ही मिटा दिया. ज्ञानवानो को अज्ञानी करार दे दिया गया. धूर्तों ने तपस्वियों को ठग लिया.

    राजेश कपूर जी को बारम्बार नमन और टिप्पणी कर्ता को भी, जिसके कारण ये लेख पढने को मिला….. सादर

    • शिवेंद्र जी आप सरीखों के प्रोत्साहन से सबको उत्साह मिलता है, क्रम जारी रखना होगा.

    • राजपाल जी किन्ही कारणों से निरंतर यात्रा पर रहता हूँ और नैट पर बैठने का अवसर कभी कभी ही मिलता है. आप सब की टिप्पणियाँ आज ही देखने का अवसर मिला. अपने घर सोलन १६ नवम्बर तक पहुँच जाऊँगा, ऐसी आशा है. कृपया मुझे अभी मेल करें (dr.rk.solan@gmail.com) , उपलब्ध पुस्तकों की जानकारी प्रेषित कर दूंगा.

  3. प्रोत्साहक टिप्पणियों हेतु आप सभी का पुनः धन्यवाद. भारत जाग रहा है, इस बात में अब भी किसी को क्यूँ कर संदेह होना चाहिए? इस लेख पर मिली इतनी उत्साह जनक टिप्पणियाँ भी तो इसी बात का प्रमाण हैं.

  4. डॉ.कपूर साहब पहली बार इस और आया और आते ही बेहद रोचक जानकारियाँ प्राप्त हुई, आपकी एक बात ने मुझे झकझोर कर रख दिया की ये लोग इतने वास्तुशिल्प के शौक़ीन थे तो इन्होने अपने देशों में वास्तु निर्माण क्यों नहीं किये, यह देश अभी तक आज़ाद नहीं कहा जा सकता क्योंकि काले अंग्रेज गोरे अंगरेजों से ज्यादा बे-रहमी से शासन कर रहे हैं और भारत के इतिहास को भुलाने के लिए गोरे अंग्रेजो से ज्यादा सचेत और तत्पर हैं.

    • प्रकाश जी आपको इस सूचना ने इसलिए झजकोर दिया क्यूंकि आप इसके निहित अर्थ को ठीक से समझ रहे हैं. आपने जो ‘काले अंग्रेज’ शब्द का प्रयोग किया है वह भी बहुत सही है. अंग्रेजों से भी बढ़ कर ये लोग भारत के अस्तित्व व पहचान को मिटाने का कार्य कर रहे हैं. करें भी क्यूँ न, आखिर इन्ही के पूर्वजों की करनियों के कारण देश आज तक ब्रिटेन का ‘डोमिन स्टेट’ है और देश को धोखे में रख कर बतलाया यह गया है कि देश आज़ाद हो गया. वास्तव में आज़ादी प्राप्त करना शेष है. गोर अंग्रेज़ों के एजेंट इन काले अंग्रेज़ों के शासन से देश को मुक्त करवाने के लिए एक और आज़ादी की लडाई लड़ी जानी शेष है. उसके बाद ही इस देश का वास्तविक उत्थान व स्वाभिमान / स्वत्व का जागरण होगा.

  5. सारगर्भित, ओजपूर्ण, और विचारोतेजक लेख हेतु साधुवाद.
    यह दुर्भाग्यपूर्ण है की हमने अब तक अपने गौरवशाली जातीय इतिहास को विदेशियों से नजरिये से ही देखना जारी रखा हुआ है. पता नहीं हम इस तरह के मानसिक गुलामी से कब उबरेंगे. भारतीयों में स्वदेशप्रेम और जातीय स्वाभिमान मात्र एक फैशन की तरह है,जो क्रिकेट मैच के मंच पर ही दीखता है.

  6. हार्दिक साधूवाद मान्यवर….जिस देश को विश्व गुरु कहा जाता था या है….उस देश का इतिहास तो निश्चय ही गौरव शाली रहा है….मैंने मैकाले पुत्रो द्वारा रचा गया मनगढ़ंत इतिहास भी पढ़ा और डा पुरषोत्तम नागेश ओक जी के द्वारा रचित पुस्तकों में उपलब्ध, भारत का गौरवशाली इतिहास भी..हमारे स्वर्णिम अतीत का दर्शन करने के लिए माननीय वीर सावरकर जी द्वारा रचित ‘ भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम पृष्ठ’ से अच्छी पुस्तक शायद ही उपलब्ध हो….परन्तु सेकुलर गिद्धों ने कभी असली इतिहास सामने नहीं आने दिया….परन्तु हमें हमारे गौरवशाली अतीत से सीख कर हमारे देश को विश्व गुरु सम्मान पुनः दिलाना ही होगा….खड्ग बिन न तो आजादी मिल सकती है, न ही सुरक्षित रह सकती है…सादर जय भारत धन्यवाद…..

