यज्ञ से वर्षा आदि कामनाओं की पूर्ति

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yagyaलातूर आदि स्थानों में सूखे के परिप्रेक्ष्य में

मनमोहन कुमार आर्य
क्या यज्ञ और वृष्टि का परस्पर सम्बन्ध है? अवश्य है, इसलिए कि वेद और गीता में इनका वर्णन मिलता है। गीता में भगवान कृष्ण ने सूखे को ध्यान में रखकर अर्जुन को उपदेश नहीं दिए थे। न हि सर्वव्यापक सृष्टिकत्र्ता ईश्वर ने सूखा पड़ने के बाद समाधान के रूप में वेदोपदेश किया। यह तो सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को अपने कर्तव्यों व धर्म पालन के लिए दिया गया सनातन, शाश्वत् व नित्य ज्ञान है। आईये, पहले गीता में वर्णित वृष्टि जो बादल अर्थात् पर्जन्य से होती है, उसका उल्लेख कर क्या कहा गया है, यह जानते है। गीता के इस श्लोक 3/14 ‘अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।’ में कहा गया है कि सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। इस श्लोक में यज्ञाöवति पर्जन्यो अर्थात् वृष्टि अर्थात् वर्षा वा बारिश यज्ञ से होती है, यह बात योगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताई है। इस पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि यदि हम यज्ञ करते हैं तो इसके प्रभाव से वर्षा हुआ करती है। दूसरा यह भी है कि यदि वर्षा न हो रही हो, तो उचित मात्रा वा परिमाण में यज्ञ करने से वर्षा कराई जा सकती है। यहां यह बता दें कि ईश्वरीय ज्ञान वेदों एवं परवर्ती वेदानुकूल साहित्य के अनुसार गृहस्थियों के लिए अग्निहोत्र व अग्नि-गोघृत-ओषधि-वनस्पति आदि पदार्थों से दैनिक यज्ञ करने का विधान है। आजकल महाराष्ट्र के लातूर व मराठवाड़ा सहित देश के अनेक भाग सूखे की चपेट में हैं। यहां पीने व अन्य प्रयोग के लिए जल का सर्वथा अभाव हो गया है। अतः पीने व अन्य उपयोग के लिए यहां जल की अकूतधनसाध्य वैकल्पिक व्यवस्था तो की जा रही है परन्तु यज्ञ द्वारा वर्षा कराने पर किसी सरकारी व अन्य संस्था का ध्यान नहीं है। कारण कि यह देश धर्मनिरपेक्ष है और यदि वेद के उपायों से वर्षा करा ली जाति है तो इससे किसी एक व अनेक दलों के वोट बैंक पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।

आर्यसमाज में यज्ञ विज्ञान पर कार्य करने वाले भोपाल मध्य प्रदेश में एक विद्वान श्री वीरसेन वेदश्रमी हुए हैं जिन्होंने देश के अनेक भागों में वृष्टि वा वर्षा-यज्ञ सफलतापूर्वक सम्पन्न किए थे। आर्यसमाज के अन्य विद्वान स्वामी विद्यानन्द विदेह जी ने तो वर्षा कराने के लिए किए जाने वाले यज्ञ की विधि की पुस्तक ‘वृष्टियज्ञ पद्धति’ भी लिखकर प्रकाशित की थी परन्तु हमारे देश मे अनुसंधान के नाम पर करोड़ो अरबों रूपये व्यय किये जा सकते हैं परन्तु वेदों की ओर से सभी राजनैतिक दलों वा सरकारों ने आंखें मूंदी हुई हैं। हम अनुभव करते हैं कि यह उदासीनता देश व जनता के हितों की दृष्टि से उचित नहीं है। हम वेद पर आते हैं और देखते हैं कि वेद वृष्टि व यज्ञ पर अपनी क्या शिक्षा देते हैं। ‘ओ३म् आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम आ राष्ट्रे राजन्यः शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुवोढावानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्।।’, यह यजुर्वेद का 22/22 मन्त्र है। इसमें जो ‘निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु’ तथा ‘योगक्षेमो नः कल्पताम्’ शब्द आये हैं वह यज्ञ और वर्षा का सम्बन्ध बता रहे हैं। ‘नः निकामे निकामे पर्जन्यः वर्षतु’ का अर्थ है कि हमारी निश्चित कामना होने पर बादल वर्षा करने वाले हों। जब-जब हमें अन्नादि के दृष्टिकोण से वर्षा की आवश्यकता हो, तब-तब हमारे राष्ट्र में पर्जन्य-देव (वर्षा कराने वाले देव) वर्षा कराने वाले हों वा वर्षा करायें। ‘योगक्षेमो नः कल्पताम्’ में कहा गया है कि हमारा योग-क्षेम सिद्ध हो। अप्राप्त पदार्थ वा इच्छित वस्तु की प्राप्ति योग हैं। यहां सूखे की स्थिति में वर्षा अप्राप्त है उसको प्राप्त कराने के लिए वर्षा की प्राप्ति का होना ही ‘योग’ है। जो हमें प्राप्त हैं उसका रक्षण ‘क्षेम’ कहलाता है। यहां हमें प्राप्त सृष्टिगत पर्यावरण आदि सभी पदार्थों व वातवरण को सुरक्षित रखना है और वर्षा होने के बाद वर्षा चल को भी कुएं, तालाबों व जलाशयों आदि में सुरक्षित रखना है। ‘योगक्षेम’ का अर्थ है कि आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धि व उनका रक्षण। यजुर्वेद के भाष्यकार पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार कहते हैं कि राष्ट्र में सबका ‘योगक्षेम’ ठीक से चले, यही राष्ट्र की उत्तमता है। आदर्श राष्ट्र यही है। अतः हम ईश्वर से प्रार्थना करके, वर्षा आदि की इच्छा करके, यज्ञ करके, वर्षा में सहायक यज्ञ का वैज्ञानिक रीति से अनुसंधान करके निकामे निकामे अर्थात् जब जब जहां जहां चाहें वर्षा कराने में समर्थ हो सकते हैं। आवश्यकता इस बात है कि हमें वेदों की ओर लौटना होगा जिसका विवेक व शक्ति हमारे कर्णधारों के पास शायद नहीं है।

