“त्रिजनकीय प्रजनन तकनीकी” से जन्मा जार्डन बच्चा चिकित्साशास्त्र का क्रांतिवीर साबित हुआ

डॉ. शुभ्रता मिश्रा

untitledयह कहानी जार्डन की एक दम्पत्ति की है, जिसे एक ऐसे वैज्ञानिक चमत्कार के माध्यम से 6 अप्रैल 2016 को पुत्र प्राप्त हुआ है, जिसे विज्ञान की भाषा में “3 पैरेंट टेक्निक” कहा जाता है। इन जार्डन माता-पिता के पुत्र को अब पाँच महिने हो चुके हैं और उसकी पूर्ण स्वस्थता ने इस अद्भुत वैज्ञानिक तरनीकी को सफल होने की मुहर से अलंकृत कर दिया है। आज से बीस साल पहले जार्डन के इस युगल ने विवाह किया था और लगातार संतानोत्पत्ति के प्रयास किए लेकिन प्रारम्भिक चार गर्भपातों और दो संतानों की मृत्यु ने उनको बुरी तरह तोड़ दिया था, परन्तु कहीं आस की एक लौ हल्के से जल रही थी, जिसके प्रकाश के बल पर इस जार्डन दम्पत्ति ने न्यूयार्क स्थित न्यू होप फर्टीलिटी सेंटर के डॉक्टर डॉन झैंग से अपनी समस्या साझा की। तब मालूम हुआ कि महिला को माइटोकॉन्ड्रिया में आनुवांशिक लेह सिंड्रोम नामक विकार है जिसके कारण उनके पैदा होने वाले बच्चों के लिए यह जानलेवा साबित होता है। वास्तव में लेह सिंड्रोम एक गंभीर मस्तिष्क संबंधी विकार होता है, जिससे 65,000 नवजात शिशुओं में कम से कम एक ही इससे प्रभावित पाया जाता है। जार्डन दम्पत्ति दुर्भाग्यवश इस विकार से प्रभावित थी। परन्तु संतान की लालसा मनुष्य को हर सम्भव प्रयास के लिए प्रेरित करती है। इसी मानवीय स्वभावगत गुण के कारण जार्डन दम्पत्ति डॉ. झैंग के सुझाए “3 पैरेंट टेक्निक” को अपने ऊपर आजमाने के लिए राजी हो गई। कानूनी तौर पर केवल ब्रिटेन ने इस तकनीकी को मंजूरी दी हुई है। चूँकि अमेरिका में इस वैज्ञानिक विधि से जन्म देने की स्वीकृति नहीं है। अतः अमेरिकी डॉक्टरों की एक टीम ने मेक्सिको में इस जार्डन माँ का इलाज करने का संकल्प लिया।
चिकित्सा के क्षेत्र में “3 पैरेंट टेक्निक” प्रारम्भ से ही विवादास्पद तकनीक रही है, जहाँ निःसंतान होने की पीड़ा से दुखी लोग इसके समर्थक हैं, तो वहीं इसके दुरुपयोग की आशंका जताने वालों की सँख्या भी कुछ कम नहीं है। विश्व समाज ने भी इसकी नैतिकता पर कई प्रश्नचिन्ह लगाए हुए हैं, जिनको आधारहीन भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वैज्ञानिक उपलब्धियों का दुरुपयोग होते देर नहीं लगती। “3 पैरेंट टेक्निक” से तात्पर्य एक ऐसी भ्रूणवैज्ञानिक तकनीकी से है जिसमें बच्चे के जन्म में दो माताओं और एक पिता की भूमिका होती है। इसमें एक माँ के अण्डाणु माइटोकॉन्ड्रियल विकार लेह सिंड्रोम जीन वाले होते हैं और एक स्वस्थ माँ होती है, जिसका माइटोकांड्रिया स्वस्थ जीन वाला होता है। वास्तव में माइटोकॉन्ड्रिया कोशिकाओं के अंदर पाया जाने वाला एक घटक होता है, जिसे मानव शरीर का शक्तिगृह कहते हैं। माइटोकॉंन्ड्रिया के अपने स्वयं के डीएनए होते हैं। इसके अलावा प्रत्येक कोशिका में पाए जाने वाले डीएनए अलग होते हैं, जो आनुवांशिकरुप से मातापिता से उनके बच्चों में जाते हैं। ठीक इसी तरह बच्चे में माइटोकॉंन्ड्रिया भी माता ही के अण्डाणु से आता है। इस लेह सिंड्रोम जीन के विकार वाले माइटोकॉंन्ड्रिया से ग्रस्त बच्चे में कई तरह की परेशानियाँ देखने को मिलती हैं जैसे उसमें शक्ति की कमी होने लगती है, उसकी मांस-पेशियों में कमजोरी आ जाती है, साथ ही दृष्टिहीनता और ह्रदयाघात के खतरे भी हो सकते है। कभी कभी कुछ मामलों में ऐसे माइटोकांड्रिया-वाहक बच्चों की मृत्यु भी हो जाती है। जार्डन दम्पत्ति के साथ यही हुआ था, इसलिए जन्म के बाद उनके बच्चे जीवित नहीं रह सके थे। इसके लिए आश्यक था कि विकारयुक्त माइटोकांड्रिया को हटा दिया जाए और उसकी जगह स्वस्थ माइटोकांड्रिया को इस्तेमाल किया जाए।
