उनकी नजर में शायद हिंदी शासितों की भाषा है,और अंग्रेजी शासकों की भाषा है।

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hindiश्रीराम तिवारी
वेशक दुनिया के अधिकांस प्राच्य भाषा विशारद ,व्याकरणवेत्ता ,अध्यात्म
-दर्शन के अध्येता और भाषा रिसर्च- स्कालर समवेत स्वर में उत्तर वैदिक
संस्कृत वांग्मय के ही मुरीद रहे हैं। जिसका वैचारिक चरमोत्कर्ष उस
वेदांत दर्शन में झलकता है,जिसके प्रतिवाद स्वरूप अनेक ‘अवैदिक’ भारतीय
दर्शनों का यहाँ निरंतर उदभव होता रहा है। जिसका भाषाई चरमोत्कर्ष
कविकुल गुरु कालिदास की सृजनात्मकता में सप्रमाण दृष्ट्व्य है। ईसा
पूर्वकी पांचवीं-छठी शताब्दी के आसपास भारत में ‘अवैदिक’ धर्म-दर्शन का
जोरदार प्राकट्य हुआ। तत्कालीन नव पन्थ – दर्शन संस्थापकों ने
पाली,प्राकृत,अपभृंश और अन्य ‘असंस्कृत’ भाषाओँ का प्रयोग जानबूझकर किया।
क्योंकि उन्होंने जो दर्शन और सिद्धांत प्रतिपादित किये ,उनके मूल तत्व
तो संस्कृत भाषा प्रणीत सनातन वैदिकधर्म के थे, किन्तु बाह्य रूप और आकार
में उनकी अभिव्यक्ति वेद विरूद्ध थी । चूँकि इन धर्म-पंथ के प्रकाशक
कृशकाय वेदवेत्ता ब्राह्मण नहीं थे ,बल्कि युद्ध से विमुख आरामतलब
क्षत्रिय राजकुमार थे। यही वजह रही कि इन सामंत – पुत्रों ने अहिंसा पर
ज्यादा जोर दिया। अपने उपदेशों के लिए उन्होंने उस भाषा को चुना जिसे वे
जानते थे और जो आम आदमी को भी सूझ पड़ती थी। सम्भवतः इतिहास में संस्कृत
को पीछे धकेलने का यह सबसे आक्रामक प्रयास था। लोक भाषाओं को आगे लाने
में इन ‘असंस्कृतों ‘का विशेष महत्व रहा है। और भारत की यही विभिन्न
लोकभाषाएं ही कालान्तर में हिंदी रुपी कार्तिकेय की पालनहार कृत्तिकाएँ
भी बनी !

यह विचित्र किन्तु सत्य इतिहास है कि उस युग में आचार्य चाणक्य और
सेनापति पुष्यमित्र शुंग जैसे कुलीन विप्रों – ने क्षत्रियोचित सिद्धांत
पेश कर ‘युद्ध’ को ही ‘राष्ट्र ‘का उद्धारक और मानवता का हितु माना। ये
वैदिक संस्कृत भाषा में निष्णान्त थे जो कि नितांत अबूझ और क्लिष्ट थी।
इसलिए उनका उत्कृष्ट वैदिक भाषा ज्ञान और उनकी राष्ट्रवादी कार्य
योजनाएं सफल नहीं हो सकीं। इसके विपरीत जो संस्कृत भाषा ज्ञान से किंचित
वाकिफ नहीं थे उन अवैदिक भिक्षुओं को ‘वेद’ विरोधी होते हुए भी अपार
जागतिक सफलता मिली। क्योंकि उन्होंने संस्कृत का मोह छोड़कर, लोकभाषाओं
में ही अपने-अपने नवीन नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को जनता के समक्ष
पेश किया। संभवतः बुद्ध -महावीर के द्वारा लोकभाषा में दिए गए
प्रारंभिक संदेश ही हिंदी भाषा की बुनियाद बने !

