बेपर्दा हाती शैक्षिक संस्थाएं

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suicideसंदर्भःतमिलनाडू की मेडिकल छात्राओं की आत्महत्या-

प्रमोद भार्गव

केंद्रिय विश्वविद्यालय हैदराबाद के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या से उपजे आक्रोश का मामला अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि तमिलनाडू के प्राकृतिक शिक्षा एवं योग महाविद्यालय की तीन छात्राओं द्वारा एक साथ आत्महत्या किए जाने का मामला सामने आ गया। इसके साथ ही कोटा से कोचिंग ले रहे छात्र की खुदकुशी का मामला भी सामने आया है। देश के युवाओं की ये मौतें, संभावनाओं की मौतें हैं। ऐसे में यदि छात्र एवं छात्राओं की मौतों का यही सिलसिला बना रहता है तो देश के बेहतर भविष्य की संभावना क्षीण हो जाएगी ? इस परिप्रेक्ष्य में भयावह होते हालात की तस्दीक खुद संसद ने की है। नरेंद्र मोदी सरकार ने बताया है कि देश में हर साल आत्महत्या करने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही है। बीते वर्ष 2015 के 11 माह में 8 हजार से भी ज्यादा छात्र अध्ययन-अध्यापन से उपजी परेशानियों के चलते मौत को गले लगा चुके हैं। बावजूद इन मौतों के संदर्भ में देखने में यह आ रहा है कि राजनीतिक दलों के रहनुमा मौतों को केवल राजनीतिक चश्में से देख रहे है,लिहाजा समस्या के सामाधान की दिशा में पहल गौण होती जा रही है। यदि आने वाले समय में छात्र आत्महत्याओं को शिक्षा के व्यापक परिदृष्य में नहीं देखा गया तो आगे इन मौतों पर विराम लग जाएगा यह कहना मुश्किल ही है ?

देश में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च व तकनीकी शिक्षा तक शिक्षण पद्धति को लेकर अजीब भ्रम,विरोधाभास व दुविधा की स्थिति बनी हुई है। नतीजतन इनसे उबरने के अब तक जितने भी उपाय सोचे गए वे शिक्षा के निजीकरण और अंग्रेजीकरण पर जाकर सिमटते रहे हैं। इसमें अब नए आयामों के रूप में व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा के साथ कौशल विकास भी जोड़ दिया गया है। शिक्षा के इस बदलते व प्रयोगधर्मी रूप को चार दशक पहले ही हिंदी के प्रसिद्ध लेखक श्रीलाल शुक्ल ने समझ लिया था। गोया वे अपने उपन्यास ‘राग-दरबारी‘ में लिखते है,‘शिक्षा प्रणाली सड़क पर बैठी बीमार कुतिया की तरह है,जिसे हर आता-जाता आदमी लात तो मारता है,किंतु किसी सुधार का प्रयास नहीं करता।‘ यही वजह रही कि देश में शिक्षा में आवष्यक बदलाव लाने की दृष्टि से आयोग तो बिठाए गए,उनकी रपटें भी आईं,लेकिन उन पर अमल नहीं हुआ। लिहाजा शिक्षा प्रणाली में आदर्श व समावेशी शिक्षा के बुनियादी तत्व में शामिल करने की बजाय,शिक्षा के निजीकरण और अंग्रेजीकरण की बाध्यकारी षर्तें थोपी जाती रहीं। नतीजतन शिक्षा सफलता के ऐसे मंत्र में बदल गई है,जिसका एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना रह गया है। दुश्चक्र में फंसी इस शिक्षा की यही बानगियां इन आत्महत्याओं में देखने में आ रही हैं।

