775 साल का लेडी पावर

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लिमटी खरे

आजादी के पहले महिलाओं को कमतर ही आंका जाता रहा है। महिलाओं को चूल्हा चैका संभालने और बच्चे पैदा करने की मशीन ही समझते थे सभ्य समाज में पुरूष वर्ग के लोग। अस्सी के दशक के उपरांत यह मिथक शनैः शनैः टूटने लगा। लोग मानते थे कि महिलाओं को अगर घर की दहलीज से बाहर निकलने दिया गया तो कयामत आ जाएगी, समाज के चतुर सुजान इन महिलाओं का शोषण कर लेंगे, यही कारण है कि रूपहला पर्दा हो या फिर सियासत, सदा ही महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता रहा है। कालांतर में महिलाओं को जब भी मौका दिया गया उन्होंने साबित कर ही दिया कि वे पुरूषों से कम कतई नहीं हैं।

भारत सदा से ही पुरूष प्रधान देश माना जाता रहा है। हिन्दुस्तान के सभ्य समाज में महिलाओं का स्थान काफी नीचे ही माना जाता रहा है। यह उतना ही सच है जितना कि दिन और रात कि भारतीय पुरूषों ने महिलाओं के वर्चस्व को कभी भी स्वीकार नहीं किया है। इतिहास में चंद उदहारण एसे हैं जिनमें महिलाओं द्वारा शासन किए जाने के किस्से सुनने को मिलते हैं। इक्कीसवीं सदी में भारत की महिला ने घर की चैखट लांघ दी है, अब वह पुरूषों के कांधों से कांधा मिलाकर चल रही है।

भारत मंे महिलाओं को जब भी अपने हुनर को प्रदर्शित करने का मौका मिला है, उन्होंने बखूबी अपने इस फन को साबित किया है। मैदान ए जंग से लेकर सियासी गलियारों तक में भारतीय महिलाओं ने अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। 1755 के आसपास अमेरिका में भी अविवाहित महिलाओं को ही मत देने का अधिकार था। न्यूजीलेण्ड में महिलाओं के वोट देने और चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं था, बाद में 1893 में उन्हें मत देने तो 1919 में चुनाव लड़ने का अधिकार प्राप्त हुआ।

दुनिया की पहली महिला सांसद फिनलैण्ड में 1907 में चुनी गई थी। दुनिया के चैधरी अमेरिका लगभग एक दशक (80 साल) की लड़ाई के बाद 1920 में यह हक मिल सका। साउदी अरब अमीरात में आज भी महिलाओं को चुनाव लड़ने दिया जाए या नहीं इस बात पर बहस जारी है। अफगानिस्तान में 1970, बंग्लादेश में 1972, इराक में 1980 तो कतर में 1998 में बदलाव की बयार बही।

भारत देश में महिलाओं ने अनेक वर्जनाओं को तोड़ा है। मुगल शासक रजिया सुल्तान दुनिया भर में संभवतः पहली महिला शासक थीं जिन्होंने सल्तनत संभाली हो। जांबाज योद्धा और न्यायप्रिय शासक रजिया सुल्तान अपने पिता इल्तुतमिश की सबसे लाड़ली थी। रजिया सुल्तान ने 1236 में दिल्ली की गद्दी संभाली। उस वक्त लोगों को लग रहा था, कि दिल्ली जैसी बड़ी रियासत को संभाल पाएंगी कि नहीं, किन्तु रजिया ने इस अवधारणा को गलत साबित कर दिया। रजिया सुल्तान ने मजबूत और बुलंद इरादों के साथ शासन संचालित किया, उस वक्त बगावत के सर उठाने वालांे का सर कुचल दिया गया।

1524 में पेदा हुई गौंड शासिका रानी दुर्गावती ने अपने पति राजा दलपत शाह की लाड़ली थीं, दलपत शाह के निधन के उपरांत रानी दुर्गावती ने अपने पुत्र वीर नारायण के छोटे रहने के कारण शासन संभाला। गढ़ मंडला दुर्ग पर कब्जे के लिए बादशाह अकबर की नीयत डोली और उन्होंने दुर्गावती को महिला और कमजोर समझकर अपने अधीन आने की पेशकश की। रानी दुर्गावती ने अकबर की इस बात को ठुकरा दिया और वीरता के साथ युद्ध किया, जंग में ही रानी दुर्गावती वीरगति को प्राप्त हुईं।

1725 में जन्मी अहिल्या बाई ने अपने पति खांडेराव होल्कर की मौत के उपरांत 1854 में होल्कर रियासत की जवाबदारी संभाली। इसके 52 वर्षों के उपरांत 1795 में उनका निधन हुआ। दक्षिण में रानी चेनम्मा को सिंहनी कहा जाता था। कर्नाटक के कित्तूर की रानी चेनममा ने गोरे ब्रितानियों के आदेश को मानने से इंकार कर दिया था। ब्रितानियो के साथ जमकर जंग लड़ी रानी चेनम्मा ने, बाद में उन्हें एक किले में नजर बंद कर दिया गया था, जहां उनका देहावसान हो गया था।

