मार्क्सवादियों का हिंदू विरोध!

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bhagat-singh1अभी समाचारों में हैं। उनकी पुस्तक दिल्ली विश्वविद्यालय की पाठ्य-सूची से हटा दी गई है, जिस में भगत सिंह को ‘आतंकवादी’ कहा गया था। यदि बिपन चंद्र होते, तो उसी तरह अपना बचाव करते जैसे उन के सहयोगी कर रहे हैं। वे कहते कि आतंकवादी का जो अर्थ अब है, वह तब न था। इस में यह बात नहीं छिपाई जाती है कि स्वयं भगत सिंह ने अपने को आतंकवादी नहीं माना था। इस प्रकार, उन्हें यह विशेषण देना भूल थी।
लेकिन यह बात स्वीकार न कर रोमिला थापर, इरफान हबीब, आदि मार्क्सवादी इतिहासकार आर.एस.एस. को बुरा-भला कह रहे हैं, जो उन का प्रिय शगल है। जबकि अभी उस पुस्तक पर कार्रवाई करने का निर्देश कांग्रेस नेता और राज्यसभा अध्यक्ष पी. जे. कुरियन ने दिया था। अतः असली बात से हट कर बनी-बनाई रट लगाना मार्क्सवादियों की वैचारिक बेड़ी रही है। इस में वे खुद बँधे रहे और पूरे इतिहास अध्ययन-शिक्षण को बाँधे रहे। अच्छा हो, यह बेड़ी पूरी तरह तोड़ कर हटा दी जाए, ताकि देश में वास्तविक इतिहास पढ़ना-पढ़ाना शुरू हो सके।

यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आज यहाँ हिन्दुत्व, सांप्रदायिकता और इस्लाम को लेकर जितनी भी गलत प्रस्थापनाएं हैं, वे इन मार्क्सवादियों द्वारा ही गढ़ी गई। बिपन चंद्र उन में प्रमुख थे। उन्हीं प्रस्थापनाओं के कारण हिन्दू धर्म, समाज और आर.एस.एस. पर चोट करते रहना मार्क्सवादियों का मुख्य काम बन गया। मुद्दा कुछ हो, वे यही करते हैं। इस के सिवा उन्होंने आज तक कुछ नहीं सीखा! यह विचित्र लग सकता है, किन्तु इसे कोई स्वयं परख सकता है।

बिपन चंद्र और उन के सहयोगी मार्क्सवादियों की मूल प्रस्थापनाएं इस प्रकार हैं – हिन्दू धर्म कोई चीज नहीं, वह ‘ब्राह्मणवाद’ है जो निचली जातियों पर अत्याचार करता है। इस्लाम के आगमन (उसे आक्रमण न कहें!) से पहले भारत कोई महान सभ्यता नहीं था जबकि इस्लाम समानता का महान दर्शन है, जिस के योगदान से यहाँ सांस्कृतिक विकास हुआ। भारत में कोई मुस्लिम शासन-काल न था। मुस्लिम शासक भारतीय थे, जिन्हें विदेशी कहना सांप्रदायिकता है। उन शासकों ने हिन्दुओं पर ऐसे कोई जुल्म न किए जो पहले नहीं होते थे। अतः राणा प्रताप, शिवाजी, आदि को राष्ट्रीय नायक कहना सांप्रदायिकता है। बीसवीं सदी में लोकमान्य तिलक, श्रीअरविन्द, महात्मा गाँधी जैसे लोगों ने सांप्रदायिकता की शुरुआत की। मुस्लिमों ने तो केवल जवाब दिया। इसलिए मुस्लिम सांप्रदायिकता दोषी नहीं, बल्कि बिपन चंद्र के अनुसार ‘मोर जस्टिफायेबल’ है। अतः हिन्दू सांप्रदायिकता को हराना जरूरी है। साथ ही, कोई ऐसी बात न की जाए जो मुसलमानों को नापसंद हो।

