संसद में कश्मीर संकल्प के बाद विफल 21 वर्ष

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भारतीय गणराज्य में जम्मू कश्मीर राज्य का एक भिन्न प्रकार का ही स्थान रहा है. संवैधानिक स्तर पर एक भिन्न प्रावधानों वाला राज्य और भारतीय जनमानस में एक असहजता भरा राज्य !! कश्मीर को असहजता से सहजता की ओर ले जानें के प्रयास बहुतेरे हुयें हैं, ये प्रयास कई अवसरों पर ईमानदार और कई अवसरों पर केवल दिखावटी रहे यह बात अलग है. वस्तुतः धारा 370 को शनैः शनैः यहाँ से भूमिका बनातें हुए हटा लेना ही वह एक मात्र कदम होता जिससे यह राज्य शेष भारत में व्यवस्थित ढंग से सामान्य होनें की दिशा में बढ़ जाता किन्तु ऐसा कोई प्रयास अब तक तो नहीं ही हुआ.

22 फर. 1994 को भारतीय संसद में कश्मीर सम्बन्ध में एक संकल्प प्रस्तावित किया गया था जो कि सर्वसम्मति से पारित भी किया गया था. इस प्रस्ताव में कहा गया था कि कश्मीर के जो क्षेत्र चीन द्वारा 1962 में और पाकिस्तान द्वारा 1947 में कब्जा लिए गए थे उन क्षेत्रों को हम वापिस लेकर रहेंगे और इस बारे में किसी समझौते को स्वीकार नहीं करेंगे. इस संकल्प में यह स्पष्ट रूप से कहा गया कि जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और पाकिस्तान को यह चेतावनी दी कि वह अवैध रूप से अतिक्रमण किये गए इस क्षेत्र को तुरंत खाली कर दे. वर्ष 1994 में लिए गए इस संकल्प का उद्देश्य जम्मू कश्मीर के साथ पूरे विश्व को यह सन्देश देना था कि प्रत्येक स्थिति में भारतीय सरकार जम्मू कश्मीर के साथ है. 22 फरवरी 1994 को पी वी नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्रित्व काल में संसद नें जिस संकल्प को पारित किया था बाद के वर्षों में अन्य प्रधानमंत्रियों के काल में यह प्रस्ताव धूल तले दबता जा रहा है. बाद की सरकारों ने इस प्रस्ताव के सन्दर्भ में प्रतिवर्ष इसका स्मरण तक करनें का प्रयास नहीं किया. नरसिम्हाराव के बाद की कांग्रेस की सरकारों की अब्दुल्ला परिवार के साथ जिस प्रकार की संदेहास्पद और रहस्यमयी आपसी समझ बूझ है उसके कारण से इस कथित प्रस्ताव पर चर्चा-स्मरण न होना स्वाभाविक लगता है. कांग्रेस की सतत चली आ रही कश्मीर पर तदर्थवाद की नीति में तो यह ठीक लगता है किन्तु अन्य अटलजी की सरकार के समय भी इस प्रस्ताव पर गंभीर राजनयिक कदम नहीं बढ़ा पाई थी. आज आवश्यकता है कि देश इस महत्वपूर्ण प्रस्ताव के सन्दर्भ में जानें और भारतीय संसद और सम्पूर्ण भारतीय राजनीति भी अपनें द्वारा पारित इस प्रस्ताव की आत्मा को समझकर इस अनुरूप आचरण करें. इस प्रस्ताव में निम्नानुसार तथ्य कहे गए थे –