बुद्ध ,महावीर और उनके अनुयायियों ने जिस भाषा में समाज को सन्देश दिया
,तुलसी ने जिसे ‘ ग्राम्यगिरा’कहा, कबीर ने साखी ,शबद रमैनी रचा और
गद्यात्मक पौराणिक आख्यानकारों ने देवनागरी में लिखे गए अपने सृजन को
‘भाषा टीका’ कहा ,उसे ही हम हिंदी कहते हैं। संस्कृत के अतिसय दुरूह शब्द
भण्डार से मुक्त और भाषा – व्याकरण से अनभिज्ञ तमाम महापुरुषों
नेअपने-अपने सिद्धांत-सूत्रों को जिस लोकभाषा में जनता के समक्ष पेश
किया ,उसे ही हम हिंदी कहते हैं। हरेक कुम्भ मेले के लिए,हर एक विराट
लोकरंजन के निमित्त ,उत्तर भारत की तमाम ‘असंस्कृत’ भाषाओँ-बोलियों को
‘संस्कृत’ से ऊपर उत्तरोत्तर प्रचण्ड जन समर्थन मिलता रहा है।सामंतयुग
के उत्तर भारत की ये तमाम ‘असंस्कृत’ भारतीय भाषाएँ ,परंपरागत ब्राह्मी
लिपि से देवनागरी में रूपांतरित होती चलीं गयीं। तमाम लोकभाषाओं में
,क्षेत्रीय बोलियों में तत्कालीन यायावर विदेशी आक्रांताओं और
व्यपारियों की योगरूढ़ शब्दावली भी संयुत होती चली गयी।
आदिकालीन-वीरगाथाकालीन प्रारंभिक हिंदी भाषा और उसका ‘असंस्कृत’ साहित्य-
सृजन परवान चढ़ता गया। कालांतर में जब भक्तिकालीन कवियों ने अपने भावों
से ,रस छंद अलंकारों से और अपने काव्यात्मक सौंदर्य से इस हिंदी को
संजोया -संवारा तब वह ‘अखण्ड भारत’ की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा बन
गयी।

पाली,प्राकृत,अपभृंश अब भले ही केवल इतिहास की धरोहर बनकर रह गईं हों
,संस्कृत और उसका वैदिक वाङ्ग्मय भले ही केवल पूजा -पाठ और ईश आराधना के
साधन रह गए हों गए हों ।लेकिन अब तो हिंदी’ जाने बिना देश की सत्ता का
पत्ता भी नहीं हिलता। बिना हिंदी भाषा ज्ञान के किसी भी नेता या दल का
केंद्रीय राजनीती में सफल होना अब असम्भव है। भारत में हिंदी नहीं
जाननेवाला अफसर चल सकता है ,डॉ -वकील चल सकता है ,इंजीनियर भी चल सकता है
,लेकिन नेता और अभिनेता नहीं चल सकता। हिंदीभाषी जनता को तो हिंदी नहीं
जानने वाला नेता बिना पूंछ का पशु नजर आता है। जब से नरेन्द्र मोदीजी
भारतके प्रधानमंत्री बने हैं तब से हिंदी की दुनिया भर में इज्जत बढ़ी
है। इंग्लैंड,अमेरिका और विश्व के तमाम देशों केप्रवासी भारतीय और
एनआरआई सबके सब ‘हर-हर मोदी का नारा लगाकर जता रहे हैं कि इस दौर में
‘हिंदी ‘ उन सभी के दिलों में बस रही है।

यह सुविदित है कि ‘हिंदी’ ,हिन्दू और हिंदुस्तान जैसे शब्दों की जन्म
स्थली भारत नहीं है। इन शब्दों का जन्म भी भारत में नहीं हुआ। मध्ययुग
में पर्सिया,यूनान ,मध्यशिया और अरब से जो भी विदेशी भारत में घुसे वे
समुद्री रास्ते से बहुत कम आये। किन्तु वे खैबर दर्रे से
,हिमालय-हिंदुकुश पार से और सिंधु दरिया को पार करके बहुत ज्यादा मात्रा
में भारत आये। उन्होंने अपनी मातृ- भाषाओं का प्रयोग ,अपने-अपने कबीलों
में यथावत जारी रखा.किन्तु ततकालीन आर्यावर्त,या भारतवर्ष की आवाम से
सम्पर्क रखने के लिए ,व्यापार के लिए ,उन्होंने यहां के ‘जुबाँ चढ़े
शब्दों’ को अपने मनोभावों में व्यक्त करने की निरंतर कोशिश की। इसी सीखने
-सिखाने की अनवरत प्रक्रिया में सबसे पहले ‘सिंधु’ नदी के उस पार वालों
ने इस पार वालों को ‘हिन्दू’ कहा। कुछ आक्रांता – आगन्तुक कबीलों ने आगे
चलकर इस भारतीय उपमहाद्वीप में अपना डेरा डाल दिया और यहाँ की लोक भाषाओँ
में अपने कबीलाइ शब्दों को मिलाकर एक कामचलाऊ भाषा का निर्माण किया,
जिसे उन्होंने ‘हिन्दवी’ कहा। और जिस धरती पर ये विदेशी लट्टू होकर
हमेशा के लिए रम गए उसे उन्होंने ‘हिंदुस्तान’ कहा।

