31% से 51% पर पहुंचे बिना चैन नहीं मिला

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१९६७ में देश के अनेक राज्यों में कांग्रेस विधानसभा चुनावों में अल्पमत में आ गयी! उस समय तक कोई कांग्रेस के अतिरिक्त किसी अन्य दल की सरकार की कल्पना भी नहीं करता था! यद्यपि उससे पूर्व १९५७ में ई एम एस नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में केरल में पहली साम्यवादी सरकार बन चुकी थी जिसे तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती इंदिरा गांधी के दबाव में नेहरू जी ने अनुच्छेद ३५६ के अंतर्गत १९५९ में बर्खास्त कर दिया था! लेकिन १९६७ में एक साथ कई राज्यों में कांग्रेस का बहुमत समाप्त हो गया था! ऐसे में गैर कांग्रेसवाद की शुरुआत हुई और सभी दलों (जिनमे साम्यवादी और जनसंघ तथा समाजवादी सभी शामिल थे) ने संयुक विधायक दल का गठन किया और एक साझा कार्यक्रम बनाकर संविद सरकार का गठन किया! हरियाणा में दलबदल की शुरुआत हुई और एक विधायक आयाराम द्वारा कांग्रेस छोड़कर विपक्ष का पल्ला थाम लिया गया!’आयाराम गयाराम’ की शुरुआत हुई! उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में सत्रह विधायकों ने कांग्रेस छोड़ दी! उस समय भारतीय जनसंघ के उत्तर प्रदेश में ९९ विधायक थे लेकिन संविद युग में जनसंघ के नेता नानाजी देशमुख द्वारा सत्रह विधायकों वाले चौधरी चरण सिंह को मुख्यमंत्री बनवाया और जनसंघ के रामप्रकाश गुप्त जी उप मुख्यमंत्री बने! लेकिन सरकार बनने के बाद इन विपरीत विचारधाराओं वाले दलों के आपसी मतभेद उभरने शुरू हो गए और केवल दस माह बाद ही चौ.चरणसिंह ने त्यागपत्र देकर विधानसभा भंग करवा दी! और यही स्थिति कमोबेश अन्य राज्यों में भी हुई! तथा संविद सरकारों का यह प्रयोग असफल हो गया!
राजस्थान विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक डॉ. इक़बाल नारायण सिंह ने उस समय एक विश्लेषणात्मक लेख इस बारे में लिखा जिसमे यह कहा गया कि संविद सरकारों का गठन एक अंतरिम नकारात्मक उद्देश्य ( कांग्रेस सरकारों के एक छत्र शासन को तोडना) से प्रेरित था और इससे वैकल्पिक विचारधाराओं से प्रेरित वैचारिक ध्रुवीकरण को आघात पहुंचा!लेकिन उन्होंने कहा कि धीरे धीरे वैचारिक ध्रुवीकरण से देश द्विदलीय व्यवस्था की ओर बढ़ेगा!ऐसा लगता है कि हाल के चुनावों में देश द्विध्रुवीय राजनीती की ओर बढ़ा है!यह एक सकारात्मक स्थिति है!
कांग्रेस की कोई स्पष्ट राजनितिक विचारधारा कभी नहीं रही केवल एक ‘अम्ब्रेला’ संगठन के रूप में अलग अलग विचारधाराओं के लोगों का एक चुनाव जिताऊ मंच के रूप में कांग्रेस कार्य करती रही है! जाति, मजहब,भाषा और क्षेत्र के आधार पर लोगों को एकजुट करने का कार्य करती रही है! अन्य सेकुलर दलों का भी इस विषयमे कोई स्पष्ट चिंतन नहीं रहा है! जातियों और पंथों का जोड़तोड़ ही इसका कार्य रह गया! लेकिन देश के सभी नागरिकों में कुछ समान हित के बिन्दुओं पर वैचारिक एकता और जाति और मजहब की दीवारों से बाहर निकलकर एक ‘ भारतीय’ के रूप में सबकी पहचान विकसित करने का कार्य नहीं हुआ!भाजपा को और कुछ सीमा तक साम्यवादियों ( जिनका अस्तित्व समाप्तप्राय है) को छोड़कर सभी दल जाति और सम्प्रदायों के गठजोड़ पर कार्य कर रहे हैं!
पहले कांग्रेस उसके विरोधी मतों का विभाजन होने के कारण अल्प मतों के आधार पर सरकारें बनाती रही है! अब यह कार्य भाजपा के पक्ष में हो रहा है! २०१४ के लोकसभा चुनावों में केवल ३१% मतों के आधार पर तीस वर्षों में पहली बार कोई दल पूर्ण बहुमत लेकर विजयी हुआ! लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए की मतदाताओं का बड़ा बहुमत आज भी भाजपा के साथ नहीं है!
