आदिवासियों की विरासत सहेजने की जरुरत

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-अरविन्द जयतिलक

याद होगा गत वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र संघ की ‘द स्टेट आफ द वल्र्डस इंडीजीनस पीपुल्स’ नामक रिपोर्ट में कहा गया था कि मूलवंशी और आदिम जनजातियां भारत समेत संपूर्ण विश्व में अपनी संपदा, संसाधन और जमीन से वंचित व विस्थापित होकर विलुप्त होने के कगार पर है। रिपोर्ट से यह भी उद्घाटित हुआ था कि खनन कार्य के कारण हर रोज हजारों जनजाति परिवार विस्थापित हो रहे हैं और उनकी सुध नहीं ली जा रही है। विस्थापन के कारण उनमें गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी बढ़ रही है। गत वर्ष पहले नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट से भी उद्घाटित हुआ कि कोलम (आंध्रप्रदेश और तेलंगाना) कोरगा (कर्नाटक) चोलानायकन (केरल) मलपहाड़िया (बिहार) कोटा (तमिलनाडु) बिरहोर (ओडिसा) और शोंपेन (अंडमान और निकोबार) के विशिष्ट संवेदनशील आदिवासी समूहों की तादाद घट रही है। आंकड़ों पर गौर करें तो स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक उनकी आबादी में दस फीसद की कमी आयी है। आदिवासी बहुल राज्य झारखंड की ही बात करें तो वर्ष 1951 में जहां इनकी आबादी 35.80 फीसद थी, वह 1991 में घटकर 27.66 फीसद रह गयी। वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक उनकी आबादी 26.30 रही जो 2011 की जनगणना के मुताबिक घटकर 26.11 फीसद रह गयी। गौरतलब है कि यह आंकड़ा गत वर्ष पहले झारखंड राज्य के जनजातीय परामर्शदातृ परिषद द्वारा जारी किया गया। यहां सवाल सिर्फ आदिवासियों की घटती तादाद तक ही सीमित नहीं है। परसंस्कृति ग्रहण की समस्या ने भी आदिवासियों को दोराहे पर ला खड़ा किया है। नतीजा न तो वे अपनी संस्कृति बचा पा रहें है और न हीे आधुनिकता से लैस होकर राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो पा रहें हैं। बीच की स्थिति से उनकी संस्कृति दांव पर लग गयी हैैै। गौर करें तो यह सब उनके जीवन में बाहरी हस्तक्षेप के कारण हुआ है। भारत में ब्रिटिश शासन के समय सबसे पहले जनजातियों के सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। ईसाई मिशनरियों ने जनजातीय समुदाय में पहले हिन्दू धर्म के प्रति तिरस्कार और घृणा की भावना पैदा की और उसके बाद उन्हें ईसाई धर्म ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित किया। लिहाजा बड़े पैमाने पर उनका धर्म परिवर्तन हुआ। ईसाईयत न तो उनकी गरीबी को कम कर पायी और न ही उन्हें इतना शिक्षित ही बना पायी कि वह स्वावलंबी होकर अपने समाज का भला कर सकें। ईसाईयत के बढ़ते प्रभाव के कारण हिन्दू संगठन भी उठ खड़े हुए और जनजातियों के बीच धर्म प्रचार आरंभ कर दिए। हिन्दू धर्म के प्रभाव के कारण जनजातियों में भी जाति व्यवस्था के तत्व विकसित हो गये। आज उनमें भी जातिगत विभाजन के समान ऊंच नीच का एक स्पष्ट संस्तरण विकसित हो गया है। यह संस्तरण उनके बीच अनेक संघर्षो और तनावों को जन्म दिया है। इससे जनजातियों की परंपरागत सामाजिक एकता और सामुदायिकता खतरे में पड़ गयी है। आज स्थिति यह है कि धर्म परिवर्तन के कारण बहुत से आदिवासियों को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। हिन्दुओं में खान-पान ,विवाह और सामाजिक संपर्क इत्यादि के प्रतिबंधो के कारण वे उच्च हिन्दू जातियों से पूर्णतया पृथक हैं। जबकि ईसाईयों ने भी धर्म परिवर्तन करके हिन्दू बन जाने वाले आदिवासियों को अपने समूह में अधिक धुलने मिलने नहीं दिया। विवाह और सामाजिक संपर्क के क्षेत्र में उन्हें अब भी एक पृथक समूह के रुप में देखा जा रहा है। आज भारत की उत्तर पूर्वी तथा दक्षिणी भागों की जनजातियों में कितने ही व्यक्ति अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा के रुप में स्वीकार कर अपनी मूलभाषा का परित्याग कर दिया है। सत्यता तो यह है कि प्रत्येक समूह की भाषा में उसके प्रतीकों को व्यक्त करने की क्षमता होती है और यदि भाषा में परिवर्तन हो जाय तो समूहों के मूल्यों और उपयोगी व्यवहारों में भी परिवर्तन होने लगता है। जनजातीय समूहों में उनकी परंपरागत भाषा से संबधित सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्श नियमों का क्षरण होने से जनजातीय समाज संक्रमण के दौर से गुजरने लगा है। जनजातियों की संस्कृति पर दूसरा हमला कारपोरेट जगत की ओर से हो रहा है। यह दुर्भाग्य है कि जंगलो को काटकर और जलाकर उस भूमि को जिस प्रायोजित तरीके से उद्योग समूहों को सौंपा जा रहा है, उसका भी प्रभाव उनकी संस्कृति पर दिख रहा हैं। देश में नब्बे के दशक से ही विदेशी निवेश बढ़ाने की गरज व खनन नीतियों में बदलाव के कारण आदिवासी परंपरागत भूमि से बेदखल हो रहे हैं। एक रिपोर्ट में आदिवासी जनसमुदाय की दशा पर ध्यान खींचते हुए कहा गया है कि इनकी आबादी विश्व की जनसंख्या की महज 5 फीसदी है, लेकिन दुनिया के 90 करोड़ गरीब लोगों में मूलवासी लोगों की संख्या एक तिहाई है। विकसित और विकासशील दोनों ही देशों में कुपोषण, गरीबी और सेहत को बनाए रखने के लिए जरुरी संसाधनों के अभाव और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के कारण आदिवासी जनसमूह विश्वव्यापी स्तर पर अमानवीय दशा में जी रहें हैंै। आमतौर पर जनजातीय समाज सीधा और सरल माना जाता है लेकिन उनकी परंपरागत अर्थव्यवस्था पर हमला ने उन्हें आक्रोशित बना दिया है। मूलवासी जनसमूह आजीविका के संकट से तो जूझ ही रहें हैं साथ ही उन्हें कई तरह की बीमारियों से भी लड़ना पड़ रहा है। अगर विकसित देश अमेरिका की ही बात करें तो यहां जनजातीय समूह के लोगों को तपेदिक हाने की आशंका 600 गुना अधिक है। आस्ट्रेलिया में जनजातीय समुदाय का कोई बच्चा किसी अन्य समूह के बच्चे की तुलना में 20 साल पहले मर जाता है। नेपाल में अन्य समुदाय के बच्चे से जनजातीय समुदाय के बच्चे की आयु संभाव्यता का अंतर 20 साल, ग्वाटेमाला के 13 साल और न्यूजीलैण्ड में 11 साल है। विश्व स्तर पर देखे तो जनजातीय समुदाय के कुल 50 फीसदी लोग टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित हैं। जनजातीय समाज भाषा के संकट से भी जुझ रहा है। संभावना है कि इस सदी के अंत तक जनजातीय समाज की 90 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी। गत वर्ष पहले ‘भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर’ द्वारा किए गए ‘भारतीय भाषाओं के लोकसंरक्षण’ की मानें तो विगत 50 वर्षों में भारत में बोली जाने वाली 850 भाषाओं में तकरीबन 250 भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं और 130 से अधिक भाषाओं का अस्तित्व खतरे में है। इन विलुप्त होने वाली भाषाओं में सर्वाधिक आदिवासियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं हैं। शोध के मुताबिक असम की 55, मेघालय की 31, मणिपुर की 28, नागालैंड की 17, और त्रिपुरा की 10 भाषाएं मरने के कगार पर हैं। इन्हें बोलने वालों की संख्या लगातार तेजी से घट रही है। उदाहरण के तौर पर सिक्किम में माझी बोलने वालों की संख्या सिर्फ 4 रह गयी है। छोटे से राज्य अरुणाचल में ही 90 से अधिक भाषाएं बोली जाती है। इसी तरह ओडिसा में 47 और महाराष्ट्र एवं गुजरात में 50 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। चूंकि भारत भाषायी विविधता से समृद्ध देश है लिहाजा आदिवासी क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाओं का विशेष संरक्षण जरुरी है। वैश्विक आंकड़ों पर गौर फरमाएं तो दुनियाभर में 199 भाषाएं ऐसी हैं जो आदिवासी क्षेत्रों में बोली जाती है और अब उनके बोलने-लिखने वाले लोगों की संख्या एक दर्जन से भी कम रह गयी है। किंतु दुर्भाग्य है कि इस भाषायी विविधता को बचाने का कोई ठोस पहल नहीं हो रहा है। चिंता की बात यह भी है कि जनजातीय समूह सभ्य कहे जाने वाले लोगों के भी निशाने पर हैं। अमेरिका हो या भारत हर जगह विकास के नाम पर जंगलों का उजाड़ा जा़ रहा है। अपनी सुरक्षा और रोजी-रोजगार के लिए जनजातिय समूह के लोग अपने मूलस्थान से पलायन कर रहे हैं। दूसरे समूहों में जाने और रहने के कारण उनकी भाषा और संस्कृति प्रभावित हो रही है। आज जरुरत इस बात की है कि जनजातियों का जीवन व संस्कृति दोनों बचाया जाए। अन्यथा संस्कृृति और समाज की टूटन उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग कर देगी।

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