सुप्रसिद्ध कवियत्रि सुभद्रा कुमारी चैहान की बात किए बिना महिलाओं के पावर की बात अधूरी ही रह जाएगी। सुभद्रा कुमारी चैहान का जिक्र इसलिए क्योंकि उनके द्वारा झांसी की रानी का कविता के रूप में बखान इतना मीठा और जीवंत है कि आज भी बच्चे, युवा, प्रोढ़ या उमर दराज लोग -‘‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी।‘‘ या ‘‘घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार।‘‘ जैसी पंक्तियां गुनगुनाते मिल ही जाते हैं। रानी लक्ष्मी बाई के सम्मान में मध्य प्रदेश सहित अनेक सूबों में महारानी लक्ष्मी बाई शाला (एमएलबी) की चेन स्थापित की गई है। 1834 मंे जन्मी लक्ष्मी बाई ने गंगाधर राव की मौत के बाद गद्दी संभाली थी। ब्रितानियों ने इनके गोद लिए बेटे को वारिस मानने से इंकार कर दिया था। रानी लक्ष्मी बाई ने अंगे्रजों का डटकर मुकाबला किया और आजादी की पहली लड़ाई में वीर गति को प्राप्त हुईं।

आजाद भारत में प्रियदर्शनी श्रीमति इंदिरा गांधी ने जिस उंचाई को छुआ उसे पाना शायद ही किसी के बस की बात हो। अपने पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू के अवसान के बाद इंदिरा गांधी ने देश और कांग्रेस दोनों ही की कमान संभाली। इसके उपरांत न्यूक्लियर पावर बनाने, विदेश नीति, संगठनात्मक एकता, निर्भीक शासन आदि की अद्भुत मिसाल पेश की इंदिरा गांधी ने। महिलाओं को आगे आने से रोकने के लिए कांग्रेस पर आरोप लगते रहे हैं, यही कारण है कि आज भी महिला आरक्षण बिल परवान नहीं चढ़ सका है।

कांग्रेस में श्रीमति सोनिया गांधी सर्वोच्च पद पर पहुंची जिनके हाथ में अघोषित तौर पर देश की बागडोर रहने के आरोप लगते रहे हैं। बाद में देश को 2007 में पहली महिला महामहिम राष्ट्रपति के तौर पर प्रतिभा देवी सिंह पाटिल मिलीं। इसके उपरांत लोकसभा में पहली महिला अध्यक्ष के तौर पर मीरा कुमार भी मिल गईं। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष भी श्रीमति सुषमा स्वराज हैं। स्वतंत्र भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री साठ के दशक में सुचिता कृपलानी थीं। इसके बाद उड़ीसा में नंदिनी सत्पथी मुख्यमंत्री बनीं। मध्य प्रदेश में उमा भारती भी मुख्यमंत्री रहीं। सत्तर के दशक में महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी की शशिकला काकोडकर ने केंद्र शासित प्रदेश गोवा में मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला। अस्सी के दशक मंे अनवरा तैमूर मुख्यमंत्री बनीं तो इसी दौर में तमिलनाडू में एम.जी. रामचंद्रन की पत्नि जानकी रामचंद्रन ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। सुषमा स्वराज दिल्ली, राबड़ी देवी बिहार, वसुंधरा राजे राजस्थान तो राजिन्दर कौर भट्टल पंजाब में सफल मुख्यमंत्री रह चुकी हैं।

वर्तमान में दिल्ली की गद्दी श्रीमति शीला दीक्षित, उत्तर प्रदेश की निजाम मायावती हैं। अब आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी तो तमिलनाडू मंे जयललिता मुख्यमंत्री बन महिला शक्ति को साबित करने वाली हैं। 2004 के बाद यह दूसरा मौका होगा जब देश के चार सूबों में महिला मुख्यमंत्री आसीन होंगी। इसक पूर्व 2004 में एमपी में उमा भारती, राजस्थान में वसुंधरा राजे, दिल्ली में शीला दीक्षित तो तमिलनाडू में जयललिता मुख्यमंत्री थीं। 1236 में रजिया सुल्तान की ताजपोशी से आरंभ हुआ लेडी पावर का सिलसिला 775 सालों बाद 2011 में भी बरकरार है। आने वाले साल दर साल यह और जमकर उछाल मारेगा इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। एसी मातृ शक्ति को समूचा भारत वर्ष नमन करता है।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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