न्यायपालिका के खुद के लिए पैमाने

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वीरेन्द्र सिंह परिहार
सर्वोच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस टी.एस. ठाकुर को इस बात को लेकर गंभीर शिकायत है कि प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से न्यायपालिका के संबंध में कुछ नहीं कहा। इसके पहले भी प्रधानमंत्री की मौजूदगी में एक समारोह में बोलते हुए वह निहायत ही भावुक अंदाज में जजों की कमी और उसके कारण न्याय मिलने में होने वाली देरी को लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय बताया था। इसका मतलब स्पष्ट है कि न्यायपालिका और सरकार के बीच सब कुछ ठीक नहीं है और इसका खामियाजा पूरा देश भुगत रहा है। देखने का विषय यह कि आखिर में इसके लिए जिम्मेदार कौन? सरकार या स्वतः न्यायपालिका।
यह तो सभी को पता होगा कि वर्ष 1993 के पहले जजों की नियुक्ति में सरकार की प्रमुख भूमिका थी, परन्तु 1993 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसले के तहत काॅलेजियम व्यवस्था लागू कर दिया। इस तरह से सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति एवं उनके तबादले का अधिकार पूर्णरूपेण सुप्रीम कोर्ट के पाॅच वरिष्ठतम जजों के काॅलेजियम के पास आ गया। इस अधिकारवादी व्यवस्था का यद्यपि उचित नहीं समझा गया और समय-समय पर पश्चिमी देशों की तर्ज पर न्यायिक आयोग बनाने की बातें होती रहीं। लेकिन इसे असली जामा पहनाया 2014 में सत्ता में आई नरेन्द्र मोदी सरकार ने। जिसने संसद में ही सर्वसम्मति से ‘‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्त आयोग’’ ही नहीं पारित कराया, वरन देश की अधिकांश विधानसभाओं ने भी इस विधेयक का समर्थन किया। भारतीय संविधान भी चेक एंड बैलेन्स (संतुलन एवं निरोध) के सिद्धान्त के तहत यह एक उत्कृष्ट व्यवस्था थी। जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं दो अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश इसके सदस्य होते। इसके साथ ही इसमें दो ऐसे सदस्य होते, जिनका चुनाव मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री एवं विपक्ष के नेता करते। इसके अलावा भारत सरकार के विधि एवं न्याय मंत्री भी इसके सदस्य होते। इस तरह से यह पाॅच सदस्यीय आयोग सर्वोच्च न्यायालयों और उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति, स्थानान्तरण का कार्य तो करता ही, जजों के विरुद्ध भ्रष्टाचार एवं कदाचरण की शिकायतें सुनने और उसमें कार्यवाही के लिए सक्षम होता। लेकिन पिछले वर्ष अक्टूबर में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने इस अधिनियम को संविधान में मूल ढांचे को प्रभावित करने वाला और इस तरह से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर बाधक होने के नाम पर इसे संविधान विरोधी घोषित कर दिया। यद्यपि यह नहीं बताया गया कि इससे संविधान का ढांचा कैसे प्रभावित होगा? जहां तक न्यायपालिका की स्वतंत्रता का प्रश्न है तो इससे उसकी स्वतंत्रता नहीं अलबत्ता स्वच्छंदता जरूर प्रभावित होती। लेकिन इस संविधान पीठ ने अपने फैसले में एक बात और जोड़ दिया कि केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से मेमोरंडम आॅफ प्रोसीजर (एमओपी) यानी नियुक्ति की प्रक्रिया के तौर तरीके तय करेगी। लेकिन सरकार ने शुरू में जो एमओपी बनाया उसे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने यह कहकर लौटा दिया कि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित होने का खतरा है। इस पर सरकार की समिति ने इस एमओपी पर चार बार बदलाव किए पर ‘अति स्वतंत्र नहीं सिर पर कोई’ की तर्ज पर मुख्य न्यायाधीश सहमति नहीं व्यक्त कर रहे हैं। इस तरह से देश के उच्च न्यायालयों में कई खाली पड़े पदों पर नियुक्तियाॅ नहीं हो पा रही हैं। बताया जाता है कि इस समय यह संख्या 470 तक पहंुच गई है। वैसे सरकार का कहना है कि इस दौरान भी कई जजों की नियुक्तियाॅ हुई हैं।
