वर्षाजल संचय पर गंभीरता से विचार हो

harvestingडा. राधेश्याम द्विवेदी
सूखे से देश के लोगों की स्थिति बड़ी ही दयनीय बन चुकी है। देश के नौ राज्य इस समय भयंकर सूखे की चपेट में हैं। जहां प्रकृति का मौन कहर टूट रहा हो, उस ओर से हम सब और हमारी सरकारें पूर्णत: संवेदनशून्य रहती हैं।देश के नौ राज्यों में सूखा पड़े, हमारे अपने लोग कई-कई किलोमीटर दूर से पानी लेने के लिए पैदल यात्रा करें और वहां पानी को लेकर झगड़ें, सिर फुटौवल करें ये सब चीजें हमें हिला नही पाती हैं। यदि हमारे सांसदों का राष्ट्रीय दृष्टिकोण हो तो जैसे अब नौ राज्य भयंकर सूखे की मार झेल रहे हैं, ऐसे में इन राज्यों के जनप्रतिनिधियों को एक सामूहिक शिष्टमंडल बनाना चाहिए था और उसके सौजन्य से इन्हें क्षेत्र में उतरना चाहिए। इन्हें कई स्थानों पर स्वयं सक्रिय होकर ऐसे उपाय खोजने चाहिए जो सरकार के लिए उपयोगी हों, अधिकारियों के साथ तथा जनता के लोगों के साथ बैठकर उन संभावनाओं पर विचार करना चाहिए जिनसे इस प्रकार की प्राकृतिक विपदाओं से पार पाया जा सके। देश में विचार गोष्ठियों का आयोजन हो और उन विचार गोष्ठियों के निष्कर्षों को लोगों की राय के रूप में विशेषज्ञों और सरकार के सामने रखना चाहिए। पर दुर्भाग्य की बात है कि ये सारे के सारे सांसद महोदय अपने-अपने चुनाव को जीतने के लिए ये सदा तिकड़में भिड़ाते हैं और तिकड़म ही खोजते रहते हैं। इनके चलते ही देश में क्षेत्रवाद, भाषावाद, प्रांतवाद, जातिवाद और सम्प्रदायवाद जैसी बीमारियां फैली हैं।
जल संकट एक चुनौती:- देश में जल संकट की जो विषम स्थिति उत्पन्न हो गयी है वह हमारे भविष्य के लिए एक चुनौती बनती जा रही है और साथ ही एक चेतावनी भी कि यदि अभी नही चेते तो भयंकर परिणामों के लिए तैयार रहो। हमारे वेदों में वर्षा कराने के मंत्र हैं, वृष्टि यज्ञ कराने का विधान है। मोदी सरकार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रचारिका है, और उसमें उसका विश्वास भी है, तो उससे अपेक्षा की जाती है कि वह वृष्टि यज्ञ की भारत की प्राचीन परंपरा को पुन: जीवित और विकसित करें। दूसरे-राजस्थान की ओर से समुद्र से पाइपों के माध्यम से पानी को देश की नदियों तक लाया जाकर उनके जल का शोधन कराके उसे नदियों में डाला जाए। जिससे नदियों का अस्तित्व बचेगा, हरियाली बचेगी, सूखी धरती और प्यासे लोगों की प्यास बुझेगी। यह कार्य थोड़ा जोखिम भरा तो है पर जब हम इतनी दूर से गैस पाइप लाइन ला सकते हैं तो पानी को लाना भी हमारे लिए असंभव नही है। हम संकल्प लेने से बचते हैं यदि हम संकल्प ले लें तो सब कुछ संभव है। तीसरे-वर्षा जल को हमें संचित करने की प्रक्रिया पर गंभीरता से विचार करना होगा।
देश सूखे और अनावृष्टि की चपेट में:- पिछले दो साल में देश का बड़ा हिस्सा सूखे और अनावृष्टि का कहर झेल चुका है। पिछले वर्ष नौ राज्यों को सूखा प्रभावित घोषित किया गया था। कई राज्य तो सूखा घोषित भी नहीं करते, ताकि किसानों को राहत पहुंचाने की बाध्यता से बच सकें। इस साल दस राज्यों ने खुद को सूखा प्रभावित घोषित किया, जबकि अतिरिक्त चार राज्य भी सूखा प्रभावित हुए। अब जाकर सरकार ने माना है कि देश के 676 जिलों में से 254 जिले सूखे से प्रभावित हैं, जबकि इससे ज्यादा इलाके प्रभावित हैं। देश की कुल फसल क्षेत्र के दो तिहाई यानी चौदह करोड़ हेक्टेयर को सूखा प्रभावित माना गया है, जिसका आधा अत्यधिक सूखा प्रभावित है। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली आबादी, पशु-पक्षी, जीव जंतु तो तबाह हैं ही, शहरों में भी पानी का संकट काफी बढ़ गया है। भूमिगत जल भंडार सूखे के समय हमें बचाते थे, लेकिन पिछले साठ-पैंसठ वर्षों में वर्षाजल के संचय की परंपरागत प्रणालियों- झील, तालाब, कुएं, आहर, पईन आदि- को हमारी गलत नीतियों के कारण काफी नुकसान पहुंचा है। इसके साथ ही भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन के कारण भूजल स्तर काफी नीचे चला गया है।
