श्री जगन्नथ रथयात्रा का भारतीय परम्परा में महत्व

१७ जुलाई पर विशेषः-

shri jagannnath rath yatra

मृत्युंजय दीक्षित

आषाढ़ शुक्ल की द्वितीया को ओडिशा व गुजरात सहित देश के अनेकानेक हिस्सों में निकाली जाने वाली इस यात्रा का विशेष महत्व है। यह रथयात्रा मुख्यरूप से ओडिशा का सबसे बड़ा ऐतिहासिक व धार्मिक महत्व का पर्व है। इस दिन ओडिशा की सड़को पर तिल रखने की भी जगह नहीं होती। समूचा ओडिशा ही नहीं पूरा देश रथयात्रा को देखने के लिए उतावला रहता है। इस पर्व का र्प्यटन की दृष्टि से भी काफी महत्व है। जब से मीडिया के माध्यम से सांस्कृतिक आदान- प्रदान प्रारम्भ हुआ है तब से इस रथयाात्रा की लोकपियता में इजाफा हुआ है। मीडिया व लोकप्रियता के कारण अब हर जगह लगभग हर बड़े शहर में रथयात्रा बड़े धूमधाम से मनायी जाती है। रथयात्रा अब फेसबुक आदि पर भी उपलब्ध होने लग गयी है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार दक्षिण भारतीय ओडिशा राज्य का पुरी क्षेत्र पुरूषेात्तमपुरी ,शंखक्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। यहां के प्रधान देवता श्रीजगन्नाथजी ही माने जाते है। यहां के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और कृष्ण की मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्रीजगन्नाथजी पूर्ण परात्पर भगवान हैं। श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है। यहां की मूर्ति स्थापत्य और समुद्र का किनारा पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है। कोणार्क का अदभुत सूर्य मदिंर ,भगवान बुद्ध की अनुपम मूर्तियों से सजी धोलागिरि और उदयगिरि की गुफाएं,जैनमुनि की तपस्थली खंडगिरि की गुफाए, लिंगराज ,साक्षी गोपाल और स्वयं भगवान जगन्नाथ का मंदिर दर्शनीय है। यह मंदिर श्री मंदिर से लगभग दो किमी दूरी पर उत्तर दिशा में श्री गुन्डिचा मंदिर जनकपुरी है। इसकी लम्बाई ४३० फीट और चौड़ाई ३२० फीट है। राजा इन्द्रमदुम्न की रानी गुन्डिचा के नामानुसार इस मंदिर का नाम गुन्डिचा रखा गया है। श्री जगन्नाथ महाप्रभु जी रथयात्रा से बाहुडा यात्रा तक श्री मंदिर छोड़कर यहां आकर रहते हैं।

शास्त्रों और पुराणों में भी रथयात्रा के महत्व को स्वीकारा गया है। स्कंद पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि जो व्यक्ति श्री जगन्नाथजी के नाम का कीर्तन करता हुआगुंडीया नगर तक जाता है वह पुर्नजन्म से मुक्त हो जाता है।जो व्यक्ति मार्ग में लेटलेटकर जाते हैं वे सीधे भगवान विष्णु के मुक्तिधाम को जाते हैं। रथयात्रा एक ऐसा पर्व है जिसमें भगवान जगन्नाथ स्वयं चलकर जनता के बीच आते हैं और उसके सुख दुख के सहभागी बनते हैं. यहां श्रीजगन्नाथजीके प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है।जिसको ग्रहण करने के लिए भक्त बेहद उतावले रहते हैं। कहा जाता है किश्रीजगन्नाथजी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य जी ने दिया था। महाप्रभु की परीक्षा लेने के लिये किसी ने उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुचने पर मंदिर में किसी ने प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने वह प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ।