कुल यही प्रस्थापनाएं मार्क्सवादी, सेक्यूलरवादी लेखों, भाषणों की बुनियाद हैं। सांप्रदायिकता पर सब से अधिक बिपन चंद्र ने लिखा। किन्तु सांप्रदायिकता की उन की पूरी परिभाषा ऐसी गोल है, कि उस का सिरा पल्ले नहीं पड़ता। फिर भी हिन्दू-विरोधी, आर.एस.एस.-भाजपा विरोधी होने के कारण वह राजनीतिक रूप से उपयोगी रहा, इसलिए उसे कांग्रेस का प्रोत्साहन मिला तो मार्क्सवादियों को पुरस्कार और कुर्सियाँ भी।

बिपन चंद्र की वह परिभाषा देखें, ‘सांप्रदायिकता अपने-आप में एक विचारधारा है। एक मायने में वह राजनीति है, जो उस विचारधारा के इर्द-गिर्द चक्कर लगाती है।’ यानी, सांप्रदायिकता सांप्रदायिकता के गिर्द चक्कर लगाती है! यह बिपन चंद्र की सब से विचित्र परन्तु केंद्रीय प्रस्थापना है, जिसे उन्होंने खूब दुहराया। जैसे, ‘सांप्रदायिकता पिछले सौ सालों की ऐतिहासिक प्रक्रिया की मिथ्या चेतना थी और है। बाद में वह समकालीन सांप्रदायिक राजनीति के प्रभाव में, इतिहासकारों के हाथों अतीत की झूठी तस्वीर बन गई।’ ध्यान दें, ये दो पंक्तियाँ मिलकर फिर गोल हो जाती हैं। कि सांप्रदायिकता सांप्रदायिकता के प्रभाव में अतीत की झूठी तस्वीर बन जाती है! लाख कोशिश करें, इस गोल तर्क का सिरा नहीं मिलेगा।

इसी तरह, बिपन चंद्र की पक्की टेक थी कि सांप्रदायिकता ‘पिछले सौ साल’ का मामला है। यह उन्होंने 1960 के दशक में लिखा। यानी उन के हिसाब से सांप्रदायिकता लगभग 1857 के बाद की चीज हुई। यह काल-सीमा बिपन चंद्र की मानसिक बेड़ी बन गई, यद्यपि सारे कम्युनिस्ट अंधविश्वासियों की तरह उन्होंने भी इसे नहीं समझा।

बेड़ी इस अर्थ में कि जिसे बिपन चंद्र ने सांप्रदायिकता माना – वही जब दो सौ या आठ सौ साल पहले हू-ब-हू उसी रूप में मिलती हो तो वे उसे सांप्रदायिकता मानने से ही इंकार कर देते थे! जैसे, यदि आज किसी का बयान ‘सांप्रदायिकता’ है, वही यदि तीन सौ साल पहले मुगल बादशाह के मुँह से निकला हो तो वह सांप्रदायिकता नहीं। अथवा, जो हिंसा अभी ‘सांप्रदायिक दंगा’ है, ठीक वैसी चीज अठारहवीं शती में सांप्रदायिक दंगा नहीं हैं। क्यों? क्योंकि बिपन चंद्र ने सौ साल वाली सीमा बाँध दी है! इसलिए उस से पहले जो हुआ, उसे सांप्रदायिकता नहीं माना जा सकता। सांप्रदायिता माने आर.एस.एस.! यह जिद मार्क्सवादियों के हिन्दू-विरोध का मुख्य आधार है। अन्यथा बिपन चंद्र ने सांप्रदायिकता को पहचानने के जो फार्मूले बनाए, उसी से सदियों पहले भारत के कई मुस्लिम शासकों में ‘सांप्रदायिकता’ साफ देखी जा सकती है। बिपन चंद्र के शब्दों में, ‘हमें एक विश्वास या व्यवस्था के रूप में धर्म, जिस का लोग अपने दैनिक जीवन में उपयोग करते हैं; तथा एक धर्म-आधारित सामाजिक-राजनीतिक पहचान की विचारधारा में फर्क करना चाहिए, जो सांप्रदायिकता है।’