तमिलनाडू के जिस प्राकृतिक शिक्षा एवं योग महाविद्यालय में तीन छात्राओं के एक साथ कुएं में कुंदकर आत्महत्या करने का मामला सामने आया है,वह काॅलेज चेन्नई-सलेम मार्ग पर चल्लकरूचि कस्बे में चलता है। यह काॅलेज पहले भी अपने शिक्षा कारनामों के चलते विवादित रहा है। किंतु तमिलनाडू की राज्य सत्ता पर क्रमिक रूप से सत्तारूढ़ होने वाले द्रमुक और अन्नाद्रमुक से मजबूत रिष्ता होने के कारण इसकी साख बरकरार है। तमिलनाडू की राजनीति में सक्रिय रहने वाले कांग्रेस व भाजपा जैसे राष्ट्रीय व अन्य छोटे दल भी कभी इस काॅलेज की कारगुजारियों के विरोध में खड़े नहीं हुए। जबकि वे अन्याय के विरोध का दावा करते रहे हैं। इन होनहार छात्राओं ने मृत्युपूर्व लिखे पत्र में लिखा है कि ‘काॅलेज संचालकों ने उन्हें दूसरे वर्ष के पाठ्यक्रम में पास तो किया नहीं,किंतु कायदे की शुल्क जो तीस से पचास हजार रुपए है,उसके ऐवज में छह लाख वसूल लिए। इस कारण उन्हें और उनके परिजनों को आर्थिक बद्हाली का सामना करना पड़ा। नतीजतन वे आत्महत्या को विवश हुईं। इस पत्र में सीधे-सीधे काॅलेज प्रबंधन को मौत के लिए जिम्मेबार ठहराया गया है। इन छात्राओं ने इस अवैध वसूली की शिकायत राज्य सरकार को भी की थी,लेकिन सरकार कार्रवाई के लिए आगे नहीं आई। इन लड़कियों ने पत्र में छात्रों से मार्मिक अपील करते हुए लिखा है कि उनकी मौत के बाद प्रशासन बंद आंखें खोले। छात्र-छात्राओं का शोषण करने के विरुद्ध कठोर कार्रवाई हो ? लेकिन ऊंची पहुंच रखने वाले शिक्षा माफिया के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाही होगी,मुश्किल ही है ? दरअसल यह भरोसा सत्ता पर काबिज उन लोगों से कैसे किया जाए जो माफियाओं को सरंक्षण देकर अपने आर्थिक हित सा धते रहे हैं।

अब जरा इस 8 साल पुराने मेडिकल काॅलेज का भौतिक सत्यापन कर लेते हैं। इस काॅलेज के मुर्दाघर में छात्रावास का भोजन कक्ष रहा है। एक छोटा व अकसर गंदा रहने वाला कमरा शल्य क्रिया कक्ष है। जिसमें शल्य क्रिया से जुड़े उपकरणों की बजाय तीन चारपाइयां पड़ी हैं। काॅलेज की परिसर में महज एक पक्का भवन है,जिसमें कक्षाएं लगाने व शिक्षकों के बैठने की व्यवस्था है। मेडिकल काॅलेज के साथ अस्पताल का होना जरूरी शर्त है,किंतु अस्पताल नहीं है। जबकि साइनबोर्ड पर अस्पताल होने का उल्लेख है। ये हालात काॅलेज को मेडिकल काॅलेज का दर्जा देने के लिए पर्याप्त नहीं है। यहां सभी विषयों के प्राध्यापक और तकनीकी विशेषज्ञ भी नहीं हैं। बावजूद हैरानी है कि चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता और तकनीकी संसाधनों की पुष्टि करने वाला आयुश मंत्रालय और केंद्र एवं प्रदेश स्तरीय परिशदें इस महाविद्यालय की मान्यता का नवीनीकरण करती रहीं ? साफ है,बच्चों के भविष्य के साथ यह खिलवाड़ राजनेता,अधिकारी और काॅलेज प्रबंधकों का मिलाजुला खेल रहा है।

अब जरा कोटा के कोचिंग संस्थानों में निरतंत छात्रों द्वारा की जा रही खुदकुशियों की पड़ताल करें। इसी माह 23 जनवरी को केरल के रहने वाले छात्र अनिल कुमार ने आत्महत्या की है। वह आईआईटी की तैयारी कर रहा था। अनिल ने अपने मृत्युपूर्व लिखे पत्र में लिखा है,‘साॅरी मम्मी-पापा,आपने मुझे जीवन दिया,लेकिन मैनें इसकी कद्र नहीं की।‘ यह पीड़ादायी कथन उस किशोर का है,जो कोटा के ऐसे कोचिंग संस्थान में पढ़ रहा था,जो प्रतिभाओं को निखारने का दावा अपने विज्ञापनों में करता है। लेकिन युवाओं को महान और बड़ा बनाने का सपना दिखाने का इस उद्योग का दावा कितना खोखला है,इस बात का पता वहां बढ़ती जा रही आत्महत्याओं से चलता है। शिक्षा के इस उद्योग का गोरखधंधा देशव्यापी है। यहां करीब एक लाख बच्चे हर साल कोचिंग लेने के अलावा 10वीं,11वीं और 12वीं में नियमित छात्र के रूप में पढ़ने आते हैं। किंतु यहां विरोधाभास यह है कि नियमित छात्र के रूप में करीब 15 हजार छात्रों को ही प्रवेश मिल पाता है,बांकी के छात्र जिन शहरों से आते हैं,नियमित छात्र,उन्हीं शहरों के विद्यालयों के होते हैं,किंतु पीएमटी,पीईटी व आईआईटी की कोचिंग कोटा में लेते हैं। ऐसे में गौरतलब है कि ये छात्र एक साथ अलग-अलग शहरों की दो-दो संस्थाओं में अध्ययन कैसे कर पा रहे हैं ? स्कूलों में 75 प्रतिशत हाजिरी की जो अनिवार्य शर्त है,उसकी पूर्ति कैसे हो रही है ? साफ है,परिजन शुल्क चुकाने की दोहरी मार झेल रहे हैं। कोचिंग संस्थानों को अपनी जगह फीस दे रहे हैं और जिन स्कूलों में छात्र का नाम नियमित विद्यार्थी के रूप में दर्ज है,वहां हाजिरी की खानापूर्ति के लिए अलग से धनराशि चुका रहे हैं। इस गोरखधंधे में देश के बड़े पब्लिक स्कूल शामिल है। इस विसंगति पर पर्दा इसलिए पड़ा हुआ है,क्योंकि कोचिंग संस्थान हर साल अपनी उपलब्धियों का डंका पीटने के लिए एक अरब से भी ज्यादा की धनराशि के विज्ञापन मीडिया को देते हैं। साफ है,शिक्षा के निजीकरण का यह खेल कई स्तर पर मुनाफे की बंदारबांट का मजबूत आधार बना हुआ है।