बिहार के चुनाव परिणाम आने पर भाजपा को मिली पराजय के सन्दर्भ में भाजपा के अंदर और बाहर बहुत चर्चा है कि नरेंद्र मोदी का प्रभाव समाप्त हो गया है!भाजपा में बुजुर्ग हो गए कुछ नेताओं, जिन्हे उनके अधिक आयु के चलते मंत्रिमंडलीय दायित्व से मुक्त रखा गया था, हार के कारणों की विस्तृत समीक्षा और जिम्मेदारी निर्धारित की जाने की मांग की जा रही है! पार्टी में उठे इस अभियान को लेकर कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दल भी भाजपा को निशाने पर ले रहे हैं!
वस्तुतः जब तक ३१% को ५१% तक पहुँचाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये जाते है इस प्रकार के परिणाम किसी भी राज्य में आ सकते हैं! मई २०१४ के पश्चात हुए अनेकों राज्यों के चुनावों में भाजपा को सफलता मिली थी इससे यह लगने लगा था कि मोदी-शाह युगलबंदी सफलती की पहचान है! और यह अजेय है!लेकिन क्या वास्तव में ऐसा था?हरियाणा के चुनावों में भाजपा के अलावा कांग्रेस, आई इन एल डी, और जनहित कांग्रेस चुनाव मैदान में थे और भाजपा का मत प्रतिशत ४७ विधायकों की जीत के साथ ३३.२% था!झारखण्ड में भाजपा को ३१.३% मत और ३७ सीटें प्राप्त हुई थी जिसके साथ बाद में झारखण्ड विकास मंच के टिकट पर जीते छह विधायक और शामिल हो गए!महाराष्ट्र में भाजपा को १२२ स्थानों पर विजय मिली लेकिन उसका मत प्रतिशत २७.८%ही था!जम्मू और कश्मीर में भाजपा को २३% मत प्राप्त हुए और २५ सीट मिलीं जबकि पीडीपी को २२.७% मत और २८ सीटें मिली!
हाल में संपन्न हुए बिहार के चुनावों में भाजपा को २४.७% मत प्राप्त हुए जबकि सहयोगी दलों सहित कुल ३४% मत प्राप्त हुए!
राजनितिक और आर्थिक मामलों के विश्लेषक श्री सुरजीत भल्ला ने एक साक्षात्कार में कहा है कि भाजपा मोर्चे की पराजय तो उसी दिन तय हो गयी जिस दिन कांग्रेस, लालू प्रसाद और नितीश कुमार के बीच चुनावी गठबंधन हुआ था!
अब इस बात की सम्भावना बढ़ गयी है कि आने वाले दिनों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही कांगेस और अन्य विपक्षी दल बिहार की तर्ज़ पर ‘महागठबंधन’ बनाकर ही भजपा को घेरने की पूरी कोशिश करेंगे! आज ही समाचार पत्रों में उत्तर प्रदेश के प्रमुख मंत्री और सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव के भाई शिवपाल यादव का बयान छपा है जिसमे उन्होंने उत्तर प्रदेश में भी महागठबंधन बनाने की सम्भावना जताई है!उसे पूर्व असम में ही भाजपा की संभावना दिखाई दे रही है! लेकिन अगर अन्य सभी दलों ने इस “महागठबंधन” के प्रयोग का सहारा लिया तो वहां भी कठिनाई होगी!
पिछले वर्ष लोकसभा में अभूतपूर्व सफलता के बाद एक प्रमुख संगठन मंत्री का घर पर आगमन हुआ था और उन्होंने स्पष्ट कहा था कि ३१% से ५१% पहुँचने से पूर्व संतोषजनक स्थिति नहीं होगी! लेकिन इस दिशा में कोई ठोस पहल दिखाई नही दे रही है! केरल में अवश्य हाशिये पर रहने की स्थिति से उबरने के लिए और मुख्यधारा की ताकत के रूप में उभरने के लिए भाजपा ने कुछ प्रभावशाली और पिछड़े समुदायों को अपने साथ जोड़ने की ठोस पहल की है!लेकिन अन्य प्रांतों में भी ठोस पहल करनी अति आवश्यक है अगर मोदी जी के जादू को बरक़रार रखना है तो!अन्यथा इण्डिया शाइनिंग और फील गुड की तरह कहीं इस बार भी मार पीछे पुकार वाली स्थिति न बन जाये और हिसाब ज्यूँ का त्यूँ और कुनबा डूबा क्यूँ की तरह आंकड़ों में ही उलझे रह जाएँ!
लोगों का विश्वास भाजपा और नरेंद्र मोदी जी में अभी भी बरक़रार है लेकिन इसको चुनाव जिताऊ आंकड़ों में तब्दील करने के लिए कुछ काम करने होंगे!