इस आधार पर इस्लाम के मूल ग्रंथ और उस के संस्थापक से लेकर तमाम खलीफाओं, सुलतानों, बादशाहों के बनाए कानून सांप्रदायिकता के मूल-स्त्रोत साबित होते हैं! आज भी मुस्लिम देशों में मजहब और राजनीति एक दूसरे से अभिन्न है। उन में केवल मात्रात्मक अंतर है, सैद्धांतिक नहीं। अतः जैसे भी देखें, बिपन चंद्र द्वारा दी गई सांप्रदायिकता की परिभाषा – ‘धर्म-आधारित सामाजिक-राजनीतिक पहचान की विचारधारा’ – इस्लाम और उस की उम्मत राजनीति पर हू-ब-हू फिट होती है। इस तरह इस्लाम शुरू से और अपने संपूर्ण अस्तित्व में ‘सांप्रदायिक’ हुआ। किन्तु क्या बिपन चंद्र ने उसी परिभाषा से इस्लाम को सांप्रदायिकता, इस्लामी देशों को सांप्रदायिक देश, और भारतीय इतिहास में मुस्लिम शासकों को सांप्रदायिक माना? कभी नहीं।

उन का संपूर्ण लेखन दिखाता है कि बिपन चंद्र ने अपनी परिभाषा केवल ‘हिन्दू सांप्रदायिकों’ को लताड़ने के लिए बनाई थी। मगर इस भोलेपन से, मानो उसे कोई मुसलमानों पर लागू नहीं करेगा! जैसे यहाँ सेक्यूलर राजनीति मुस्लिम नेताओं को ‘सेक्यूलरिज्म’ की निष्ठा से छूट देती है, उसी तरह बिपन चंद्र ने सांप्रदायिकता की परिभाषा और विश्लेषण से इस्लाम व मुस्लिम बादशाहों को मुक्त रखा है। तो बिपन चंद्र ने भूल की थी, या राजनीति? यह सवाल अधिक गंभीर है।
बिपन चंद्र का स्थाई अंदाज रहा कि ‘बीजेपी’ और ‘साइंटिफिक और सेक्यूलर हिस्टरी’ के सिवा पूरे बौद्धिक परिदृश्य में किसी और नजरिए का अस्तित्व नहीं। यह लेनिनवादी किस्म का अंधविश्वास बिपन चंद्र की विशेषता थी। ‘साइंटिफिक, सेक्यूलर हिस्टरी’ के अलावा कोई इतिहास-लेखन नहीं, वह सिर्फ बीजेपी की कुत्सा है। जो इस से भिन्न कुछ कहे, वह संघी-सांप्रदायिक। गोल तर्क का गोल फैसला। तथ्यों की जरूरत ही नहीं।

इसी अंधविश्वास में बिपन चंद्र अन्य कामरेड इतिहासकारों के साथ अयोध्या-विवाद में भी कूदे, और मुसलमानों को कट्टर रुख लेने को प्रेरित किया। ताकि किसी समझौते की संभावना खत्म हो, क्योंकि मार्क्सवादियों का मुख्य लक्ष्य संघ-भाजपा को हराना था! अयोध्या-विवाद पर यह रुख मुसलमानों का नहीं था। इस के लिए उन्हें मार्क्सवादी इतिहासकारों ने उकसाया था। इसलिए, अयोध्या-विध्वंस के असली दोषी यही लोग थे। यह सब भगत सिंह को ‘आतंकवादी’ कहने से अधिक बड़े अपराध हैं जिस का हिसाब मार्क्सवादियों से लेना चाहिए।

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