भूमिगत जल-स्रोतों सूखने लगे:- भूमिगत जल-स्रोतों को कभी अक्षय भंडार माना जाता था। लेकिन ये संचित भंडार अब सूखने लगे हैं। बिजली और डीजल के शक्तिशाली पंपों के सहारे खेती, उद्योग और शहरी जरूरतों के लिए इतना अधिक पानी खींचा जाने लगा कि भू-जल के प्राकृतिक संचय और यांत्रिक दोहन के बीच का संतुलन बिगड़ गया और जल-स्तर नीचे गिरने लगा। केंद्रीय तथा उत्तरी चीन, पाकिस्तान के कई हिस्सों, उत्तरी अफ्रीका, मध्य-पूर्व तथा अरब देशों में यह समस्या बहुत गंभीर हो गई है। नीरी (नेशनल एनवार्नमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट) के अध्ययन में काफी पहले यह पाया था कि भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन के कारण पूरे देश में भूमिगत जल का स्तर काफी नीचे चला जाता है। बिहार, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश के बाढग़्रस्त इलाकों में भी बाढ़ का पानी हट जाने के बाद गरमी के दिनों में भू-जल स्तर काफी नीचे चला जाता है। तालाबों की नियमित उड़ाही न होने के कारण यह संकट पैदा हुआ है।
भू-जल के गिरते स्तर:- भूजल स्तर गिरने के संबंध में राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक संस्थानों की ओर से 1960 के दशक से ही चेतावनी मिल रही थी। श्रीलंका स्थित ‘इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट’ ने बहुत पहले आगाह किया था कि ‘भू-जल के गिरते स्तर के कारण भारत के अन्न उत्पादन में एक चौथाई की गिरावट आ सकती है।’ जब सूखा आता है तो पशुओं के चारे-पानी का भी अकाल हो जाता है और पशु मरने लगते हैं। ध्यान देने की बात है कि भारत में कृषि-आय का एक चौथाई पशुपालन से आता है। भारत की लगभग पैंसठ प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है। भू-जल स्तर के गिरते जाने से किसानों के नलकूप बेकार हो जाते हैं और कुएं सूख जाते हैं। नलकूपों को उखाडक़र और ज्यादा गहरा नलकूप गड़वाना पड़ता है। खेती में पानी की समस्या आने वाले वर्षों में विकराल रूप ले सकती है और भारत को अन्न संकट का भी सामना करना पड़ सकता है। असंतुलित खनन के कारण ओडि़शा, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के अनेक इलाकों में जल-संकट पैदा हो रहा है, क्योंकि जल का संचय करने वाले पत्थरों के कोटर (रिक्त स्थान) समाप्त हो गए हैं।
कम सिंचाई वाली फसल खोजने चाहिए:- डीजल व बिजली से चलने वाले पंपों से सिंचाई सुगम होने लगी तो सूखा झेलने वाली और कम सिंचाई में भी बेहतर उपज देने वाली फसलों, जैसे जौ, बाजरा, रागी, सरसों, राई आदि की उपेक्षा की जाने लगी। जिन्हें मोटा अनाज कहा जाता है वास्तव में वे अत्यधिक पौष्टिक और स्वास्थ्यवद्र्धक होते हैं। गन्ने में पानी की अत्यधिक जरूरत होती है। जलजमाव वाले गांगेय क्षेत्र तथा इस जैसे इलाके उसके लिए उपयुक्त हैं लेकिन महाराष्ट्र जैसे सूखे वाले इलाके में गन्ने की खेती के लिए भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण भूजल स्तर आठ फुट तक नीचे चला गया है। लेकिन गहरे बोरिंग से पंप द्वारा भूजल का दोहन शुरू होने के कारण वहां भी फिर से संकट पैदा हो गया है। अब वहां बोरिंग की पाइपों को कंक्रीट से भर कर बंद किया जा रहा है।
