भारत की आगामी राजनीती

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मैं अंगरेजी वर्ष २०१५ को भारत के राजनीति  में आया एक मोड़ मानूंगा जबकि की बिहार के चुनाव परिणाम ने एक सबक सबों को दिया की आप बहुत दिनों तक बहुतों को धोखे में नहीं रख सकते हैं …मैंने कभी  यह  नही माना  की नरेन्द्र मोदी की जीत उनकी ही थी वल्कि वह कांग्रेस की हार अधिक थी और यह उसी दिन तय हो गया था जिस दिन सोनिया ने राहुल को इस पद के लिए चुनने का मन बना लिया था, जिसका पूर्वाभास प्रणव मुख़र्जी के राष्ट्रपति पद पर घोषणा से हो चुकी  थी.

भारत की जनता इतनी मुर्ख नहीकि  वह राहुल बनाम मोदी में किसको चुने और यह उनका प्रारब्ध ही था जबकि वह भारतीय जनता पार्टी की सबसे दयनीय स्थिति में प्रधानमंत्री के पद के लिए इस प्रकार चुन लिए गए या उन्होंने अपने को चुनवा  लिया जो की सांघिक संघटनों में अनुश्रुत था .. कोई व्यक्ति अपने लिए पद का निर्णय ले यह सांघिक परम्पराओं में कभी हो ही नहीं  सकता और यही हुवा.. यदि यह संघ के मंजे लोंगों का निर्णय होता तो मोदी तीसरी बार मुख्यमंत्री नहीं केंद्र में भेज दिए गए होते पार्टी के ही पद पर ही सही  और वे बंगारू लक्ष्मण जैसों से अछे अध्यक्ष हो ही सकते थे संभवः गडकरी से भी अच्छा..

पर होना कुछ  और था- भारतीय राजनीती का कोर्पोराटीकरण जो की कभी भी दीनदयाल उपाध्याय के अनुयायियों को स्वीकारणीय नहीं होना था …एक कमरे में बना जनसंघ , श्यामा प्रसाद मूखेर्जी के राष्ट्रीय से राजमाता सिंधिया के दिनों में  क्षेत्रीय  और फिर वाजपयी- आडवानी के समय में राष्ट्रीय बनी  पर उन दोनों के ही गलती या कहें सांघिक परम्पराओं की अनुपालना न करने से नया नेतृत्व नहीं आ पाया और एक बार एक सच्चे अर्थों में एक राष्ट्रीय दल ने एक क्षेत्रीय नेता को देश के सामने मोदी के रूप में खडा कर दिया जिसके पास अपने राज्य का तो अनुभव था पर देश का नहीं और ट्रंप कार्ड उसकी अपनी पिछड़ी जाति का होना था जिस तथाकथित गरीब के पीछे एक धनी प्रांत के बड़े लोग थे. कहा जाता है की चुनावी प्रचार में १६००० करोड़ रुपये का इंधन फुका गया…चुनाव ऍमपी नही पीऍम का हो गया , किसी राष्ट्रपति प्रणाली की  तरह जो सांघिक एकात्म खांचे में बैठता तो जरूर है पर किसी क्षेत्रीय नेता को सामने करना एक विरोधाभास भी ला देता है-

सिद्धांतों की कसौटी पर मोड, जीत गया पर संघ के अनेक आदर्श हांर गए .. ऐसा नही  की  मेरे जैसे कुछ लोग जो इसके विपरीत सोचते हों वे  भाजपा के विरोधी हों या उसके विरोधी के जीत की आश लगाये हों पर मन न माने तो आप क्या करेंगे- नोटा दबा सकते , घर में बैठ सकते …पर जो जश्न मना उसमे शरीक भी  नहीं हो सकते ..कमल खिल गया,  संसद की कतारों में भर गया ..पर जब उन सांसदों की पृष्ठभूमि पर ध्यान गया अधिकाश कल तक कमल को कोसनेवाले दलबदलू, अपराधी, वंश परम्पराओं में आये , बहुकोटीपति से भरा केशरिया बाना  जिसने पहले ही अपने एक तिहाई रंग को कुर्वान कर दिया था अब स्पष्टतः उस दल का रूप था जिसके विरोध में वह बना था …