यह सदन पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकियों के शिविरों पर गंभीर चिंता जताता है. इसका मानना है कि पाकिस्तान की तरफ से आतंकियों को हथियारों और धन की आपूर्ति के साथ-साथ भारत में घुसपैठ करने में मदद दी जा रही है. सदन भारत की जनता की ओर से घोषणा करता है-  (1) पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भारतीय गणराज्य का अभिन्न अंग है और रहेगा. भारत अपने इस भाग को पुनः भारत में विलय का हरसंभव प्रयास करेगा. (2) भारत में इस बात की पर्याप्त क्षमता और संकल्प है कि वह उन अलगाववादी और आतंकवादी शक्तियों का मुंहतोड़ जवाब दे, जो देश की एकता, प्रभुसत्ता और क्षेत्रिय अखंडता के खिलाफ हों और मांग करता है कि – (3) पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के उन क्षेत्रों को खाली करे, जिन्हें उसने कब्जाया और अतिक्रमण किया हुआ है. (4) भारत के आंतरिक मामलों में किसी भी हस्तक्षेप का कठोर जवाब दिया जाएगा.              जम्मू कश्मीर से हमारा तात्पर्य केवल जम्मू, कश्मीर या लदाख तक सीमित नहीं है. जम्मू कश्मीर में इन तीनो क्षेत्रो के साथ वह क्षेत्र भी आता है जिस पर पाकिस्तान से अवैध रूप से कब्ज़ा किया हुआ है. यह क्षेत्र है मीरपुर मुजफराबाद और गिलगित बल्तिस्तान. गिलगित बल्तिस्तान इन दो क्षेत्रों के विषय में हमें जान लेना चाहिए कि विश्वविख्यात प्राचीन सिल्क रूट इस गिलगित बल्तिस्तान में ही पड़ता है. इसी सिल्क रूट के माध्यम से भारत शेष एशिया एवं यूरोप में व्यापार किया करता था. वर्तमान में यह क्षेत्र गिलगित बल्तिस्तान पाकिस्तान के अतिक्रमण किये हुए कब्जे में है और यहां के निवासी अब तक भी भी पाकिस्तानी शासन को नहीं मानते हैं. पिछले दशकों में इस क्षेत्र में किसी भी प्रकार की नागरिक सुविधाओं का विस्तार नहीं हुआ. यहां के नागरिक पाकिस्तानी सेना के द्वारा निरंतर नारकीय यातनाएं भोग रहें हैं और मनावाधिकारों की धज्जियां उड़ रही है. हत्याएं, अपहरण संपत्ति पर कब्जा इन क्षेत्रों में ठीक इसी प्रकार हो जाता है जैसे किसी कबीले में होता है.

भारत की कश्मीर नीति में शिमला समझौते को पाकिस्तान और विश्व समुदाय एक मील पत्थर के रूप में लेता है और यही वह कोण है जहां आकर भारत फंस जाता है. राजनयिक दृष्टि से अति कुशाग्रता और हावी होते हुए यदि शिमला समझौते को व्यक्त किया जाए तब तो इस समझौते से भारत को लाभ मिल सकता है अन्यथा जिस प्रकार इस समझौते की ढूलमूल व्याख्या होती रही है उससे तो यह कश्मीर मुद्दा कण मात्र भी आगे नहीं बढ़ने वाला है. आवश्यकता है कश्मीर पर संकल्पशील और आक्रामक भारतीय नेतृत्व की और प्रतिबद्ध केंद्र सरकार की. भारत-पाकिस्तान ने 1972 में हुए शिमला समझौते में एलओसी को दोनों देशों के बीच सीमा के रूप में स्वीकार करनें की एतिहासिक भूल कर ली थी. इस समझौते में जब हमारी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के जुल्फिकार अली भट्टो ने शिमला समझौते पर हस्ताक्षर करके एलओसी को दोनों देशों की सीमा के रूप में स्वीकार कर लिया था. पाकिस्तान पक्ष के कश्मीर विशेषज्ञ प्रश्न करते हैं कि अब हम पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का भारत में विलय किस तरह से कर सकते हैं? पाकिस्तानी कश्मीरी विशेषज्ञ भारत-पाक के बीच कश्मीर के मुद्दे के सुलझ जानें का दावा करते हैं और भौगोलिक नक्शों के अपरिवर्तनीय होनें का दम भरते हैं. भारतीय पक्ष से यहां यह स्मरणीय भी है और महत्वपूर्ण भी कि जिसे हम पीओके कहतें हैं एवं पाकिस्तान जिसे आजाद कश्मीर कहता है, वह क्षेत्र जम्मू का हिस्सा था न कि कश्मीर का; अतः उसे कश्मीर कहा ही नहीं जा सकता. न तो वह कश्मीर का अंश था और न ही इस रूप में उसका समझौता हो सकता था. वहां की लोक भाषा भी कश्मीरी न होकर डोगरी और मीरपुरी का मिश्रण है. इतिहास को यदि हम क्रमवार देखें और इन तकनीकी भूलों को आलोकित करें तो शिमला समझौते की भी समीक्षा के उजले अवसर आभास होतें हैं. और यदि हम महाराजा हरिसिंग के विलय प्रस्ताव को और उसकी भारतीय गणराज्य की ओर से की गई स्वीकृति के दस्तावेज को देखें तो इनकें शब्दों में कही कोई विरोधाभास नहीं है. विलय के दस्तावेज कश्मीर के पूर्ण विलय के तथ्य को सुस्पष्ट घोषणा की स्थिति में दिखते हैं. अब इन सब परिस्थितियों में से कौन सा भारतीय प्रधानमन्त्री और कौन सी सरकार राह बनाकर आगे बढ़ पाती है यही एक प्रश्न भी है और प्रतीक्षा भी !!