ऐसी स्थिति में इस स्थिति को लेकर चीफ जस्टिस भले सरकार को दोषी ठहराएॅ, पर हकीकत यही है कि एमओपी के प्रारूप पर बार-बार आपत्ति जताकर वह खुद ही जजों की नियुक्तियों को लटका रहे हैं। वस्तुतः सरकार का आग्रह पारदर्शिता को लेकर है। एमओपी के जरिए सरकार ऐसी व्यवस्था चाहती है कि उच्च न्यायालयों में नियुक्ति के लिए काॅलेजियम नामों का प्रस्ताव करे तो उसमें संबंधित व्यक्ति की योग्यता और पात्रता साफ झलकनी चाहिए। यानी मेरिट के बजाय काॅलेजियम अपने चहेतों को जज बनाने का सिलसिला बंद करे। सरकार ने प्रावधान किया है कि काॅलेजियम द्वारा भेजे गए नामों में से अगर राष्ट्रीय सुरक्षा की कसौटी पर कोई पूरी तरह खरा न उतरता हो तो सरकार ऐसे नाम को खारिज कर सकती है। सरकार का यह भी कहना है कि ऐसी स्थिति में भी सरकार अपनी पसंद का जज तो बना नहीं सकती। नया नाम भी तो काॅलेजियम द्वारा ही तय होगा। सरकार का यह भी कहना है कि अगर वह सुरक्षा कारणों से किसी नाम को अस्वीकार करेगी तो उसकी वजह भी बताएगी, फिर भी पता नहीं क्यों मुख्य न्यायाधीश को इसमें सरकार के हस्तक्षेप की बू आती है। इसी के चलते सुप्रीम कोर्ट काॅलेजियम द्वारा सरकार को जिन 110 नामों की इस साल मार्च-अप्रैल में सिफारिश भेजी गई, उसमें अधिकांश लटके पड़े हैं।
समस्या यह है कि सरकार चाहती है कि किसी सेशन जज को हाईकोर्ट का जज बनाने के पहले हाईकोर्ट का काॅलेजियम जज के रूप में उसके पन्द्रह साल के कामकाज का मूल्यांकन कर उसका ब्योरा अपनी सिफारिश के साथ संलग्न करे। जबकि न्यायपालिका इस मामले में मात्र वरिष्ठता की ही जिद पकड़े हुए है। होता ये था कि इसी मापदण्ड के तहत हाईकोर्टों में ऐसे सेशन जजों की नियुक्ति हो जाती है, जिनकी निष्ठा एवं ईमानदारी संदिग्ध रहती थी। फलतः उच्च न्यायालयों में भी बहुत कुछ माहौल प्रदूषित हो चला है। मोदी सरकार चाहती है कि उच्च न्यायालय में जो जज नियुक्त हों उनकी ईमानदारी एवं निष्ठा पूरी तरह से असंदिग्ध हो। इसके अलावा सरकार इसमें 55 साल तक के उम्र के व्यक्ति को ही मौका देने के पक्ष में है, पर सर्वोच्च न्यायालय 58 साल तक की उम्र की जिद पकड़े है। सरकार यह भी चाहती है कि जिस राज्य के हाईकोर्ट में जज की नियुक्ति के लिए वहां का काॅलेजियम अपनी बैठक करे, तो उसकी सूचना राज्य के मुख्यमंत्री को भी भेजे, ताकि मुख्यमंत्री अगर अपनी तरफ से कोई सिफारिश करना चाहे तो कर सके और काॅलेजियम मेरिट के आधार पर उस पर भी गौर करे। यह भी सही को पता है कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के जजों के भ्रष्टाचार और कदाचरण की शिकायत सुनने के लिए कोई फोरम अभी तक नहीं है। न्यायिक नियुक्त आयोग को यह अधिकार होता पर सर्वोच्च न्यायालय ने उसे अस्तित्व में ही नहीं आने दिया। ऐसी स्थिति में सरकार चाहती है कि जजों के विरुद्ध आने वाली शिकायतों के निपटारे की एक स्थायी, पारदर्शी और एक समान सचिवालय बने। ऐसे सचिवालय का मुखिया कौन हो और उसकी प्रक्रिया क्या हो? सरकार एमओपी में इसका प्रावधान भी जरूरी मान रही है। सरकार का इरादा सचिवालय को शिकायतों को समयबद्ध, पारदर्शी और कारगर ढंग से निपटाने की व्यवस्था बनाने का है।
लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह कि पारदर्शिता के इस दौर में और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पारदर्शिता की पक्षधर न्यायपालिका अपने लिए पारदर्शिता की पक्षधर नहीं है। वह रंच-मात्र भी जवाबदेह नहीं होना चाहती। वह सबके मामले में हस्तक्षेप कर सकती है, यहां तक कि कानून भी बना सकती है जो संसद का काम है, पर अपने मामले में वह कोई नियंत्रण स्वीकार करने को तैयार नहीं है। जबकि दुनिया के किसी भी देश में न्यायपालिका को ऐसा अधिकार नहीं है, कि वह खुद ही अपनी नियुक्तियाॅ और तबादले करे। यह शुभ संकेत है कि अब न्यायपालिका की ओर से ही इस काॅलेजियम व्यवस्था को लेकर असहमति के स्वर उठने लगे है। अभी हाल में ही सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस चेलमेश्वर ने काॅलेजियम व्यवस्था को अपर्याप्त मानते हुए उसकी बैठक में ही जाने से इंकार कर दिया। इतना ही नहीं, उनके रवैए का समर्थन करते हुए सुप्रीम कोर्ट के तीन भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने स्पष्ट तौर पर कहा कि काॅलेजियम की कार्यवाही में पारदर्शिता एवं सर्वसम्मति होना जरूरी है। तीनों पूर्व मुख्य न्यायाधीशों का यह मानना है कि जजों की नियुक्ति के समय उसके गुणों एवं दुर्गुणों पर स्वतंत्र एवं खुली बहस होनी चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसी स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय के काॅलेजियम की सद्बुद्धि जागृति होगी। उसे यह पता होना चाहिए कि सम्पूर्ण सत्ता सिर्फ सत्ताधीशों को ही नहीं, न्यायपालिका को भी भ्रष्ट कर सकती है। ऐसी स्थिति में देश उनके बारे में कोई फैसला करने को बाध्य हो, उन्हें स्वतः आगे आना चाहिए।

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