स्वाधीनता संग्राम के पुरोधाओं ने करोड़ों मानवों द्वारा बोली जाने वाली
इस लोक भाषा का नामकरण हिंदी किया। वेशक भाषा का नामकरण ‘सिंधु’ शब्द से
ही किया गया होगा। क्योंकि फ़ारसी वालों की जुबान प्रायः ‘स’ को ‘ह’
उच्चरित करने की आदि रही है। शायद उन्होंने ही सिंधु को हिन्दू , सिंधी
को हिंदी नाम दे दिया होगा। और जिसे उन्होंने ‘हिन्दवी’ कहा उसे तत्सम
शब्दावली बहुल क्षेत्र के लोग बाद में हिंदी नाम से पुकारने लगे।
अंग्रेजों की कूटनीति से इस भारतीय धरती की सभ्यताओं की मिली- जुली
गंगा -जमुनी संस्कृति की यह हिन्दवी भाषा ही हिंदी और उर्दू में
रूपांतरित होकर दो कौमों की और दो राष्ट्रों की पृथक-पृथक भाषाएँ बनती
चलीं गईं। सल्तनत और मुगलकाल के ‘लश्करी'[फौजी] लोग चूँकि फ़ारसी लिपि के
हिमायती थे ,अतः उन्होंने ‘हिन्दवी’ को फ़ारसी के शब्दों से समृद्ध कर
उसे ‘उर्दू’ नाम दिया गया । इसी हिन्दवी भाषा को संस्कृत के तत्सम
शब्दों से अलंकृत कर जब देवनागरी में प्रस्तुत किया गया तब वह दुनिया
में ‘हिंदी’के नाम से प्रसिद्ध हो गई। देश विभाजन के बाद आज़ाद भारत की
‘राजभाषा-हिंदी’ बनी.और पाकिस्तान ने उर्दू को राष्ट्र भाषा माना। लेकिन
पाकिस्तान ने जब पूर्वी पाकिस्तान की बंगलाभाषी जनता पर पर उर्दू थोपने
की कोशिश की ,तो पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए। बांग्लादेश अलग राष्ट्र
बन गया और उसकी राष्ट्रभाषा ‘बांग्ला’ हो गयी।

आजादी के बाद ,इस तरह प्राचीन भारतवर्ष या आर्यावर्त या जम्बूद्वीप के
विशाल भूभाग पर भाषाओँ के आधार पर पृथक-पृथक तीन राष्ट्र बन गए। भारतमें
‘हिंदी’ समेत सभी भाषाओँ और बोलियों को फलने -फूलनेका खूब अवसर मिला।
किन्तु हिंदी का जितना विकास आजादी की जंग के दौरान हुआ ,उतना बाद में
कभी नहीं हुआ। स्वाधीनता संग्राम के नेता चाहे बंगाल के हों, चाहे पंजाब
के हों ,चाहे तमिलनाडु के हों और चाहे वे गुजरात के हों सभी को ‘हिंदी’
का ज्ञान था और उन्हें प्रिय भी थी। स्वामी दयानंद सरस्वती,की मातृभाषा
गुजराती थी ,एनी बेसेण्ट भगनी निवेदिता की मातृभाषा अंग्रेजी और आइरिश
थी,स्वामी विवेकानन्द,महर्षि अरविन्द की मातृभाषा बंगाली थी ,गांधी जी
औरसरदार पटेल की भाषा गुजराती थी ,महाकवि सुब्रमण्यम भारती की मातृभाषा
तमिल थी ,बीटी रणदिवे की भाषा मराठी और शहद भगतसिंह की भाषा पंजाबी थी
,किन्तु ये सभी महानुभाव अपने सार्वजनिक जीवन में अधिकतर हिंदी का ही
प्रयोग करते रहे हैं !

