हैवानियत की हद

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victim-girl-अरविंद जयतिलक
देश एक बार फिर शर्मिंदा हुआ है। इंसान और शैतान होने का फर्क फिर मिटा है। फिर प्रमाणित हुआ है कि राज्य प्रशासन नींद की गोलियां लेकर सो रहा है और शरीर के लूटेरे चील-कौवे आजाद हैं। उत्तर प्रदेश राज्य के बुलंदशहर में राष्ट्रीय राजमार्ग पर मां-बेटी के साथ दुष्कर्म की घटना न सिर्फ शैतानों की दरिंदगी की इंतेहा भर है बल्कि सड़-गल चुके राज्यतंत्र की नाकामी की चरम पराकाष्ठा भी है। यह घटना न सिर्फ राज्य प्रशासन की घोर लापरवाही को उजागर किया है बल्कि यह भी तस्दीक कराया है कि राज्य में जंगल का कानून चल रहा है और अपराधियों के हौसले बुलंद हैं। अगर बुलंदशहर की पुलिस अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रही होती तो रुह कंपा देने वाली यह घटना नहीं घटती। इसलिए कि जिस स्थान पर मां-बेटी की इज्जत को तार-तार किया गया उसी इलाके में पहले भी बेखौफ बदमाशों ने रहजनी और लूटपाट की। अगर इन घटनाओं को गंभीरता से लिया गया होता और दोषियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई की गयी होती तो आज मानवता शर्मसार नहीं होती। हद तो यह है कि पहले राज्य प्रशासन ने इस मामले को दबाने की बेइंतहा कोशिश की लेकिन जब मामला तूल पकड़ा तो कुछ पुलिस अधिकारियों को निलंबित कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली। मौंजू सवाल यह है कि क्या इस कार्रवाई भर से पुलिस जवाबदेह होगी और उसका इकबाल स्थापित होगा? कहना मुश्किल है। इसलिए कि हर ऐसी बलात्कार की घटना के बाद निलंबन की कार्रवाई होती है और पुलिस का रवैया जस का तस बना रहता है।

