‘ब्रह्माण्ड का एकमात्र ईश्वर ही संसार के सब मनुष्यों का उपासनीय’

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-मनमोहन कुमार आर्य
ईश्वर क्या है व ईश्वर किसे कहते हैं? यह एक साधारण मनुष्य का प्रश्न हो सकता है। इसका सरल उत्तर यह है कि संसार को व समस्त प्राणीजगत को बनाने वाले को ईश्वर कहते है। वह कैसा है? इसका उत्तर यह है कि वह ‘सच्चिदानन्दस्वरूप’ है। सच्चिदानन्द का अर्थ है कि वह सत्य, चेतन और आनन्द स्वरूप वाला है। सत्य का अर्थ है कि उसकी सत्ता निश्चित रूप से है, ऐसा नहीं है कि वह न हो। चेतन का अर्थ है कि वह जड़ पदार्थों से भिन्न चेतन सत्ता है जिसे सुख व दुख, सत्य व असत्य, ज्ञान व अज्ञान, सृष्टि व प्राणियों की रचना का ज्ञान व उसे कार्यरूप देने का सामर्थ्य उसमें सदा से है। आनन्द भी ईश्वर का स्वरूप वा गुण है जो सदा सर्वदा से उसके साथ है व सदा रहेगा, कभी ईश्वर से पृथक व नष्ट नहीं होगा। दर्शन शास्त्र व सृष्टि का नियम है कि जिसका आदि होता है वा उत्पत्ति होती है, उसका अन्त व नाश भी होता है और जिसका आदि न होकर जो अनादि अर्थात् सदा सर्वदा से हो, उसका न अन्त, न अभाव और न पूर्ण विनाश ही कभी होता है। अतः सत्य, चित्त व आनन्द ईश्वर का अनादि स्वरूप है। यह जैसा अब है, वैसा ही पहले था और हमेशा ऐसा ही रहेगा। वेद व वैदिक साहित्य के अनुसार ईश्वर अनन्त गुर्म-कर्म-स्वभाव से युक्त है। उसके कुछ प्रमुख गुण हैं कि वह निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाघार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता व जीवात्मा को उनके कर्मों के फलों का देनेे वाला आदि है। सभी जीव कर्म करने में स्वतन्त्र हैं परन्तु अपने किए हुए कर्मों का फल भोगने में ईश्वर के व्यवस्था में परतन्त्र है। इस संसार को देख कर व इस पर विचार करने पर यह सभी गुण सार्थक व ईश्वर में विद्यमान दृष्टिगोचर होते हैं। ईश्वर का एक गुण सर्वव्यापक होना है। सर्वव्यापक का अर्थ है उसका सब जगह होना। इसका अर्थ है कि वह एकदेशी वा एक ही स्थान पर विद्यमान नहीं है। एकदेशी तो जीवात्मा है जो अणु परिमाणवत् है। ईश्वर सर्वव्यापक होने से इस विशाल व अनन्त ब्रह्माण्ड में सर्वत्र वा सभी जगहों पर विद्यमान वा उपस्थित है। इसका प्रमाण यह दृश्यमान व अदृष्य दोनों प्रकार का ब्रह्माण्ड व जगत् है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस सृष्टि के विषय में अब तक जितना पता चला है उसके अनुसार यह अनन्त है। हमारे सूर्य के समान व इससे भी बड़े अनेक वा असंख्य सूर्य इस ब्रह्माण्ड में हैं, इसी से इनका रचयिता केवल ईश्वर होने व इतर अन्य कोई सत्ता के न होने से सृष्टिकर्ता ईश्वर सर्वव्यापक सिद्ध होता है। इसी प्रकार विवेचन व ऊहा से ईश्वर के सभी गुणों व स्वरूप को जाना व समझा-समझाया जा सकता है।

कुछ मतों में यह माना जाता है कि यह सृष्टि अपने आप बन गई या यह हमेशा से बनी हुई है। उनके अनुसार यह सृष्टि कभी नष्ट भी नहीं होगी। ऐसी बातों पर विचार करने पर यह सभी बातें अज्ञानतापूर्ण सिद्ध होती हैं। संसार में कोई भी उपयोगी रचना बुद्धिपूर्वक ही होती हैं, स्वतः व अपने आप नहीं। बुद्धि अर्थात् ज्ञान चेतन का गुण होता है। रचना सदैव किसी रचयिता द्वारा ही की जाती है। रचयिता के पास रचना का प्रयोजन होता है और रचना के लिए पूर्ण ज्ञान सहित उपयोगी सभी आवश्यक पदार्थ, उपादान कारण कहलाते हैं, होते हैं। इन सबके होने पर ही रचना होती है। जैसे एक पत्र लिखने के लिए कागज, पैन व लिखने का ज्ञान रखने वाले मनुष्य की आवश्यकता होती और लिखने का प्रयोजन भी अवश्य होता है, इसी प्रकार सृष्टि रचना का भी कारण व प्रयोजन होता है। हमारे पास लिखने की सामथ्र्य, ज्ञान, कागज व अन्य सभी सामग्री हो परन्तु पत्र को लिखने का प्रयोजन न हो तो हम लिखेंगे नहीं। इसी प्रकार एक चेतन सत्ता होने के कारण ईश्वर ने भी सप्रयोजन प्रकृति रूप उपादान कारण से व अपनी नित्य सृष्टि रचना के ज्ञान व अनुभव से इस वर्तमान सृष्टि को रचा है। यदि अनादि व नित्य ईश्वर न होता और वह इस सृष्टि को न रचता और यदि अनादि व नित्य जीव न होते और उनके पूर्व जन्मों के शुभ व अशुभ कर्म न होते तो इस सृष्टि की रचना कदापि न होती।