नारियल, लाई , मूंग औरमालपुआ का प्रसाद विशेषरूप से इस दिन मिलता है। मान्यता है कि जनकपुर में भगवान जगन्नाथ दसों अवतार का रूप धारण करते हैं। सभी भक्तों को समान दर्शन देकर तृप्त करते हंै।श्रीजगन्नाथधाम चार धामों में से एक है। आज के श्रीमंदिर का निर्माण १२वीं शताब्दी में गंगवंश के प्रतापी राजा अनंगभीम देव के द्वारा हुआ था।लगभग ८०० साल पुराना यह मंदिर कलिंग स्थापत्य कला और शिल्पकला का बेजोड़ उदाहरण है।इसकी ऊंचाई २१४ फीट है। इसका आकार पंचरथ आकार जैसा है। इस मंदिर के चारों तरफ दीवारें जिसे मेधनाद प्राचीर कहते हैं। ।इसकी लम्बाई ६६० फुट और ऊंचाई २० फुट है। श्रीमंदिर के चार भाग हैंविमान , जगमोहन नाटयमण्डप और भेागमण्डप। श्रीमंदिर में मुख्यतः तीन विग्रह हैं यह हैं बायें और श्री बलभद्रजी बीच में सुभद्रा मैया और दाहिने श्रीजगन्नाथ जी । ये विग्रह नीम के दारू से बने हंै। जिस वर्ष मलमास या दो आषढ़ आता है उसी साल नवकलेवर होता है। अर्थात नये विग्रह बनाये जाते हैं।यह नवकलेवर १२ साल के अन्तराल में होता है। जगन्नाथ की रथयात्राओं में रथयात्रा सर्वश्रष्ठ है। श्रीजगन्नाथजी,बड़े भाई बलभद्रजी के रथ को तालध्वज और श्रीसुभद्राजी के रथ को देवदलन कहा जाता है। जगन्नाथपुरी की रथयात्रा में तीन विशाल रथ भव्य तरीके से सजाये जाते हैं। जिनमें पहले बलराम दूसरे में सु भद्रा तथा सुदर्शनचक्र और स्वयं तीसरे में भगवान जगन्नाथजी विराजमान होते हैं। महोत्सव के प्रथम दिन भगवान का रथ संध्या तक गुंडिचा मंदिर तक पहुंचाया जाता है। दूसरे दिन भगवान को रथ से उतारकर मंदिर में लाया जाता है। अगले सात दिनो तक भगवान यहीं निवास करते हैं। कहा जाता है कि इस समय में मंदिर में कोई मूर्ति नहीं रहती। इसे रथयात्रा महोत्सव के दौरान भगवान के दर्शन को मांडप दर्शन कहा जाता है। पौराणिक मान्यता है कि द्वारका में एक बार सुभद्रा जी ने नगर देखने की इच्छा व्यक्त की तो कृष्ण और बलराम उन्हें पृथक रथ में बैठाकर अपने रथों के मध्य में उनका रथ करके उन्हें नगर दर्शन कराने ले गये। इसी घटना के स्मरण में भक्तगण भगवान के परमधाम में प्रत्येक वर्ष रथयात्रा का भव्यपूर्वक आयोजन करते है। भगवान जगन्नाथ विभिन्न धर्मो, मतों और विश्वास का समन्वय है। मंदिर में पूजापाठ दैनिक आचार- व्यवहार, रीति नीति औरव्यवस्थाओं कोशैव, वैष्णव, बौद्ध जैन यहां तक कि तांत्रिकों को भी प्रभावित किया है। यहां पर जैन ओैर बुद्ध की भी मूर्तिया हैं। पुरी का जगन्नाथ मंदिर धार्मिक सहिष्णुता का मंदिर है। मंदिर के पीछे विमलादेवी की मूर्ति है। जहां पशुओं को बलि दी जाती है। वहीं मंदिर की मिथुन मूर्तियां चौंकाती है। यहां तांत्रिकों के प्रभाव के जीवंत साक्ष्य हैं। इस पर्व के माध्यम से वसुधैव कुटुम्बकम का महत्व स्वतः परिलक्षित होता है। यह रथयात्रा सांस्कृतिक एकता और सहज सौहार्द्र की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखी जाती है।ओडिशा राज्य मेंं पुरी का जगन्नाथ मंदिर और कोणार्क का सूर्य मंदिर , राजधानी भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर ओडिशा का स्वर्ग त्रिभुज माना जाता है। इसके अतिरिक्त ओडिशा में ही साक्षी गोपाल मंदिर, चिलिका झील, भुवनेश्वर में ही मुक्तेश्वर मंदिर, धउलीगिरि व नंदनकानन चिडि़याघर अप्रतिम व दर्शनीय स्थल हैं। यह सभी स्थान पर्यटकोंको आकर्षित करते है। इसके अतिरिक्त ओडिशा का कोणार्क का सूर्य मंदिर अपनी भव्यता के लिए विश्व प्रसिद्ध है।कोणार्क में सूर्य मंदिर का निर्माण सन २१००ई. में उत्कल नरेंश लांगुला नरसिंह देव जी ने किया था। इसकी कारीगरी को देखकर हर कोई दंग रह जाता है। इसलिए जो भी लोग ओडिशा जायें वह सभी लोग कोणार्क का सूर्य मंदिर भी अवश्य देखकर आयें।

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