अब सत्ता और नौकरशाही के सिरमौर अश्रुपुरित नजरों से संवेदना की नदी बहा रहे हैं। लेकिन क्या इन दिखावटी संवेदनाओं से राज्य में बहू-बेटियां सुरक्षित रहेंगी? क्या अपरपाधियों के हौसले पस्त होंगे? कहना मुश्किल है। सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश में आए दिन इस तरह की घटनाएं लोगों को दहशत में डाल रही है और लोग खौफजदा हैं। इस घटना ने न सिर्फ राजव्यवस्था के इकबाल को चिथड़ा-चिथड़ा किया है बल्कि लिबास नापने वाले समाज को भी नंगा कर दिया है। समाज उद्वेलित व हतप्रभ है, वहीं सत्ता भी लज्जित और लुटी-पिटी नजर आ रही है। रहनुमाओं के चेहरे पर बदहवासी और बेबसी की बेशर्म पीड़ा देखा जा सकता है। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? फर्क तो तब पड़ता जब राज्य में कानून का शासन स्थापित होता। इज्जत के लूटेरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होती। फर्क तब पड़ता जब राजसत्ता झूठ-प्रवंचना के खोल से बाहर निकल आधी आबादी की सुरक्षा व सलामती की गारंटी देती। फर्क तब पड़ता जब अदालतें हवस के भूखे भेडियों को तत्काल शूली पर लटकाती? इस घटना ने फिर सोचने पर विवश किया है कि आखिर हम किस राज्यव्यवस्था में जी रहे हैं जहां इंसानी रिश्ता सिर्फ शिकार और शिकारी का बन चुका है। आखिर यह कैसा राज्य व समाज है जहां दरिंदों के आगे कानून-व्यवस्था दम तोड़ रही है और मानवता चीत्कारें भर रही है? यह कैसा समाज है जहां रिश्ते बेमानी हो चुके हैं और आंखों का पानी मर चुका है? यह कैसा समाज और कैसी शासन व्यवस्था है जहां इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटनाओं से सत्ता उद्वेलित तक नहीं है? यह कैसा लोकतंत्र है जहां हत्या, लूट और बलात्कार के आरोपियों को सर्वोच्च पंचायत में पहुंचने की आजादी है? यह कैसा जनतंत्र है जिसके अलंबरदारों पर समाज को तोड़ने और रौंदने के घिनौने आरोप हैं? यह सभ्य समाज की कैसी दृष्टिबोध है जो ऐसे अपराधियों को अपना जनप्रतिनिधि चुन रही है जिनके पास इंसानियत और हैवानियत का फर्क समझने की संवेदना नहीं? समझना कठिन हो गया है कि आखिर हमारे संगठित, उदार और संवेदना युक्त समाज को किसकी नजर लग गयी है जो अपनी उदारता व संवेदनशीलता की परिधि से बाहर निकल निर्ममता और संवेदनहीनता का परिचय दे रहा है। जो भारतीय समाज कभी अपनी सहिष्णुता, सहृदयता और दयालुता के लिए विश्व प्रसिद्ध था वह आज अपनी नृशंसता और हृदयहीनता से मानवता का दहन कर रहा है। इस घटिया और बेशर्म लोकतांत्रिक व्यवस्था से तो वह कम वैज्ञानिक व कम आधुनिक प्राचीन समाज ही बेहतर था जहां इंसानी रिश्ते पूजे जाते थे। जहां नारी को देवी स्वरुपा मान उसकी आराधना की जाती थी। जहां समाज और राष्ट्र धर्म और नैतिक नियमों से नियंत्रित होते थे। आज हमने लोकतंत्र के खोल तो जरुर पहन लिए हैं लेकिन बीमार मानसिकता का परित्याग न हीं कर पाए हैं। आजादी के बाद उम्मीद जगी की समाज में नारी का सम्मान बढ़ेगा। समाज सभ्य होगा। जीवंतता आएगी। राष्ट्र व समाज संविधान के प्रावधानों और नैतिक नियमों से निर्देशित होगा। लेकिन महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार ने लोकतंत्र और कानून के शासन को कठघरे में खड़ा कर दिया है। एक कल्याणकारी राज्य का उत्तरदायित्व होता है कि वह समाज को सुरक्षा दे। उसकी बेहतरी के लिए काम करे। लेकिन आश्चर्य है कि जिनके कंधों पर सभ्य समाज के निर्माण की जिम्मेदारी है वे खुद कठघरे में हैं। स्वयं उन पर ही नैतिक मूल्यों को खाने-पचाने, स्खलित और नष्ट-भ्रष्ट करने के संगीन आरोप हैं। बुलंदशहर की घटना महज कुछ लोगों की घिनौनी कारस्तानी व नीचता की पराकाष्ठा भर नहीं है बल्कि यह हमारे समूचे तंत्र की अघोरतम् कारस्तानी की शर्मनाक बानगी भी है। इस घटना से साफ हो गया है कि हम सभ्य, और लोकतांत्रिक समाज में होने का बस चोंगा भर ओढ़ रखे हैं। असल में हम अभी भी आदिम समाज की फूहड़ता, जड़ता, मूल्यहीनता और लंपट चारित्रिक दुर्बलता से उबर नहीं पाए हैं। जिस समाज में ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता’ का पाठ पढ़ाया जाता हो वहां नरपिशाचों के लिए जगह ही क्यों है? लेकिन देखिए न! हम जिस व्यवस्था को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था बता फूले नहीं समाते है वह अब दरिंदों का अड्डा बनती जा रही है। इस व्यवस्था में अपराधी निडर और बेखौफ हैं। वे मदहोश हैं। उनके मन में कानून का भय नहीं है। उनकी ताकत के आगे शासन व्यवस्था नतमस्तक है। सवाल लाजिमी है कि आखिर इन हालातों के लिए कौन जिम्मेदार है? सरकार या समाज? हम चाहे इन घटनाओं पर जितना भी घड़ियाली आंसू बहा लें लेकिन तब तक कुछ होने-जाने वाला नहीं जब तक कि समाज के इन नरपिशाचों को उनका असली जगह नहीं दिखाया जाएगा। समझा जा रहा था कि निर्भया कानून लागू होने के बाद दुष्कर्म की घटनाओं में कमी आएगी। देश का चरित्र बदलेगा। दिन के उजाले और रात के अंधेरे में बेटियां महफूज रहेंगी। तंत्र की सक्रियता से व्यवस्था में सुधार होगा। पुलिस की संवेदना और जवाबदेही बढ़ेगी। लेकिन इस घटना ने सारे भ्रम तोड़ दिए। सवाल लाजिमी है कि महिलाओं पर होने वाला अत्याचार कब थमेगा? उनकी सुरक्षा की गारंटी कैसे संभव होगी? अगर कड़े कानूनी प्रावधानों के बावजूद भी महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में कमी नहीं आ रही है तो साफ है कि गुनाहगारों के मन में कानून का भय नहीं है। गौर करना होगा कि महिलाएं सिर्फ सड़कों और सार्वजनिक स्थानों पर ही असुरक्षित नहीं हैं। वे अपने घर-परिवार और रिश्तों-नातों की जद में भी असुरक्षित हैं। यह तथ्य है कि महिलाएं और बच्चियां अपने ही सगे संबधियों द्वारा दुष्कर्म की शिकार बन रही हैं, लेकिन सामाजिक मर्यादा और लोकलाज के भय से वे दूराचारियों के खिलाफ जुबान खोलने को तैयार नहीं है। नतीजा सामने है। दूराचारी कानून की खामी और समाज की संवेदनहीनता का फायदा उठाकर बच जा रहे हैं। एक आंकडें के मुताबिक महिलाओं पर होने वाले समग्र अत्याचारों में सजा केवल 30 फीसदी गुनाहगारों को ही मिल पा रहा है। बाकी तीन चैथाई बच जा रहे हैं। अगर ऐसे में उनके पाशविक और बर्बर आचरण पर लगाम नहीं लग पा रहा है तो यह स्थिति हमारी कानून व्यवस्था और समाज को मुंह चिढ़ाने वाली है। बेहतर होगा कि सरकार कड़े कानूनों का प्रावधान कर गुनाहगारों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे। साथ ही समाज को भी समझना होगा कि वह अपने उत्तरदायित्वों को सरकार के कंधे पर ठेलकर निश्चिंत नहीं हो सकता। सभ्य समाज के निर्माण की जितनी जिम्मेदारी राज्य की है उतनी ही समाज की भी।

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