  7. श्री कपूर जी का लेख पढ़ा .आज कल बहूत जरूरी हे की हम इस युवा पीडी का मार्गदर्शन करे जो नित घोटालो से परेशान होकर प्ल्यान करके विदशो में रहने में गोरव मअसूस करती हे.और भारत के प्रति हीन भावना से ग्रसित हे.आज भारत के गौरंवीत इतिहास को पुन पढ़ कर बहूत अच्छा लगा.

  8. कोई शूटर यदि ओलंपिक गेम में गोल्ड मेडल जीतता है तो उसे हमारी सरकार बड़े ही गर्व और सम्‍मान के साथ करोड़ों रूपये का ईनाम और अवार्ड से नवाज़ कर अपनी सर आंखों पर बैठा लेती है।और इसके विपरित कोई अन्य कोई जो देश की रक्षा करते हुए, अपनी जान की परवाह न करते हुए देश की जनता की सुरक्षा के लिए आतंकवादियों से अपनी अंतिम सांस तक जूझता है और अपने प्राणों की बलि देकर देश को सुरक्षा, अमन की सांस देते हुए शहीद होता है तो हमारी सरकार उनके परिवार को सिर्फ मुआवज़े के तौर पर २.५० लाख रूपये देती है।
    क्या ये सोचने वाली बात नही है कि हमारा देश कितना महान है, हमारी सरकार कितनी महान है जिन्हे उन शहीदों के बलिदान की भी कोई कद्र नहीं है

  9. आपका यह लेख भी हमेशा की तरह चेतना जगाने वाला है. १० मई गौरवशाली इतिहास है. बलिदान ही हमारा इतिहास रहा है, लेकिन अब किसको याद है यह सब, राग-रंग के दौर में सब भूल रहे हैं अपना अतीत. आप जैसे लोग है, जो याद दिलाते है. मन से लिखा गया है यह लेख. साधुवाद आपको..

  10. आदरणीय डॉ. कपूर जी ने १००% सही बात कही है.
    * सत्य है की किसी की संस्कृति को ख़त्म करना है तो उसका इतिहास ख़त्म कर दो. यही हमारे साथ हुआ है. १९४७ तक जो हुआ सो हुआ किन्तु उसके बाद तो खुले रूप से हमारा पूरा इतिहास ही बदल दिया गया है. कुछ ऐसा ही प्रयास एक किताब द्वारा लिखा गया “भारत एक खोज” जिस पर दूरदर्शन पर सीरियल भी दिखाया जाता था. उस सीरियल में भी भारतीय समाज को बहुत विकृत रूप से दिखाया गया जैसे हम हमेशा से असभ्य ही थे और हमारी कोई सभ्यता ही नहीं थी.
    * जब तक हमें हमारा सच्चा इतिहास नहीं बताया जाएगा हमरी नई पीढ़ी के खून में उबाल कहाँ से आएगा. कहते है दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पिता है. किन्तु हम तो आज भी अंग्रजो के गुण गाते है. अंग्रेजी सभ्यता में जी रहे है.
    * हर जगह एक ही गाना चलता है “दे दी आजादी बिना खडग बिना ढाल’ – दुनिया में कही भी बिना लड़ाई के, बिना खून खराबे के कोई भी देश आजाद नहीं हुआ है. यह तो उन लाखो स्वतंत्र सेनानियों का अपमान है जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपना स्वर्स्व, अपनी जान तक न्योच्छावर कर दी.
    * एक साजिश के तरह झूठा इतिहास लिख्या गया और स्कूल कालेज में पढाया गया.
    * ऐसा नहीं है की सच्चा इतिहास हमारे इतिहासकारों ने नहीं लिखा. लिखा किन्तु वोह अंग्रेजी में होता था और बहुत दूर होता था. हिंदी में भी लिखा गया किन्तु इतना महंगा होता था की आम आदमी जो रोटी पानी में जुड़ा रहता था उसे कहाँ वक्त था की वोह इन्हें खरीद कर पढ़ पता.
    * धन्य है प्रवक्ता और अन्य माध्यम जिनके द्वारा विद्वानों से सच्चा इतिहास फिर से सामने आ रहा है. यह हर पाठक, लेखक, विद्वान की नैतिक जिम्मेदारी है की अपने परिवार, समाज में हर व्यक्ति को सच को बताये, खुल कर बताये और अपना सामाजिक और राष्ट्रीय कर्त्तव्य पूरा करे तभी हम सही अर्थो में उन लाखो बलिदानियों को सच्चे अर्थो में श्रधांजलि दे सकते है.

    वन्दे मातरम.

  11. आप सब की प्रोत्साहक टिप्पणियाँ मुझे अधिक लेखन हेतु प्रेरित कर रही हैं. पर एक सच्ची बात कह दूँ की वास्तव में यह लेखन मेरा है नहीं. इसे लिखते समय विषय मस्तिष्क में गड-मड हो रहा था. लिखना भी ज़रूरी था. समय निकला जा रहा था. किसी अन्य का लेख इस विषय पर आया होता तो इतना आवश्यक न रहता. सामने श्रीश्री रविशंकर जी का चित्र रखा हुआ था. उन्हें समर्पित करके लिखता गया और यह समयानुकूल लेख बन गया. अतः ये लेख उन्हें समर्पित हैं और उन्ही की कृपा से लिखा गया.