भारत में सालाना औसतन चालीस करोड़ हेक्टेयर मीटर वर्षा होती है। प्राचीन काल से ही झीलों और तालाबों के रखरखाव तथा नए तालाबों के निर्माण व कुओं की खुदाई की परंपरा रही है। दक्षिण बिहार में आहर और पईन वाली प्रणाली के कारण भूजल स्तर बना रहता था और अकाल के समय भी वहां तबाही नहीं होती थी। उत्तर बिहार में हजारों तालाबों की श्रृंखला होती थी। ये तालाब नालों से जुड़े होते थे। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में इसी प्रकार के हजारों-हजार तालाब थे। अन्य राज्यों में भी जलसंचय की अलग-अलग तरह की प्रणालियां रही हैं। सरकार और समाज दोनों ने इसकी उपेक्षा की है। लेकिन इन प्रणालियों को पुनर्जीवित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। राजस्थान में बहुत कम वर्षा होती है लेकिन वहां घरों के आंगन में बनी कुंडी और कुंड में छत पर बरसने वाले बूंद-बूंद पानी का संचय किया जाता है।
वन वर्षा-वर्षाजल का संचय करती हैं:- वन वर्षा को आकर्षित करते हैं और पेड़-पौधों की जड़ें धरती में वर्षाजल का संचय करती हैं। लेकिन वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण समस्या खड़ी हो गई है। चेरापुंजी में सर्वाधिक वर्षा होती है, लेकिन वन-विनाश के कारण पहाड़ों के कोटरों में वर्षाजल संचित नहीं हो पाता और झरने सूख जाते हैं। वहां छत पर बरसने वाले पानी को अल्युमिनियम की बड़ी-बड़ी टंकियों में संचित करके साल भर काम चलाना पड़ता है। सामाजिक वानिकी के नाम पर एक दौर में बड़े पैमाने पर युक्लिप्टस तथा पॉप्लर जैसे व्यावसायिक पेड़ों को फैलाया गया, जिन पर चिडिय़ां भी नहीं बैठतीं और पत्तियां खेतों को अम्लीय बनाती हैं। ये वर्षाजल का अत्यधिक दोहन करते हैं। ये सिर्फ दलदली इलाकों के लिए उपयुक्त हैं। लेकिन आज भी पॉप्लर के पेड़ों को बढ़ावा दिया जा रहा है। अनाज उत्पादन बढ़ाने के लिए हमने जो तरीके अपनाए उनसे रसायनों के साथ-साथ खेती में पानी की खपत बहुत बढ़ गई। अब जो स्थिति है उसमें इसे जारी रखना संभव नहीं होगा। अभी भारत के कृषिक्षेत्र का लगभग पैंतालीस प्रतिशत सिंचित माना जाता है। सच्चाई तो यह है कि चालीस प्रतिशत से ज्यादा सिंचित नहीं है। यानी लगभग साठ फीसद क्षेत्र असिंचित है। अब जब सिंचित क्षेत्र भी संकट में पड़ गया है तो हमें अपने कृषि अनुसंधान को इस दिशा में मोडऩा होगा कि कम सिंचाई में या बिना सिंचाई के ही अधिक उत्पादन वाली फसलें उगा सकें। रासायनिक कृषि से फसल-चक्र बिगड़ गया है। कई फसलों को मिश्रित रूप से बोने वाली मिश्रित कृषि में पानी की जरूरत कम होती है। जबकि एक ही फसल बार-बार लगाने से मिट्टी की उर्वरा-शक्ति नष्ट हो जाती है। दाल और अनाज वाली फसलों को अदल-बदल कर बोने या मिश्रित रूप से बोने पर खेत उर्वर बने रहते हैं।
जैविक खेती को बढ़ावा:- रासायनिक खादों तथा जहरीले कीटनाशकों के इस्तेमाल के कारण मिट्टी में नमी को टिकाए रखने की क्षमता समाप्त होती जा रही है, क्योंकि रसायनों के कारण खेती के मित्र जीव-जंतुओं व सूक्ष्मजीवों का नाश हो रहा है। केंचुए न केवल भूमि को उर्वर बनाते हैं बल्कि जमीन में एक मीटर गहरे छिद्र भी बनाते हैं। इन छिद्रों द्वारा जमीन में आसानी से वर्षाजल का संचय होता है। जैविक कृषि में खेती की लागत भी घटती है और सिंचाई की भी बहुत कम जरूरत होती है। लेकिन जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए जरूरी है कि रासायनिक खादों पर दी जाने वाली भारी सबसिडी की राशि जैविक खेती को बढ़ावा देने में लगाई जाए।