यज्ञ करने से वर्षा कराई जा सकती है, इसकी सम्भावना गीता व वेद के मन्त्र अपने निश्चयात्मक ज्ञान के आधार पर घोषित कर रहे हैं। हम यहां वृष्टि यज्ञ के सम्बन्ध में प्रसिद्ध वैदिक विद्वान, अनेक वैदिक ग्रन्थों के प्रणेता और सामवेद के अपूर्व भाष्य के ऋषितुल्य मुमुक्ष विद्वान डा. आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी के वृष्टि यज्ञ पर लिखे गये शब्दों को प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ‘वृष्टि-यज्ञ एक विज्ञान है। इस विज्ञान का जो ज्ञाता हो, उसे ही यह यज्ञ कराने का अधिकार होना चाहिए। ऋग्वेद मण्डल 10, सूक्त 98 को निरुक्तकार यास्काचार्य ने वर्षकाम-सूक्त नाम दिया है (वर्षकाम सूक्त का अभिप्राय वर्षा की कामना वाले मन्त्रों का सूक्त व संग्रह है)। इसमें अनावृष्टि होने पर (जैसी कि लातूर, मराठवाड़ा व देश के अन्य भागों में है) ‘देवापि’ गुण वाले विद्वान् के पौरोहित्य में वृष्टियज्ञ कराकर वर्षा होने का वर्णन है। देवापि वह विद्वान् है, जो यज्ञ द्वारा पर्जन्य देव को भूमि पर प्राप्त करने या बरसाने का विज्ञान जानता है। ऋग्वेद की एक ऋचा (ऋग्वेद 5.83.9) में अतिवृष्टि होने पर उसे रोकने की चर्चा भी मिलती है। इस वृष्टियज्ञ-विज्ञान पर अधिकाधिक अनुसंधान होना चाहिए और अनावृष्टि या अतिवृष्टि होने पर अधिकारी विद्वानों द्वारा राजकीय स्तर पर वृष्टि-यज्ञ कराए जाने चाहिएं। आज वैज्ञानिक जगत में अन्तरिक्ष में बदलों पर रासायनिक द्रव्य छिड़ककर वर्षा कराने के सफल परीक्षण किये गए हैं।’ उन पदार्थों को जानकर इनका भी यज्ञ में उपयोग किये जाने पर विचार किया जाना चाहिये।