दुखद यह तथ्य भी है कि भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर परिस्थितियां जो सहज कभी नहीं रही उनकी असहजता जस की तस नहीं है. परिस्थितियां निरंतर उलझ रही हैं और भारतीय पक्ष को कमजोर कर रही हैं. भारत कश्मीर में उस स्थिति में खड़ा है जहाँ उसके पास खोनें को बहुत कुछ है और तथ्य यह है कि हम निरंतर कश्मीर में कुछ न कुछ खो रहे हैं. पिछले दशकों की घटनाओं की समीक्षा करें तो यह दुखद तथ्य ही और पछतावा ही हमारें हाथ लग रहा है कोई उपलब्धि नहीं. पाक कब्जे वाले कश्मीर में चीन की नई उपस्थिति इस कड़ी में एक बड़ी और कठिन गाँठ के रूप में हम भारतीयों के समक्ष है. पाक और चीन के बीच पीओके में निर्माण कार्यों को लेकर आठ समझौते हो चुकें हैं जिन्हें न रोक पाना भारतीय राजनयिक विफलता की एक बड़ी कहानी है. चीन और पाकिस्तान पीओके से होते हुए एक 200 किमी लम्बी सुरंग का निर्माण कर रही है जिस पर 18 अरब डालर का भारी भरकम खर्च होना है. अब इस महत्वपूर्ण गलियारे में इस सुरंग के माध्यम से चीन की उपस्थिति भारत के लिए एक नई समस्या के रूप में है. इस सुरंग से चीन के कई दीर्घकालिक सैन्य,आर्थिक, और सामरिक लक्ष्य सिद्ध होंगे और इन सभी मोर्चों पर उसके हित भारतीय हितों की कीमत पर फलित होंगे यह भी सत्य है. चीन पहले से ग्वादर बंदरगाह के माध्यम से इस क्षेत्र में हावी था, अब यह सुरंग अरब सागर में पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को चीन में काशगर से जोड़ेगी. इस सुरंग से चीन पश्चिम एशिया और स्टेट आफ हरमुज तक सहजता और सरलता से पहुंचेगा. यही वह मार्ग है जहाँ से जहां से दुनिया के एक तिहाई तेल उत्पादन का परिवहन होता है. केवल यही नहीं अपितु और भी दसियों चिंताएं हैं जो पिछले वर्षों में भारत-पाक के बीच पीओके को लेकर बढ़ गई हैं. अब इन चिंताओं का निवारण कैसे हो और नई चिंताओं का जन्म लेना किस प्रकार रुके यह एक यक्षप्रश्न है वर्तमान केंद्र सरकार के सामनें.

 

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