आजादी मिलने के बाद जब भाषावार राज्यों का गठन किया गया तब बहुसंख्यकों
की भाषा हिंदी को,दक्षिण भारत ,पूर्वी भारत और पस्चिमी भारत से पूरी तरह
हकाल दिया गया ! हिंदी केवल उत्तर-मध्य भारत की क्षेत्रीय भाषा बनकर रह
गयी। सत्ता प्राप्ति के लिए डीएमके ,शिवसेना ,अकाली जैसे क्षेत्रीय दलों
ने भाषायी उन्माद को खूब जगाया। भाषाई संकीर्णता की वजह से कामराज
,करूणानिधि ,संजीव रेड्डी, देवेगौड़ा और ज्योति वसु जैसे नेता भी काम
चलाऊ हिंदी नहीं सीख पाए । भारत की बद्क़िस्मती है कि वर्तमान
उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी भी हिंदी नहीं जानते। देश में अनेक उदाहरण हैं
कि जहाँ बहुसंख्यक हिंदी भाषियों पर अल्पसंख्यक भाषायी लोग बेधड़क शासन कर
रह हैं !उनकी नजर में शायद हिंदी शासितों की भाषा हैऔर अंग्रेजी शासकों
की भाषा है।

वैसे तो केंद्र की सरकारों ने हिंदी के लिए बहुत कुछ किया है, किन्तु फिर
भी हिंदी का कोई उत्थान नहीं हुआ। बल्कि हिंदी के नाम पर हिंदी
अधिकारियों और उनके हितग्राहियों का ही विकास हुआ है । दक्षिण भारत से तो
हिंदी पूरी तरह बेदखल कर दी गयी है. यूपीएससी तथा अन्य प्रशासनिक सेवाओं
में हिंदी भाषियों का प्रतिशत लगभग नगण्य है। अलबत्ता यूपी -बिहार के
कुछ आरक्षणधारी -हिंदी भाषी लोग जरूर सरकारी तन्त्र में घुसकर हिंदी की
खीर -मलाई जीम रहे हैं। कुछ तो स्वयम्भू साहित्यिक मठाधीश और अकादमिक
हस्ती बने बैठे हैं।हिंदी का जितना भी विकास हुआ है ,उसमें
व्यापारियों,फिल्मकारों और प्रगतिशील -जनवादी लेखकों की परंपरा का और
उससे भी बहुत पहले कबीर,सूर, तुलसी, रहीम, जैसे मध्ययुगीन भक्तिकालीन
कवियों का विशेष अवदान रहा है। इसके अलावा हिंदी के विकास में भारतीय
हिंदी सिनेमा का और हिंदी फ़िल्मी गानों का योगदान काबिले तारीफ रहा है।
इन्ही हिंदी फ़िल्मी गानों की वजह से हर दौर की पीढी ‘राष्ट्रवाद’ और
देशभक्ति का पाठ सीखती रही है। जबकि ‘तनखैया’ हिंदी अधिकारियों,सरकारी
अनुवादकों ,अकादमिक हस्तियों और शैक्षणिक सन्सथानों में भरे पड़े
धंधेबाजों ने हिंदी को चिंदी बनाने की भरपूर कोशिश की है।

बचपन में कहीं पढ़ा था की अंग्रेजों और अन्य यूरोपियन ने सिर्फ भारत की धन
-सम्पदा को ही नहीं लूटा, बल्कि भारत की तत्कालीन गुलाम जनता -मजदूरों
-किसानों को, गुलाम गिरमिटिया [अग्रीमेंटिया]मजदूर बनाकर बुरी तरह सताया।
मारीशश ,सूरीनाम ,वेस्ट इंडीज , फिजी ,गुयाना और दुनिया के कोने -कोने
में भारत के मजदूर ले जाए गए। उन्हें पानी के जहाज़ों में ठूँसकर,चप्पु
चलवाकर, भूंखे -प्यासे रखकर उत्तर भारत से ले जाया गया। कई महीनों बाद
यदि वे जीवित बच गए तो उन्हें जबरन गन्ने के खेतों में ले जाकर खपा दिया
गया। जो जिन्दा बच गए और विदेशों में ही बस गए ,उन प्रवासी- भारतीय
श्रमिकों को ही गिरमिटिया मजदूर कहा गया। इनकी गुलामों की भाषा आम तौर
पर पुरानी भोजपुरी, बृज और अवधि मिश्रित खड़ी बोली हुआ करती थी। इसलिए
अक्सर गैर – हिंदी भाषी साहित्यकार व्यंग किया करते हैं कि ‘हिंदी’ तो
मजदूरों-किसानों और गिरमिटियाओं की भाषा है।