  12. कुछ पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित लोग भारत के पुराने इतिहास को मानाने तक को तैयार नहीं है ये लोग रामायण महाभारत काल को केवल कवियों की कल्पना मानते है ऐसे लोग ही भारत में सताधिश है अगर शिक्षा की बात करे तो आज की शिक्षा नेतिक मूल्यों से रहित है शिक्षा में जीवनमूल्यो का कोई आधार नहीं है शिक्षा एक व्यापार बन गया है आज की नई पीढ़ी को उसके पुराने इतिहास से दूर रखने की भरपूर कोशिश की जा रही है कुछ नराधम योन शिक्षा लागु करने तक की बात करते है और कुछ राजनेता वोट बैंक को बढाने के लिए “ग” से गणेश की जगह “ग” से गधा पढाने में रूचि रखते है क्योंकि गणेश साम्प्रदायिक है और गधा धर्मनिरपेक्ष इनके लिए शहीद क्रांति और संस्कृति का कोई महत्व नहीं है सिवाय अपनी सुरक्षा के

  13. डॉ. कपूर जी आपको शत शत नमन! ओजपूर्ण लेख के लिए बहुत बधाई!
    आपकी बातें सत्य के बहुत करीब हैं! वर्तमान में इसका दोष हमारे शिक्षकों और अभिवावकों का भी है जो बच्चों को शोधार्थी बनाने के स्थान तोता बनाने पर तुले हुए हैं! आज ९०% से अधिक अंक लाने की लालसा में बच्चे अध्यात्मिक और सर्वांगीण विकास से वंचित हैं! जितना हम लोग दुनिया के बारे में जानते हैं शायद अपने आसपास को उससे भी कम जानते हैं

  14. आदरणीय कपूर साहब ह्रदय को छू लेने वाला लेख| सच ही है हमें अपना इतिहास भुलाया जा रहा है और अंग्रेजों द्वारा लिखित इतिहास ही पढ़ाया जा रहा है| इस प्रकार इन मैकॉले मानस पुत्रों के द्वारा देश का पौरुष नष्ट करने का काम किया जा रहा है|
    “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी” यह कविता पढ़ते ही हमारे शरीर में एक ऊर्जा उत्पन्न होती है| हम गौरव से भर जाते हैं| किन्तु अब इसकी जगह तो जॉनी-जॉनी यस पापा व रेन रेन गो अवे जैसी घटिया कविताओं ने ले ली|
    देश के करोड़ों बच्चे इस चक्कर में पड़ कर अपना इतिहास भुला रहे हैं व गोरी चमड़ी को ही सर्वश्रेष्ठ मान रहे हैं|
    इसी इतिहास को मैंने भी पढ़ा किन्तु मेरा सौभाग्य था कि मुझे अपने देश का सही इतिहास भी पढने व समझने का अवसर मिला, स्व. श्री राजिव भाई दीक्षित जी के द्वारा| मैंने कई बार बैठ कर उनके साथ इस विषय पर चर्चा कि तब उन्होंने मुझे देश के असली इतिहास के दर्शन करवाए| साथ ही देश के प्राचीन विद्वानों व ऋषि मुनियों से अवगत करवाया| ज्ञान-विज्ञान व कला व्यापार के क्षेत्र में भारत की श्रेष्ठता के दर्शन करवाए|
    आज जो कुछ भी जान सका वह उन्ही की बदौलत है| साथ ही आपके लेख पढ़कर और भी अधिक लाभ हो रहा है| कृपया अपने ज्ञान से हमें इसी प्रकार लाभान्वित करते रहें…
    धन्यवाद…
    सादर…
    दिवस…

  15. विचारों को झकझोर कर रख देनेवाले इस लेख को आज प्रभात में ही पढने पर चेतस की सितारी झन झनाने लगी।कहां, झांसी की रानी, और कहां आज की इतालवी “रानी” ?
    कहां राजा भोज और कहां गंगवा?
    भारत ! यह भी दिन देख लो।
    हमारे उदार और खुले मस्तिष्क में संसार के धूर्त ठगो नें कूडा फेंका है। उस कूडेको हम पहचान ना पाए? उसीको गले लगाए बैठे हैं।
    डॉ. कपूर जी शतशः धन्यवाद।

  16. सिन्हा जी, सामयिक लेख प्रकाशन हेतु धन्यवाद. किन्तु थोड़ी माडरेशन की आवश्यकता है. लेख बाईं और से दबा हुआ है और पढ़ा नहीं जा रहा. अनेक कार्यों के साथ पुस्तक प्रकाशन की व्यस्तता में देखने का अवसर न मिला होगा. कृपया इसे सुधार लें जिस से पाठक ठीक से पढ़ पायें.

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