मनुष्य की आकृति वाली व स्त्री वा पुरुष शरीरधारी सभी जीवात्माओं को मनुष्य कहते हैं। इनके पूर्व जन्मों के कर्मों वा प्रारब्ध के अनुसार इन्हें यह मनुष्यादि जन्म मिला है। इस मनुष्य जीवन का कर्तव्य क्या है? इसमें प्रारब्ध का भोग करना तो है ही, साथ ही दुःखों से सदा-सदा अर्थात् सुदीर्घकाल, 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक, जन्म-मरण रूपी दुःखों से छूटकर ईश्वर के सान्निध्य में आनन्द को भोगना है, जिसे मोक्ष कहते हैं, ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य है। यह लक्ष्य किन साधनों से सिद्ध होता है, उसे जानना और उसके अनुसार साधना करना ही, इतर अनेक कर्तव्यों से अतिरिक्त, मनुष्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। मोक्ष संबंधी साधनों का वर्णन हमें वेद एवं वैदिक साहित्य में मिलता है। ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में इसका विस्तार से वर्णन किया है। इन साधनों में ईश्वर की सन्ध्या व ध्यान, यज्ञ-अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ व बलिवैश्वदेव यज्ञ सहित सेवा, परोपकार आदि कर्मों को करते हुए उन कर्मों को भी करना है जिससे ऋषि ऋण, पितृ ऋण व देव ऋण उतरता है और इसके साथ ही ऐसा कोई कार्य न किया जाये जो इसके विपरीत व अकर्तव्य हो। यदि हम अपने पूर्व के सभी ऋषि-मुनियों सहित ऋषि दयानन्द और महापुरुषों में श्री रामचन्द्र जी, श्री कृष्ण चन्द्र जी, आचार्य चाणक्य, स्वामी श्रद्धानन्द जी, स्वामी वेदानन्द जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी आदि के जीवन पर दृष्टि डाले तो यह सभी हमें मोक्ष मार्गगामी दिखाई देते हैं। सन्ध्या में ईश्वर की उपासना की जाती है। उपासना में मुख्यतः वेद मन्त्रों व उनके अर्थों से ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना का करना होता है। इसके साथ ईश्वर के स्वरूप व उसके उपकारों आदि का ध्यान करना होता है। योग दर्शन निर्दिष्ट विधि से उपासना व ध्यान करने से समाधि प्राप्त होकर ईश्वर की प्राप्ति व उसका साक्षात्कार हो जाता है। यह विवेक की स्थिति कहलाती है। यही मोक्ष प्राप्ति की अर्हता है। इसे प्राप्त करना ही संसार के प्रत्येक मनुष्य का धर्म का कर्तव्य है। जो ऐसा करते हैं वह भाग्यशाली हैं और जो ऐसा न कर इसके विपरीत धनोपार्जन व सुख सुविधाओं के संग्रह में ही लगे रहते हैं या हिंसा आदि कर लोगों को दुःख पहुंचाते हैं, हमें लगता है कि वह जन्म-मरण के बन्धन में फंस कर दुःख के भागी व नरकगामी होते हैं। अतः ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को जानकर व वेदानुसार अपने कर्तव्य का निर्धारण कर अन्य सभी देश व समाज के हित के कार्यों को करते हुए स्तुति, प्रार्थना व उपासना द्वारा ईश्वर की प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिये। यही मनुष्य का मुख्य व अनिवार्य कर्तव्य है।

हमने इस लेख में यह बताने का प्रयत्न किया है कि संसार में ईश्वरीय सत्ता केवल एक ही है जो सच्चिदानन्दस्वरूप है। उसी ने जीवात्माओं के सुख के लिए इस जगत् की रचना कर हमें मानव आदि शरीर दिए हैं। ईश्वर की वेद विहित विधि व साधनों से उपासना आदि कर हमें जीवन के उद्देश्य ईश्वर के साक्षात्कार का लक्ष्य प्राप्त करने में अग्रसर होना चाहिये। उपासना-ध्यान-संन्ध्या की विधि जानने के लिए ऋषि दयानन्द ने ‘पंचमहायज्ञविधि’ नामक लघु ग्रन्थ की रचना की है जिसमें उपासना के अतिरिक्त दैनिक अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ व बलिवैश्वदेवयज्ञ को भी सम्मिलित किया है। अपने कर्तव्य को अच्छी व भली प्रकार करने से ही हम अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं। इति शम्।

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