मध्ययुग के भक्तिकालीन कवियों की सधुखखड़ी भाषा को संस्कृत की तत्सम
शब्दावली से अधिक लोकभाषा का सम्बल अधिक था। कबीर,अमीर खुसरो,जायसी
,जगनिक ,नानक ,रैदास ,सूर,तुलसी और मीरा इत्यादि ने जो भी काव्य रचना की
या पद्माकर ,रहीम ,रसखान, बिहारी और भूषण इत्यादि कवियों ने जो भी छंद
बद्ध ललित रचना सृजन किया -उसी का परिणाम था कि आगे चलकर परनामी
सम्प्रदाय के गुरुओं और स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेदों का भी सरलतम
गुणानुवाद किया । इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ
टेगौर ,महात्मा गाँधी ,सुब्रमण्यम भारती ,बंकिमचंद जैसे गैर हिंदी
भाषियों ने हिंदी को ही अपनी लड़ाई का हथियार बनाया। साठोत्तरी हिंदी के
कवियों ने और उत्तर आधुनिक रचनाकारों ने भी हिंदी का बहुमान किया और उसे
इतना ऊँचा स्थान दिया कि वह संस्कृत की दुहिता बनने का गौरव हासिल कर
सकी।

हिंदी में पढ़ने -लिखने वाले , हिंदी को राष्ट्रीय गौरव और एकता का प्रतीक
मानने वाले,हिंदी के प्रखर वक्ता-श्रोता -ज्ञाननिधि और हिंदी के शुभ
-चिंतक, सरकारी और गैर सरकारी तौर पर हर साल हिंदी पखवाड़ा या हिंदी दिवस
मनाते वक्त बार-बार यही रोना रोते रहते हैं कि हिंदी को देश और दुनियामें
उचित सम्मान नहीं मिल रहा है।आम तौर पर उनको यह शिकायत भी हुआ करती है कि
हिंदी में सृजित -प्रकाशित साहित्य खरीदकर पढ़ने वालों की तादाद तेजी से
कम हो रही है। वे आसमान की ओर देखकर पता नहीं किस से सवाल किया करते हैं
कि- हिंदी – जो कि सारे विश्व में दूसरे नम्बर पर बोली जाने वाली
बहुसंख्यक वर्ग की भाषा है,इसके वावजूद हिंदी को संयुक्त राष्ट्रसंघ की
भाषा सूची में अभी तक शामिल नहीं किया गया !

विगत शताब्दी के अंतिम दशक में सोवियत क्रांति पराभव उपरान्त दुनिया के
एक ध्रवीय[अमेरिकन ] हो जाने से भारत सहित सभी पूर्ववर्ती गुलाम
राष्ट्रों को मजबूरी में न केवल अपनी आर्थिक नीतियां बदलनी पड़ीं ,न केवल
नव् उदारवादी वैश्वीकरण की -खुलेपन की नीतियां अपनानी पड़ीं बल्कि देश में
प्रगतिशील आंदोलन और सामाजिक -सांस्कृतिक- साहित्यिक चिन्तन पर भी नव्य
-उदारवाद की छाप पडी। प्रिंट ही नहीं बल्कि अब तो श्रव्य साधन भी अब
कालातीत होने लगे हैं। अब तो केवल स्पर्श और आँखों के इशारों से भी सब
कुछ वैश्विक स्तर पर ,मनो-मष्तिष्क तक पहुंचाने वाले -सूचना संचार सिस्टम
ईजाद हो चुके हैं। इतने सुगम व तात्कालिक संसाधनों के होते हुए अब किस को
फुरसत है कि कोई बृहद ग्रन्थ या पुस्तक पढ़ने का दुस्साहस कर सके ?फिर
चाहे वो गीता हो या रामायण हो , कुरआन हो या बाइबिल ही क्यों न हों ?
चाहे वो हिंदी,इंग्लिश की हो या संस्कृत की ही क्यों न हो ?चाहे वो सरलतम
सर्वसुगम हिंदी में हो या किसी अन्य भाषा में आज किसको फुर्सत है कि
अधुनातन संचार साधन छोड़कर किताब पढ़ने बैठे ?

