दिसंबर की उस सर्द भरी रात में किसी ने पीछे से आकर पीठ पर एक जोरदार हाथ मारा। पीछे पलटकर देखा तो एक छह फुट का लंबा चौड़ा आदमी खड़ा था। वो तेज आवाज में बोला, कुछ खाया पीया करो, ऐसे कैसे पत्रकारिता करोगे। कहीं काम करते हुए मर गए, तो फिर हम बस तुम्हे याद करते ही रह जाएंगे। और देखिए जिस अक्षय सिंह ने मुझसे ये बात कही थी, आज उसी को याद करते हुए ये यब कुछ लिख रहा हूं।
जो लोग उन्हें नहीं जानते, वो उनके बारे में किसी तरह की टिप्पणी करने को आज़ाद हैं, लेकिन जो उन्हें जानते हैं, उन्हें मालूम है कि खोजी पत्रकारिता की दुनिया में अक्षय सिंह का क्या स्थान है। उनके सहयोगी आज भी याद करते हैं कि कैसे ये शख्स रात-दिन खबरों में डूबा रहता था। उनके बारे में एक बात पत्रकार बिरादरी में हमेशा मशहूर रही, कि वो बतौर खांटी पत्रकार के तौर पर ही जाने जाएंगे। किसी राजनीतिक पार्टी, नेता से ख़ुद के लिए न तो कोई सौगात उन्होंने पहले कभी पाई और ना ही उन्होंने कभी इसकी उम्मीद की।
हिन्दी पत्रकारिता में आने के बाद हर पत्रकार का सपना होता है कि वह बड़े से बड़े राजनेता का इंटरव्यू करे या फिर हर खिलाड़ी उसे उसके नाम और काम से जाने या फिर मनोरंजन जगत की हर हस्ती उसे इंटरव्यू देने को बेताब हो। पर इन सबसे अलग उत्तर प्रदेश से आए अक्षय सिंह ने ऐसे विषयों को अपनी पत्रकारिता के लिए चुना, जिन्हें करने में पत्रकारों के हाथ पैर फूल जाएं।
अक्षय सिंह या यूं कहें की हमारे लिए अक्षय भैया। मुझे उनसे मिलवाने वाले थे उनके जिगरी दोस्त और मेरे दद्दा दीपक साहू। उस वक्त दोनों ज़ी बिजनेस में काम किया करते थे। मैं भी उन दिनों जी न्यूज़ की नौकरी छोड़कर भोपाल से दिल्ली नया नया आया था। हिन्दुस्तान टाइम्स में काम करना शुरू किया था। पांडव नगर ठिकाना था। रोज शाम की चाय अक्षय भैया के साथ हुआ करती थी। अक्षय भैया बिजनेस की तो मैं विदेश की खबरों के साथ चर्चा को तैयार रहता था। अक्सर सोचता 12 घंटे काम करने के बाद भी ये इंसान इतनी एनर्जी कहां से लाता है। जब विदेशी मामलों पर हिन्दी में लिखना शुरू किया और पहला लेख छपा, तो बोले अच्छा कर रहे हो। अंग्रेजी के पत्रकार को हिन्दी में लिखते हुए देखना अच्छा लगता है और वो भी विदेशी मामलों पर।
4 जुलाई की शाम जब अक्षय भैया की मौत की खबर सुनी, तो विश्श्वास ही नहीं हुआ। मैं मौत के कारणों पर नहीं जाना चाहता। क्यूंकि उस बहस से मेरा भाई तो वापस नहीं आ सकता। लेकिन एक पुरानी कहावत है “इत्तफाक भी इतने इत्तफाकन नहीं होते”। आखिर क्यूं व्यापमं घोटाले से जुड़े लोग अपनी जान गंवाते जा रहे हैं। निगम बोध घाट पर मैंने अपने भाई की लाश को ताबूत में देखा, उसे जलते हुए देखा और अब उसके बिना जिंदगी को चलते हुए भी देख रहा हूं। लेकिन उस मां के आंचल का क्या, उस बहन के आंसूओं का क्या, उस पिता के झुके हुए कंधों का क्या…! सबके लिए एक पत्रकार दुनिया से चला गया होगा, लेकिन मेरे लिए मेरा भाई इस दुनिया से चला गया। सवाल कई हैं, पर जवाब कब, कैसे और कहां मिलेंगे, इसका मुझे और आप सभी को इंतजार होगा। तब तक के लिए अलविदा अक्षय भैया। बहुत याद आओगे।