रोहित वेमुला की मौत को लेकर अभी भी आक्रोश है। इस मौत के बाद होना तो यह चाहिए था कि शिक्षा में जातिगत और पूंजीगत विसंगतियों को दूर करने के संयुक्त राजनीतिक उपाय सामने आते ? लेकिन हुआ उल्टा पूरे मामले को दलित और गैरदलित की व्यथा-कथा में बदलकर सुधार के असली उपाय सर्वथा नजरअंदाज कर दिए गए। समान शिक्षा का मुद्दा भी गौण बना हुआ है। केवल इसी एक वजह से उच्च शिक्षा में दलित,आदिवासी और मुस्लिम छात्र पिछड़ रहे हैं। आरक्षण और छात्रवृत्ति की सुविधा के चलते वे उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश पा भी लेते हैं तो अंगे्रजी की अनिवार्यता के चलते उनकी स्वाभाविक योग्यता बौनी साबित होने लगती है। ऐसे में जन्मजात संस्कारों में शामिल जाति,धर्म और लैंगिक भेदों से जुड़े पूर्वग्रह परेशानी,अवसाद और उत्पीड़न का सबब बन जाते हैं। यह स्थिति तब और कठिन होती है,जब यह किसी को पता नहीं होता कि संस्थानों में कौन पढ़ा रहा है और क्या पढ़ाया जा रहा है ? शिक्षकों की यही पर्दादारी स्वस्थ्य विचार देने की बजाय विचारशील छात्रों को याकूब मेमन जैसे देशद्रोही की फांसी पर रोक के लिए आंदोलन और बीफ व पोर्क के सेवन के लिए उकसाती है।

अमेरिका व अन्य यूरोपीय देशों में पाठ्यक्रम के रूप में विशमता,गरीबी,जाति,धर्म,लैंगिक असमानता और मानवाधिकार शामिल हैं। किंतु हमारे यहां मेडिकल,इंजीनियरिंग,कंप्युटर और तकनीकी शिक्षा से ये सभी मानविकी विषय लगभग नदारद हैं। अब तो हमने केवल और केवल व्यावसायिक शिक्षा को ही जीवन की सफलता की कुंजी मान लिया है। इसी भ्रम के चलते आईआईटी,मुबंई,कानपुर,दिल्ली,रूड़की,बैंगलरू,दिल्ली के एम्स और कई केंद्रीय विश्वविद्यालयों में छात्र आत्महत्याओं की दर्दनाक घटनाएं सामने आ रही हैं। ऐसी विपरीत परिस्थिति से शिक्षा-जगत को उबारने के लिए जरूरी है कि हम पाठ्यक्रम के रूप में विवेकानंद गांधी और आंबेडकर के विचार पढ़ाएं। ये विचार मानवीय,पवित्र और संवेदनशील हैं। ये अहिंसक विचार हिंसा और जनसंहार को नहीं उकसाते। व्यक्ति को हतोत्साहित नहीं करते। जबकि साम्यवाद व इस्लामिक आतंकवाद से जुड़े विचार व्यक्ति को उदार बनाने की बजाय भटकाने का काम करते हैं। ऐसे में हमें राजनीतिक पूर्वग्रहों के दायरे से मुक्त होकर शिक्षा प्रणाली पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

 

 

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