रोजमर्रा की भागम-भाग ,तेज रफ़्तार वाली वर्तमान तनावग्रस्त दूषित जीवन
शैली में बहुत कम ही सौभागयशाली हैं ,जो बंकिमचंद की ‘आनंदमठ’, विमल
मित्र की ‘साहब बीबी और गुलाम ‘, रांगेय राघव की ‘राई और पर्वत’, श्री
लाल शुक्ल की ‘राग दरबारी’ ,मेक्सिम गोर्की की ‘माँ ‘, प्रेमचंद की
‘गोदान’, आश्त्रोवस्की की ‘अग्नि दीक्षा ‘,रवींद्र नाथ टेगोर की ‘गोरा’ ,
महात्मा गांधी की ‘मेरे सत्य के प्रति प्रयोग ‘ डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन
की ‘भारतीय दर्शन ‘, पंडित जवाहरलाल नेहरू की ‘भारत एक खोज’ तथा डॉ बाबा
साहिब आंबेडकर की ‘बुद्ध और उनका धम्म’ पढ़ सके ! जबकि ये सभी बहुत
महत्वपूर्ण और कालातीत पुस्तकें हैं ,जो आज भी भारत की हर लाइब्रेरी में
उपलब्ध हैं। इन सभी महापुरुषों की कालजयी रचनाएँ -खास तौर से हिंदी
अनुवाद भी बहुतायत से उपलब्ध हैं। लेकिन
अधिकांस आधुनिक युवाओं को उपरोक्त पुस्तकों के नाम भी याद नहीं हैं।
कदाचित वे विजयदान देथा , सलमान रश्दी ,खुशवंतसिंघ ,राजेन्द्र यादव
,महाश्वेता देवी ,अरुंधति रे या चेतन भगत को अवश्य होंगे लेकिन इसलिए
नहीं कि इन लेखकों का साहित्य उन्होंने पढ़ा है ,बल्कि इसलिए जानते होंगे
कि ये लेखक कभी – किसी विवाद -विमर्श का हिस्सा रहे होंगे !या गूगल सर्च
पर या किसी तरह के केरियर कोचिंग में इनकी आंशिक जानकरी उन्हें मिली
होगी। सर्वमान्य सत्य है कि गूगल या अन्य माध्यम से आप अधकचरी सूचनाएँ तो
पा सकते हैं, किन्तु ‘ज्ञान’ तो केवल अच्छी पुस्तकों से ही पाया जा सकता
है।

आज के आधुनिक युवाओं को पाठ्यक्रम से बाहर की पुस्तकें पढ़ पाना इस दौर
में किसी तेरहवें अजूबे से कम नहीं है। उन्हें लगता है कि साहित्य
,विचारधाराएं ,दर्शन या कविता -कहानी का दौर अब नहीं रहा। उनके लिए तो
समूचा प्रिंट माध्यम ही अब गुजरे जमाने की चीज हो गया है। यह कटु सत्य है
कि चंद रिटायर्ड -टायर्ड, पेंसनशुदा – फुरसतियों के दम पर ही अब सारा
छपित साहित्य टिका हुआ है। ऐंसा प्रतीत होता है कि अब हिंदी का पाठक भी
इन्ही में कहीं समाया हुआ है। भाषा -साहित्य के इस युगीन धत्ताविधान में
मूल्यों का भी क्षेपक है। जो कमोवेश राजनैतिक इच्छाशक्ति से भी इरादतन
स्थापित है। इस संदर्भ में यह वैश्विक स्थिति है। भारत में और खास तौर से
हिंदी जगत में यह बेहद चिंतनीय अवश्था है। दुनिया में शायद ही कोई मुल्क
होगा जो अपनी राष्ट्रभाषा को उचित सम्मान दिलाने या उसे राष्ट्रभाषा के
रूप में स्थापित करने के लिए इतना आकुल-व्याकुल होगा ! इतना मजबूर या
अभिशप्त होगा जितना कि हिंदी के लिए भारत की हिंदीभाषी जनता असहाय है !
और दुनिया में शायद ही कोई और राष्ट्र होगा जो अपनी राष्ट्रभाषा के
उत्थान के लिए इतना पैसा पानी की तरह बहाता होगा ,जितना की भारत।

भारत में लाखों राजभाषा अधिकारी हैं ,जो राज्य सरकारों के ,केंद्र सरकार
के सभी विभागों में और सार्वजनिक उपक्रमों में अंगद के पाँव की तरह जमे
हुए हैं। इनसे राजभाषा को या देश को एक धेले का सहयोग नहीं है। ये केवल
दफ्तर में बैठे -बैठे ताजिंदगी भारी -भरकम वेतन-भत्ते पाते हैं ,कभी-कभार
एक -आध अंग्रेजी सर्कुलर का घटिया हिंदी अनुवाद करते हैं। साल भर में एक
बार सितंबर माह में ‘हिंदी पखवाड़ा’या ‘हिंदी सप्ताह’ मनाते हैं। अपने बॉस
को पुष्प गुच्छ भेंट करते हैं ,कुछ ऊपरी खर्चा -पानी भी हासिल कर लेते
हैं। रिटायरमेंट के बाद पेंसन इनका जन्म सिद्ध अधिकार है ही।