चुनावी गठबंधन जातिगत समीकरणों से बनाये जाते हैं! भाजपा भी यही करने की कोशिश करती है! लेकिन इस जाति आधारित चुनावी व्याधि से मुक्ति के लिए क्या कोई अभियान स्वतंत्र भारत में छेड़ा गया है? जिस प्रकार स्वच्छ भारत का सन्देश मोदीजी ने दिया है क्या उसी प्रकार का “जाति तोड़ो, देश जोड़ो” का आह्वान किया जाना उचित एवं सामयिक नहीं होगा? १९७७ में जनता पार्टी सरकार के दौरान जनता पार्टी में शामिल भारतीय जनसंघ और लोकदल घटकों के बीच अंदरुनी आपसी समझ विकसित हो रही थी! ऐसे में जनता पार्टी को तोड़ने में संलिप्त कुछ पत्रकारों का पूरा प्रयास इस समझदारी को भंग करना ही था! सितम्बर १९७७ में साप्ताहिक “रविवार” में एक लेख छपा था जिसमे इस बात को विशेष तौर पर उभारा गया था कि जनसंघ और लोकदल में आपसी तालमेल का कोई समान आधार नहीं है क्योंकि जनसंघ की ताकत ‘जाति विहीन’ संगठित हिन्दू समाज से है जबकि लोकदल की शक्ति जातियों में विभक्त हिन्दू समाज में है! आश्चर्य तो तब होता है जब ‘जातिविहीन’ समाज से ताकत प्राप्त करने वालों को संकीर्ण और अनुदार कहा जाता है जबकि जातियों में समाज को विभाजित करने वालों को उदार और प्रगतिशील कहा जाता है! है न ये विडम्बना?लेकिन यह एक सच्चाई है जो लगभग चार दशकों के बाद भी बदली नहीं है! इस जातिवाद से ग्रस्त राजनीती से देश को बचने के लिए भाजपा को मजबूत अभियान और प्रचार छेड़ना चाहिए!इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक और अभियान भी छेड़ा जाना चाहिए जो देखने में तो इस उद्देश्य के विपरीत लगेगा लेकिन परिणाम अनुकूल होने की पूरी सम्भावना है!भाजपा स्थान स्थान पर विभिन्न जातियों और उपजातियों के महासम्मेलन आयोजित करे और उनके महापुरुषों और समाजसुधारकों को सम्मानित करें लेकिन साथ ही उन्हें यह भी समझाया जाये की जातीय गौरव के साथ इस बात को याद रखें कि हम सभी इसी एक ही व्यापक समाज का हिस्सा हैं और इससे अलग हट कर हमारा कोई अस्तित्व नहीं है!
कुछ लोग अक्सर आरक्षण पर अनाप शनाप बोलते मिल जाते हैं लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि आरक्षण क्यों दिया गया था!यह अंग्रेज़ों द्वारा हिन्दू समाज को तोड़ने की साज़िश से बचने के लिए दिया गया था और जब तक समाज में गैर बराबरी और सामाजिक शोषण अवशेष है तब तक आरक्षण भी आवशयक है!इसके साथ ही यह भी समझना होगा कि आज आरक्षित वर्ग के बच्चे भी परीक्षाओं में मेरिट में अच्छा स्थान ला रहे हैं! मेरठ में प्रतिवर्ष अनुसूचित वर्ग के छात्रों के अभिनन्दन का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है और उसमे पिछले वर्ष ७०% से अधिक अंक प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या चार सौ से अधिक थी!दूसरी ओर ऐसे मामले सामने आये है जिनमे पी एम टी की परीक्षा में शुन्य अंक प्राप्त करने वाले छात्रों ने भी पैसे के जोर पर प्राइवेट कालेजों में मेडिकल और इंजीनियरिंग में दाखिला पा लिया! अब यह निर्णय स्वयं ही करलें कि शून्य प्राप्त करने वाला अच्छा डाक्टर बनेगा या ७०% लेकर आरक्षण के सहारे दाखिला लेने वाला? निश्चय ही ७०% वाला शुन्य वाले से कहीं बेहतर और विश्वशनीय होगा!
एक नियम और बना दिया जाये कि कोई भी सरकारी कामकाज में अथवा सार्वजानिक जीवन में अपना जातिसूचक उपनाम प्रयोग नहीं करेगा!
भाजपा को स्थान स्थान पर निरंतर अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के शिक्षण प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए जिसमे विभिन्नमुद्दों पर पार्टी एवं सरकार की नीति के सम्बन्ध में बताया जाये और साथ ही यह भी की किस विषय पर क्या बोलना है और क्या नहीं बोलना है!यह भी नियमित तौर पर निरंतर चलना चाहिए!
मुस्लिमों और अन्य अल्पसंख्यकों से संवाद स्थापित करने के लिए भी अभियान छेड़ना चाहिए!और उन्हें बताया जाना चाहिए की दुनिया में जितना अधिक सुरक्षा, स्वतंत्रता और संरक्षण भारत में है उतना कहीं नहीं है! आज आई एस आई एस क्या कर रही है किसी से छुपा नहीं है! चर्च के अंदर कितना व्यभिचार है उसपर स्वयं पोप परेशान हैं!
आर्थिक विकास आवश्यक है लेकिन केवल इससे ही चुनावी वैतरणी पर नहीं लगेगी! २००४ में इंडिया शाइनिंग और फील गुड की असफलता सामने है! अतः राजनितिक रूप से जिन क़दमों से अपना वोट बैंक अक्षुण्ण रहे और वह ५१% तक पहुंचे ऐसे क़दमों का उठाना अति आवश्यक है!लक्ष्य एक ही ३१% से ५१%!bjp

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