हम यह भी कहना चाहते हैं कि यह सृष्टि स्वतःसृजित व रचित नहीं है अपितु एक सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान सच्चिदानन्द सत्ता द्वारा बनाई गई है। वही सत्ता इस सृष्टि को धारण किए हुए है जिससे कि यह सुचारू रूप से चल रही है। जीवात्मा की भांति ईश्वर चेतन सत्ता है। वह हमारी भावनाओं व प्रार्थनाओं को प्रत्येक क्षण सुनता व उसे हमारी पात्रता व क्रियाओं के अनुरूप पूरा करता है। सृष्टि का कर्ता होने से यह समस्त सृष्टि उस ईश्वर के वश वा नियंत्रण में है। यदि हम अनावृष्टि वा सूखा होने पर उससे प्रार्थना व यज्ञ आदि श्रेष्ठ कार्य करेंगे वा अतिवृष्टि होने पर वर्षा को रोकने आदि की प्रार्थना करेंगे तो उसका निश्चित ही सकरात्मक परिणाम ईश्वर हमें प्रदान करेगा। सृष्टि जड़ अवश्य है परन्तु ईश्वर के नियन्त्रण में है। इसका उदाहरण है कि हमारा शरीर पंच भौतिक तत्वों से मिलकर बना है और गुण-कर्म-स्वभाव से यह जड़ है। जड़ होने पर भी स्वस्थ अवस्था में यह शरीरस्थ आत्मा के आदेशों व निर्देशों का पूरा पूरा पालन करता है। इसी प्रकार से शरीरस्थ जीवात्मा से इस भौतिक सृष्टि को परमात्मा की प्रार्थना व यज्ञ आदि के द्वारा निकामे-निकामे=अपनी इच्छा व कामना के अनुरूप किया जा सकता है। आवश्यकता हमें अपने समस्त धार्मिक पूर्वाग्रहों व स्वार्थों को छोड़ने की है। यदि देश व विश्व के सभी लोग पूवार्वग्रहों व स्वार्थों को छोड़ दें तो राम राज्य व आदर्श राज्य पृथिवी पर उपस्थित हो सकता है। यह आदर्श राज्य वेदों की मान्यताओं को व्यवहार में लाने पर ही बनाया जा सकता है। महाभारत काल के लगभग 1.960852 अरब वर्षों तक वैदिक सिद्धान्तों से पोषित राज्य पूरी पृथिवी पर रहा ही है तो आगे भी हो सकता है।

वर्तमान में आर्यसमाज में वेदों व यज्ञ के मर्मज्ञ विद्वानों में हम डा. रघुवीर वेदालंकार, डा. सोमदेव शास्त्री, डॉ. ज्वलंत कुमार शास्त्री, डा. धर्मवीर, स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती और स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी आदि यज्ञप्रेमी अद्वितीय महान हस्तियां हैं। यह लोग समय-समय पर स्थान-स्थान पर वृहत यज्ञों को सम्पादित करते रहते हैं। यदि यह आपस में गोष्ठी कर वृष्टियज्ञ विषयक प्रयास करें तो हमें आशा है कि सफलता मिल सकती है। इन विद्वानों को अपने ज्ञान, अनुभव व कार्यों से देशवासियों का मार्गदर्शन करना चाहिये। हमें यह भी उचित प्रतीत होता है कि देश व विदेश के सभी सहस्रों आर्यसमाजों में दैनिक व साप्ताहिक यज्ञ होते हैं, यदि वहां प्रतिदिन सूखा प्रभावित क्षेत्रों में वर्षा की प्रार्थना व दिव्य भावना के साथ वेदमन्त्रों को बोलकरघृत आदि पदार्थों की आहुतियां दें तो इसके भी सार्थक परिणाम हो सकते हैं। अतः सभी आर्यसमाजों व आर्यसंस्थाओं में होने वाले दैनिक व साप्ताहिक यज्ञों में सूखा प्रभावित क्षेत्रों में वृष्टि होने के लिए ईश्वर से प्रर्थाना सहित कुछ विशेष आहुतियां दी जानी चाहिये।

यज्ञ से वर्षा होती है, यह गीता व वेद के प्रमाणों व पूर्व यज्ञ के विद्वानों के प्रयोगों से सिद्ध है। इस विषय पर पूरी श्रद्धा व निष्ठा से योग्य शोधार्थियों को अनुसंधान करना चाहिये। राज्य व केन्द्र सरकारों को भी इसमें वोट बैंक की राजनीति से उपर उठकर सहयोग ही नहीं करना चाहिये अपितु अपनी प्रमुख व अग्रणीय भूमिका भी निभानी चाहिये। अन्य सभी उपाय भी राज्य व केन्द्र की सरकार कर सकती हंै, इसमें कोई विरोध नहीं है। हमने इस विषय को ज्वलन्त, सामयिक व प्रासंगिक जानकर व अपना कर्तव्य समझकर इसे अपने आज के लेख का विषय बनाया है। आशा है कि सुधी पाठक इस पर सदभावना से विचार करेंगे।

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