जन-सुरक्षा से खिलवाड़ : पुत्तिंगल मंदिर में हादसा

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पुत्तिंगल

प्रमोद भार्गव

केरल में कोल्लम के पास पुत्तिंगल देवी मंदिर परिसर में हुई त्रासदी ऐसी घटना है,जिसे मंदिर प्रबंधन और जिला प्रशासन सचेत रहते तो टाला जा सकता था। क्योंकि मलयालम नववर्ष के उपलक्ष में हर वर्ष जो उत्सव होता है,उसमें बड़ी मात्रा में आतिशबाजी की जाती है। इस आतिशबाजी से हर वर्ष मंदिर के आसपास के लोगों को नुकसान झेलना होता है। इसे रोकने के लिए समाजिक कार्यकर्ता अनिता प्रकाश पहले ही जिला प्रशासन को शिकायत कर चुकी थी। हादसे के बाद घटना स्थल पर पहुंचे कलेक्टर ए शाइनामोल ने कहा भी है कि मंदिर परिसर में आतिशबाजी चलाने की अनुमति नहीं दी गई थी। मंदिर प्रबंधकों को भी आतिशबाजी से दुर्घटना की आशंका जताई गई थी। किंतु प्रबंधन ने इसे नजरअंदाज किया। लेकिन इतना बयान भर दे देने से जिला प्रशासन जबावदेही से बरी नहीं हो सकता है। यदि मंदिर प्रबंधन ने आदेश की अवज्ञा की तो प्रशासन ने आदेश के पालनार्थ कोई कड़ी कार्रवाही क्यों नहीं की। जबकि बड़ी मात्रा में आतिशबाजी का परिसर में भंडारण कर लिया गया था। प्रशासन जनता था कि मलयालम नववर्ष एवं चैत्र नवरात्र के अवसर पर आतिशबाजी की खुली प्रतिस्पर्धा होगी। वैसे भी आतिशबाजी कोई ऐसी गतिविधि नहीं है,जिसे चोरी-छिपे चलाना संभव हो? सर्वोच्च न्यायालय भी मंदिरों में नियमित हो रहे हादसों के क्रम में केंद्र व राज्य सरकारों से देशव्यापी समान नीति बनाने का आग्रह कर चुका है,लेकिन इस दिशा में अब तक कोई पहल ही नहीं हुई है।

देश के धर्म स्थलों पर लगने वाले मेले अचानक टूट पड़ने वाली भगदड़ और आगजनी से बड़े हादसों का शिकार हो रहे हैं। नतीजतन श्रृद्धालु पुण्य लाभ कमाने के फेर में आकस्मिक मौतों की गिरफ्त में आ रहे हैं। इस क्रम में नया हादसा पुत्तिंगल मंदिर हादसा है। इसमें 110 लोगों की मौत हो चुकी है और 383 लोग घायल हैं। यह हादसा इतना बड़ा और हृदयविदारक था कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिकित्सकों का दल लेकर कोल्लम पहुंचना पड़ा। लेकिन इस तरह से संवेदना जताकर और मुआवजा देने की खानापूर्ति कर देने भर से मंदिर हादसों का क्रम टूटने वाला नहीं हैं। जरूरत तो शीर्ष न्यायालय के उस निर्देश का पालन करने की है, जिसमें मंदिरों में होने वाली दुर्घटनाओं को रोकने के लिए राष्ट्रव्यापी समान नीति बनाने का उल्लेख है। यदि प्रधानमंत्री इस हादसे से सबक लेकर इस नीति को बनाने का काम करते हैं तो यह उनकी मृतकों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। क्योंकि पिछले एक दशक से हर साल मंदिरों में एक-दो घटनाएं देखने में आ रही हैं। लाखों की संख्या में जुटने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ को नियंत्रण करने के उपाय न तो मंदिर प्रबंधन के पास हैं और न ही जिला प्रशासन के पास ? जिला प्रशासन धार्मिक आयोजनों के दौरान किस लाचार स्थिति से गुजरता है, इसका ताजा उदाहरण पुत्तिंगल हादसा है। यहां आतिशबाजी चलाने की प्रशानिक इजाजत नहीं थी,बावजूद विस्फोटक सामग्री का न केवल भंडारण किया गया,बल्कि धड़ल्ले से चलाई भी गई। जो प्रशासनिक अमला एवं पुलिस मंदिर परिसर में गैरकानूनी कामों पर अंकुश के लिए तैनात थे,वे स्वयं आतिशबाजी के दर्शक बन इस हादसे का शिकार हो गए। साफ है, ऐसे अवसरों पर अधिकारियों के पास धर्म एवं परंपरा के आगे आंखें मूंदे रखने के अलावा कोई चारा नहीं होता। यही वजह है कि कानून के हाथों के लंबा होने की बात भले ही कही जाती रहे, वे मंदिर प्रबंधन और जिला प्रशासन से जुड़े दोषियों तक किसी भी मंदिर हादसे में नहीं पहुंचे हैं। न्यायिक जांचें भी इन हादसों की कमियों पर पर्दा डालने का ही काम करती हैं। इससे पता चलता है कि हम भारतीय जन-सुरक्षा के नियमों की किस हद तक अनदेखी कर रहे हैं।

भारत में पिछले डेढ़ दषक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही ह्रै। जिसके चलते दर्शनलाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाले भगदड़ व आगजनी का सिलसिला जारी है। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती। इसलिए उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अकसर देखने में नहीं आती। लिहाजा आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमोबेश बेकाबू ही नहीं हुए होते ?

हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक आयोजन विराट रुप लेते जा रहे हैं।  कुंभ मेलों में तो विशेष पर्वों के अवसर पर एक साथ तीन-तीन करोड़ तक लोग एक निश्चित समय के बीच स्नान करते हैं। उज्जैन सिंहस्थ में मध्यप्रदेश सरकार 5 करोड़ लोगों के आने का दावा कर रही हैं। किंतु इस लिहाज से उसके प्रबंध कितने पुख्ता हैं,यह तो कुंभ मेला समाप्त होने पर ही पता चलेगा। दरअसल भीड़ के अनुपात में यातायात और सुरक्षा के इंतजाम देखने में नहीं आते। जबकि शासन-प्रशासन के पास पिछले पर्वों के आंकड़े हाते है। बावजूद लपरवाही बरतना हैरान करने वाली बात है। दरअसल, कुंभ या अन्य मेलों में जितनी भीड़ पहुंचती है और उसके प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की जरुरत होती है, उसकी दूसरे देशों के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते ? इसलिए हमारे यहां लगने वाले मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से नहीं ले सकते ? क्योंकि दुनिया किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेष मुहूर्त के समय लाखों-करोडों़ की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जा सकती ? बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण लेने खासतौर से योरुपीय देशों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देशज ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे।

प्रशासन के साथ हमारे राजनेता, उद्योगपति, फिल्मी सितारे और आला अधिकारी भी धार्मिक लाभ लेने की होड़ में व्यवस्था को भंग करने का काम करते हैं। इनकी वीआईपी व्यवस्था और यज्ञ कुण्ड अथवा मंदिरों में मूर्तिस्थल तक ही हर हाल में पहुंचने की रुढ़ मनोदशा, मौजूदा प्रबंधन को लाचार बनाने का काम करती है। नतीजतन भीड़ ठसाठस के हालात में आ जाती है। ऐसे में कोई महिला या बच्चा गिरकर अनजाने में भीड़ के पैरों तले रौंद दिया जाता है और भगदड़ मच जाती है। बीते साल आंध्रप्रदेश में गोदावरी तट पर घटी घटना एक साथ दो मुख्यमंत्रियों के स्नान के लिए रोक दी गई भीड़ का परिणाम थी।

धार्मिक स्थलों पर भीड़ बढ़ाने का काम मीडिया भी कर रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया टीआरपी के लालच में इसमें अहम् भूमिका निभाता है। वह हरेक छोटे बड़े मंदिर के दर्शन को चमात्कारिक लाभ से जोड़कर देश के भोले-भाले भक्तगणों से एक तरह का छल कर रहा है। इस मीडिया के अस्तित्व में आने के बाद धर्म के क्षेत्र में कर्मकाण्ड और पाखण्ड का आंडबर जितना बड़ा है, उतना पहले कभी देखने में नहीं आया। निर्मल बाबा, कृपालू महाराज और आशाराम बापू जैसे संतों का महिमामंडन इसी मीडिया ने किया था। हालांकि यही मीडिया पाखण्ड के सार्वजनिक खुलासे के बाद मूर्तिभंजक की भूमिका में भी खड़ा हो जाता है। निर्मल बाबा और आशाराम के साथ यही किया गया। मीडिया का यही नाट्य रुपांतरण अलौकिक कलावाद, धार्मिक आस्था के बहाने व्यक्ति को निष्क्रिय व अंधविश्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथास्थिति में बनाए रखने का काम करती है और हम ईश्वरीय अथवा भाग्य आधारित अवधारणा को प्रतिफल व नियति का कारक मानने लग जाते हैं। दरअसल मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवियों का काम लोगों को जागरुक बनाने का है, लेकिन निजी लाभ का लालची मीडिया,धर्मभीरु राजनेता और धर्म की आंतरिक आध्यात्मिकता से अज्ञान बुद्धिजीवी भी धर्म के छद्म का शिकार होते दिखाई देते हैं। यही वजह है कि पिछले एक दशक के भीतर मंदिर हादसों में लगभग तीन हजार से भी ज्यादा भक्त मारे जा चुके हैं। बावजूद श्रद्धालु हैं कि दर्शन, श्रद्धा, पूजा और भक्ति से यह अर्थ निकालने में लगे हैं कि इनको संपन्न करने से इस जन्म में किए पाप धुल जाएंगे, मोक्ष मिल जाएगा और परलोक भी सुधर जाएगा। गोया, पुनर्जन्म हुआ भी तो श्रेष्ठ वर्ण में होने के साथ समृद्ध व वैभवशाली भी होगा। जाहिर है,धार्मिक हादसों से छुटकारा पाने की कोई उम्मीद निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रही है ?

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