स्कूल ,कालेज ,विश्विद्द्यालयों के हिंदी शिक्षक -प्रोफेसर और कुछ नामजद
एनजीओ भी राष्ट्र भाषा -प्रचार -प्रसार के बहाने केवल अपनी आजीविका के
लिए ही समर्पित हैं । हिंदी को देश में उचित सम्मान दिलाने या उसे संयुक
राष्ट्र में सूचीबद्ध कराने के किसी आंदोलन में उनकी कोई सार्थक भूमिका
नहीं है। अपनी खुद की पुस्तकों के प्रकाशन में ही इनकी ज्यादा रूचि हुआ
करती है । सोशल मीडिया -डिजिटल -साइबर -संचार क्रांति -फेस बुक और गूगल
सर्च इंजन ने न केवल दुनिया छोटी बना दी है बल्कि सूचना -संचार क्रांति
ने प्रिंट संसाधनों को -साहित्यिक विमर्श को भी हासिये पर धकेल दिया है।
और छपी हुई बेहतरीन पुस्तकों को भी गुजरे जमाने का ‘ सामंती’शगल बना डाला
है.अब यदि एसएमएस है तो टेलीग्राम भेजने की जिद तो केवल पुरातन यादगारों
का व्यामोह मात्र ही हुआ न ! वरना दुनिया में जो भी है ,जिसका भी है,जहाँ
भी है , सब कुछ अब सभी को सहज ही उपलब्ध है.हाँ शर्त केवल यह है कि एक
अदद इंटरनेट कनेक्शन और लेपटाप,एंड्रायड -वॉट्सऐप या ३-जी मोबाइल अवश्य
होना चाहिए !

इधर किताब छपने ,उसके लिखने के लिए महीनों की मशक्कत ,सर खपाने और
प्रकाशन की मशक्क़त ! यदि साहित्य्कार -लेखक नया- नया हुआ तो प्रकाशक नहीं
मिलने की सूरत में अपनी जेब ढीली करने के बाद ही पुस्तक को आकार दे
पायेगा। यदि उसे खरीददार नहीं मिल रहे हैं तो मुफ्त में या गिफ्ट में
देने की मशक्क़त ! इस दयनीय दुर्दशा के लिए न तो लेखक जिम्मेदार है,न
प्रकाशकों का दोष है ,न तो पाठकों या क्रेताओं का अक्षम्य अपराध है , यह
न तो हिंदी भाषा का संकट हैऔर न ही साहित्यिक संकट है ! बल्कि ये तो
आधुनिक युग की नए ज़माने की ऐतिहासिक आवश्यकता और कारुणिक सच्चाई है।
चूँकि समस्त वैज्ञानिक आविष्कारों और सूचना एवं संचार क्रांति का उद्भव
गैर हिंदी भाषी देशों में हुआ है तथा हिंदी में अभी इन उपदानों के
संसधानों का सही -निर्णायक मॉडल उपलब्ध नहीं है इसलिए किताबें अभी भी
प्रासंगिक है बनी हुई हैं।

हिंदी का प्रचार -प्रसार ,हिंदी साहित्य में विचारधारात्मक लेखन ,हिंदी
साहित्य सम्मेलनों की धूम-धाम ,पत्र – पत्रिकाओं के प्रकाशनों का दौर अब
थमने लगा है। हिंदी इस देश के आम आदमी की भाषा है। हिंदी ‘स्लैम डॉग
मिलयेनर्स ‘ जैसी फिल्मों के मार्फ़त पैसा कमाने की भाषा है.हिंदी गरीबों
-मजदूरों और शोषित-पीड़ित जनों की भाषा है। चूँकि हिंदी में अब इन वंचित
वर्गों और सर्वहाराओं की उनकी मांग के अनुकूल नहीं लिखा जा रहा है ,
बल्कि बाजार की ताकतों के अनुकूल,मलाईदार क्रीमी लेयर के अनुकूल महज
तकनीकी,उबाऊ और कामकाजी साहित्य का तैसे सृजन- प्रकाशन हो रहा है ।
इसीलिये हिंदी जगत में वांछित पाठकों की संख्या न केवल तेजी से गिरी है
अपितु शौकिया किस्म के फ़ालतू लोगों तक ही सीमित रह गई है।