“3 पैरेंट टेक्निक” इसी प्रक्रिया पर काम करती है। अतः इस विधि को प्रोन्यूक्लियर हस्तांतरण भी कहा जाता है क्योंकि इसमें दोनों माताओं के अण्डाणुओं को पिता के शुक्राणु से निषेचित करवाया जाता है। निषेचित अण्डों के भ्रूण बनने की प्रारम्भिक अवस्था के दौरान ही उनके विभाजन शुरु करने के पहले उनकी कोशिकाओं से केंद्रक निकालकर सुरक्षित रख लिए जाते हैं। इसके बाद दाता माँ अर्थात् स्वस्थ मां के निषेचित अण्डे से केंद्रक को हटा दिया जाता है और उसको असली परन्तु रोगवाहक माँ के निषेचित अण्डे द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। इस तरह आगे भ्रूण के रुप में विकसित होने जा रहे निषेचित अण्डे में वास्तविक मां के आनुवांशिक जीन ही होते हैं परन्तु माइटोकांड्रिया दाता-मां का होता है, जो स्वस्थ होती है। शोधकर्ताओं का विश्वास था कि इस तरह किसी दानदाता मां के अण्डज के प्रयोग से ऐसी खतरनाक बीमारियों की रोकथाम की जा सकती है। उनका यह विश्वास जार्डन मां और उसके पुत्र के मामले में शतप्रतिशत् सही साबित हुआ।
यद्यपि इस तकनीकी से जन्म लेने वाले बच्चे में दो अभिभावकों के बीस हज़ार से अधिक आनुवांशिक डीएनए और इसी में तीसरी दाता-माता के 37 माइटोकांड्रियल डीएनए होते हैं। इस कारण ही इस तकनीकी को “3 पैरेंट टेक्निक” अर्थात् त्रिजनकीय तकनीकी कहा गया है। वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई यह एकदम नई तकनीक है, जिससे आनुवांशिक बीमारियों के एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में जाने में रोक लगने से उन परिवारों को एक नई उम्मीद मिलेगी जो नहीं चाहते कि उनके बच्चे उनकी बीमारियाँ ग्रहण करें। वास्तव में यह तकनीकी तब तक ही एक जीवन-रक्षक चिकित्सापद्धति कही जा सकती है, जब तक कि इसका उपयोग जार्डन दम्पत्ति जैसे सच में जरुरतमंद और संवेदनशील माता पिता के लिए किया जाता है। अन्यथा बच्चों को बनाने की मशीन की तरह यदि यह इस्तेमाल की जाने लगी तो मानव सभ्यता के लिए बहुत बड़ा खतरा भी हो सकता है। फिर भी जार्डन दम्पत्ति का इस तकनीकी से जन्म लेकर पृथ्वी पर आया यह बच्चा अद्भुत और अनमोल न केवल अपने माता पिता के लिए ही है बल्कि इस क्रांतिकारी चमत्कार से पूरी दुनिया की आँखें आश्चर्य से फटी रह गई हैं। चिकित्सकों का यह दल अब अपने इस सफल शोध को अक्टूबर में साल्ट लेक सिटी में आयोजित होने जा रही अमेरिकन सोसायटी प्रजनन चिकित्सा वैज्ञानिक कांग्रेस के समक्ष प्रस्तुत करेगा।

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डॉ. शुभ्रता मिश्रा
डॉ. शुभ्रता मिश्रा वर्तमान में गोवा में हिन्दी के क्षेत्र में सक्रिय लेखन कार्य कर रही हैं। डॉ. मिश्रा के हिन्दी में वैज्ञानिक लेख विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं । उनकी अनेक हिन्दी कविताएँ विभिन्न कविता-संग्रहों में संकलित हैं। डॉ. मिश्रा की अँग्रेजी भाषा में वनस्पतिशास्त्र व पर्यावरणविज्ञान से संबंधित 15 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । उनकी पुस्तक "भारतीय अंटार्कटिक संभारतंत्र" को राजभाषा विभाग के "राजीव गाँधी ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार-2012" से सम्मानित किया गया है । उनकी एक और पुस्तक "धारा 370 मुक्त कश्मीर यथार्थ से स्वप्न की ओर" देश के प्रतिष्ठित वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है । मध्यप्रदेश हिन्दी प्रचार प्रसार परिषद् और जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा संयुक्तरुप से डॉ. शुभ्रता मिश्रा के साहित्यिक योगदान के लिए उनको नारी गौरव सम्मान प्रदान किया गया है।

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