संकट का बड़ा कारण यह है कि सिंचाई के लिए बड़े पैमाने पर बांध बनाए गए ज्यादातर बांध अपने घोषित लक्ष्यों को पूरा नहीं कर सके और सार्वजनिक धन की भारी बर्बादी हुई। नदियों की तबाही और मछलियों तथा अन्य जीव-जंतुओं की समाप्ति के साथ-साथ विस्थापन का संकट भी खड़ा हुआ। बंगलुरुहो, पटना हो, आगरा हो, दिल्ली हो, हर जगह सडक़ों पर बरसात का पानी जमा हो जाता है, क्योंकि जलसंचय के लिए बने तालाब समाप्त हो गए हैं। बूंद-बूंद पानी से फिर से भूजल को समृद्ध करना होगा। अन्यथा लोग पानी के लिए हाहाकार करेंगे। यह अत्यंत आवश्यक है कि उद्योग अपनी पानी की जरूरतें घटाएं और इसके लिए उपयुक्त तकनीक का प्रयोग तथा इस्तेमाल जल का पुनर्चक्रण करें। शहरों में तेजी से अपार्टमेंट बनाने वाले बिल्डरों को इस बात के लिए जिम्मेदार बनाया जाए कि वे अपार्टमेंट में इस्तेमाल होने वाले पानी के पुनर्चक्रण की प्रणाली जरूर लगाएं। इस प्रणाली को निरंतर चालू रखने के लिए नियमों को सख्त बनाया जाए। खतरे की घंटी बज चुकी है।
पानी को तालाबों में रोकने की व्यवस्था:- ‘गांव का जल गांव के लिए’ की योजना बनाकर सारे पानी को गांव के तालाबों में ही रखने पर बल दिया जाए। गांवों में लोगों ने पानी की मोटरें नलकों पर लगा ली हैं जो कि भूगर्भीय जल के दोहन का सबसे अधिक घातक साधन सिद्घ हो रही है। गांवों में ऐसी व्यवस्था की जाए कि पानी के मीटर लगाकर उन लोगों की रोजाना की आवश्यकता का अंदाजा लगाकर वहां तक बिजली न्यूनतम दर पर दी जाए, परंतु उससे अधिक पानी खर्च करने पर बिजली की दरों में ऐसी वृद्घि की जाए जो कि उन्हें दण्डात्मक दिखायी दे। प्रकृति के प्रति अपने कत्र्तव्यों को न समझने की मूर्खता की सारा देश सजा भुगत रहा है और सरकारें लोकप्रिय निर्णय लेने के चक्कर में प्रकृति के साथ हो रहे अन्याय को सहन करती जा रही हैं। जिससे हम सब विनाश की ओर बढ़ते जा रहे हैं। उस विनाश से बचने का अब समय आ गया है।
वर्षाती जल को रोकने की व्यवस्था:- शहरों में वर्षाती जल को रोकने के लिए उसे छत आदि से सीधे नीचे धरती उतारने की व्यवस्था की गयी है, पर उसे कड़ाई से लागू नही किया गया है। जबकि उसे भी कड़ाई से लागू करने की आवश्यकता है। शहरों के सीवर लाइन के जल को भी पुन: शुद्घ करके उसे खेती के योग्य और जहां तक संभव हो सके, पीने योग्य बनाने की ओर ध्यान दिया जाए। विशेषत: लोगों को इन सभी उपायों को समझाने के लिए देश के शहरों-कस्बों व गांवों में उतारना होगा। कहने का अभिप्राय है कि जल की एक बूंद भी नष्ट न हो, ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए। हर व्यक्ति को अपने घर में भी पानी को इस प्रकार व्यय करना चाहिए जैसे कि वह स्वयं भी अपने अन्य देशवासियों की भांति जल संकट का सामना कर रहा है। यदि ऐसा भी किया जाता है तो यह भी एक प्रकार की देश सेवा ही होगी।
पानी को तालाबों में रोकने की व्यवस्था:- ‘गांव का जल गांव के लिए’ की योजना बनाकर सारे पानी को गांव के तालाबों में ही रखने पर बल दिया जाए। गांवों में लोगों ने पानी की मोटरें नलकों पर लगा ली हैं जो कि भूगर्भीय जल के दोहन का सबसे अधिक घातक साधन सिद्घ हो रही है। गांवों में ऐसी व्यवस्था की जाए कि पानी के मीटर लगाकर उन लोगों की रोजाना की आवश्यकता का अंदाजा लगाकर वहां तक बिजली न्यूनतम दर पर दी जाए, परंतु उससे अधिक पानी खर्च करने पर बिजली की दरों में ऐसी वृद्घि की जाए जो कि उन्हें दण्डात्मक दिखायी दे। प्रकृति के प्रति अपने कत्र्तव्यों को न समझने की मूर्खता की सारा देश सजा भुगत रहा है और सरकारें लोकप्रिय निर्णय लेने के चक्कर में प्रकृति के साथ हो रहे अन्याय को सहन करती जा रही हैं। जिससे हम सब विनाश की ओर बढ़ते जा रहे हैं। उस विनाश से बचने का अब समय आ गया है।

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