केवल एक बात पूरी हुई की हिन्दू के नाम पर जीता भी जा सकता है…मैंने १९६७ से अब तक के चुनावों को देखा है .. सरकारी सेवा के समय की चुनावी अलिप्तता को छोड़ सदैव इसी जनसांघिक विचारधारा का रहा हूँ ..

.जैसा अनुमान था और आंकड़े थे भाजपा बिहार में हार गया, पहले बिहार के उपचुनावों, वाराणसी के निकायों में और अब गुजरात के गाँव में भी हारा है ..

.बिहार में लोग सोचते हैं की महागठबंधन ने भाजपा को हराया है , मुझे लगता है की भाजपा के कार्यकर्त्ताओं ने भाजपा को हराया है-

करीब ३० वर्ष के सरकारी सेवा के बाद मुझमें चुनावी सक्रियता थी पर मैं भाजपा के साथ नहीं था , न ही इसके विरोधियों के साथ था .. मैं कार्यकर्ताओं के साथ था .. मैंने उनकी वेदना को निकट से खास कर मिथिला में देखा , जो मेरे बिछुड़े अनेक साथी  १९७५-७७ के बाद से लगातार भाजपा के साथ थे वे मन रहे थे की भाजपा का उम्मीदवार हार जाये– तो भाजपा को हारना  ही था .. वह हार गयी.. मैंने उनकी एक बागी सभा में भी कहा था की हिम्मत करें खड़े हों जीतने के बाद जम्मू की १९७७ की कहानी दोहरावें – पर मैं भावुक था , वे राजनीती के खिलाड़ी, वे जानते थे की भाजपा का उम्मीदवार कैसे हारेंगे.. भाजपा का उम्मीदवार  हारा,  भाजपा का कार्यकर्ता जीता, जो भाजपा हारी जो भाजपा थी ही नहीं ..

आखिर इस हार का जिम्मेवार कौन है …स्वयम प्रधानमंत्री जिसे हिन्दू में किसी ने ‘सी ऍम आफ इंडिया’ लिखा था … सी ऍम को पी ऍम बनाने का मैं इसीलिये विरोधी था.. मैं नरेन्द्र मोदी का व्यक्तिगत विरिधी नहीं हूँ .. मैं उन प्रक्रियाओं का विरोधी हूँ जिससे वे आगे गए, वे स्वस्थ नहीं थे.

मेरी बातें बहुत सारे लोंगों को जंचेगी नहीं पर मेरा यह सुविचारित मत है की हमें देश के बारे में एकात्म भाव से सोचना चाहिए और बिहार की  जनता ने जो ठोकर दी है वह आत्मालोचना के लिए पर्याप्त होनी चाहिए– साम, दाम, दंड , भेद से राजनीति चलती है पर राष्ट्रनीति इससे ऊपर है… क्या अब भी दलबदल, धनपति, जातिपाति की गणना भाजपा को करनी है तो इसकी विरोधी में क्या दुर्गुण थे, यही सब ना..इस मामले में बिहार के चुनाव ने बता दिया है की सोच सच्ची करें तभी जनता साथ रहेगी. प्रश्न चुनाव हरने या जीतने का हो सकता है पर इसके मायने अधिक हैं– यदि उस पर विचार हुवा तभी यात्रा जारी रहेगी– कंटकाकीर्ण स्वयम स्वीकृत मार्ग पर चलने वाले को जीत या हार में समभावी होना  चाहिए तभी परम वैभव की  कल्पना का चित्र हम मन से जन तक के मन में उकेर सकेंगे.

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