आजादी के बाद संस्कृतनिष्ठ हिंदी की ततसम शब्दावली के चलन पर जोर देने
,अन्य भारतीय भाषाओँ के आवश्यक और वांछित शब्दों से परहेज करने , अनुवाद
की काम चलाऊ मशीनी आदत से चिपके रहने , अधुनातन सूचना एवं संचार क्रांति
के साधनों के प्रयोग में अंग्रेजी भाषा का सर्व सुलभ होने,हिंदी भाषा के
फॉन्ट ,अप्लिकेशन तथा वर्णों का तकनीकी अनुप्रयोग सहज ही उपलब्ध न होने
या कठिन होने से न केवल पाठकों की संख्या घटी बल्कि हिंदी में लिखने
वालों का सम्मान और स्तर भी घटा है । न केवल तकनीकी कठनाइयों हिंदी में
मुँह बाए खड़ी हैं बल्कि आधुनिक युवाओं को आजीविका के संसाधन और अवसर भी
हिंदी में उतने सहज नहीं जितने आंग्ल भाषा में उपलब्ध हैं। इसीलिये भी
देश में ही नहीं विश्व में भी हिंदी के पाठक कम होते जा रहे हैं।

देश में हिंदी को सरल बोधगम्य आजीविका- परक और जन-भाषा बनाने की
राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव में और हिंदी की वैश्विक मार्केटिंग नहीं
हो पाने से राष्ट्रीय – अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मेगा -साय-साय या बुकर
पुरस्कार भी उन्हें ही मिला करते हैं जो हिंदी को हेय दृष्टि से देखते
रहे हैं। अंततोगत्वा फिर भी हिंदी ही देश की राजरानी रहेगी । चाहे
वालीवुड हो ,चाहे खुदरा व्यापार हो ,चाहे बाबाओं-स्वामियों का भक्ति और
साधना का केंद्र हो ,चाहे रामदेव हों ,नरेंद्र मोदी हों ,राहुल गांधी हों
,केजरीवाल हों ,चाहे अण्णा हजारे हों चाहे मुख्य धारा का मीडिया हो ,सभी
ने हिंदी के माध्यम से ही भारी सफलताएं अर्जित कीं हैं। सभी के प्राण
पखेरू हिंदी में ही वसते हैं। इसलिए यह कोई खास विषय नहीं की हिंदी
साहित्य के पाठकों की संख्या घट रही है या बढ़ रही है।

अन्य भाषाओँ के बारे में तो कुछ नहीं कह सकता किन्तु हिंदी भाषा और उसके
समग्र साहित्य़ संसार के बारे में यकीन से कह सकता हूँ कि उत्तर-आधुनिक
सृजन के उपरान्त -अब यहाँ पब्लिक इंटेलेक्चुअल्स नाम का जंतु वैसे भी
इफ़रात में नहीं पाया जाता। हिंदी जगत में कहानी,कविता ,भक्ति काव्य
,रीतिकाव्य , सौन्दर्यकाव्य ,रस सिंगार ,अश्लीलता के नए – अवतार फ़िल्मी
साहित्य और कला का बोलबाला है , कहीं -कहीं जनवादी राष्ट्रवादी
-प्रगतिशील और जनोन्मुखी साहित्यिक सृजन की अनुगूंज भी सुनाई देती है
किन्तु समष्टिगत रूप में तात्कालिक दौर की समस्याओं और जीवन मूल्यों के
वौद्धिक विमर्श पर हिंदी बेल्ट में सुई पटक सन्नाटा ही है. इस साहित्यिक
सूखे में जिज्ञासु या ज्ञान-पिपासु पाठकों की कमी होना स्वाभाविक है।मांग
और पूर्ती का सिद्धांत केवल अर्थशाश्त्र का विषय नहीं है। साहित्य के
क्षेत्र में भी यह सिद्धांत सर्वकालिक ,सार्वभौमिक और समीचीन है।

लेखकों और जनता के बीच संवादहीनता का दौर है ,अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर
देश और समाज की वास्तविक आकांक्षाओं के अनुरूप क्रांतिकारी साहित्य
अर्थात व्यवस्था परिवर्तन के निमित्त रेडिकल – सृजन शायद आवाम की या सुधी
पाठकों की माँग भले ही न हो किन्तु देश और कौम के लिए यह साहित्यिक कड़वी
दवा नितांत आवश्यक है. हिंदी के पाठकों की संख्या बढे इस बाबत पठनीय
साहित्य की थोड़ी सी जिम्मेदारी यदि साहित्य्कारों की है तो कुछ थोड़ी सी
हिंदी के जानकारों की याने -सुधी पाठकों की भी है। -:श्रीराम तिवारी

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