शमशेर की कविता

पिन्टू कुमार मीणा

शमशेर बहादुर सिंह दूसरे सप्तक के कवि है । इनके 1956 और 1961 में दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए- ‘कुछ कविताएँ’ और ‘कुछ और कविताएँ’ । शमशेर आधुनिक दौर के सबसे जटिल कवि माने जाते हैं । इसका कारण कविता को समझने की पाठक / आलोचक की वह पारंपरिक धारणा रही है जिसके चलते रचनाकार के विचारों को उसकी रचना पर आरोपित करके उसे समझने की कोशिश चलती रही है । शमशेर इस प्रक्रिया से नहीं समझे जा सकते । ठोस सामाजिक वस्तु के आधार पर ही रचनाकारों को समझा जाता है । शमशेर के लिए मार्क्सवाद जीवन व्यवहार व्यक्तित्व निर्माण की आधारभूत सामग्री है । मार्क्सवाद और भाव-बोध को लेकर शमशेर में द्वन्द चलता रहा है । भावुकता को शमशेर ख़ारिज नहीं करते, उसे गौरव प्रदान करते हैं । वे मानते हैं कि कला उस यथार्थ की कलात्मक अभिव्यक्ति है जो मनुष्य के जीवन में घटित और अनुभूत होती है । मनुष्य के स्वप्न, योजनाएँ, उसके कार्यकलाप, संघर्ष, आन्दोलन, क्रांतियाँ, उसका सारा व्यक्तित्व और सामूहिक इतिहास-यथार्थ है । मनुष्य की कल्पनाएँ भी उसके मानसिक जीवन का यथार्थ है । यथार्थ की इस कलात्मक अभिव्यक्ति में शमशेर मानते हैं कि कला, टेकनिक, शैली की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । शमशेर जी का विश्वास है कि “बातों के कहने के इशारे संकेत से लेकर बहुत ही अस्पष्ट तक हो सकते हैं । मगर इशारों के पीछे किसी बहुत मार्मिक बात का होना आवश्यक है ।” इस वक्तव्य का प्रत्यक्ष उदाहरण इनकी कविता ‘इस तरह क्यों है’ में मिलता है ।

निज भाव की कविता

मुक्तिबोध ने शमशेर को मनोवैज्ञानिक यथार्थवादी मानते हुए भी आत्मपरक कवि कहा है । अपनी आरंभिक कविताओं के संग्रह ‘उदिता’ में शमशेर ने कहा है कि वे उस पाठक का ख्याल रखते हैं, जो उनकी हंसी-ख़ुशी और दुःख-दर्द की आवाज सुनता और सझता है । वे लिखते हैं कि ऐसे पाठक के सामने “मैंने अपनी बातों को खास अपने लहजे में खास अपने मन के रंग में, अपनी लय, अपने सुर में खोलकर एक ख्वाब की तरह, एक उलझी हुई याद के बहुत अपने छायाचित्र की तरह रखने की कोशिश की है । लेकिन शमशेर का अपना खास लहजा, उनका अपना खास रंग शुरू-शुरू में ‘प्रभुत्वशाली छायावादी स्वर के नीचे दवा हुआ-सा लगता है । जहाँ इनकी शैली पन्त से प्रभावित प्रतीत होती है ।’

रह जाते हैं सिहर-सिहर

मृदु कलिका के विस्मित गात

बहका फिरता मधुप अधीर

तितली अस्थिर गीत अवदात ।  ….(सहन-सहन बहता है वायु)

शमशेर उत्तर छायावादी काव्य में यहाँ से वहाँ तक मौजूद तड़प और चुभन के साथ अपनापन महसूस करते हैं, यह उस समय की उनकी कविताओं से भी परिलक्षित होता है । इस दृष्टि से उनकी ‘आज ह्रदय भर-भर आता है’, ‘ज्योति’, ‘कवि-कला का फूल हूँ मैं’ जैसी कविताओं से ही नहीं, ‘वाणी’ जैसी कविता में भी इस दौर के सुर में उनका सुर मिलता हुआ नज़र आता है। शमशेर की ‘आधी-रात’ कविता आधुनिक हिंदी कविता में प्रकृति-संवेदना के एक बिलकुल नए स्तर का उद्घाटन करती है-

बहुत धीरे-धीरे

बजे है बा s रा s….

गिना है एक एक कर मैंने

बा र ह बा र

सुनो !

‘रामदरस मिश्र’ ने शमशेर बहादुर को ‘अनुभवों के रूमानी कवि’ कहा है । पर कवि एकदम सीधी और सपाट कविता लिखने में भी पूरी तरह सक्षम है, ऐसी कविता जिममें कहीं भी भावुकता से उत्पन्न शिथिलता न हो ।

बात बोलेगी

हम नहीं

भेद खोलेगी

बात ही        …… (बात बोलेगी-कुछ और कविताएँ)

शमशेर बहादुर सिंह ने अपने कुंठित प्रेम की अभ्व्यक्ति सूक्ष्म प्रतीक विधान और बिम्बों के आवरण में की है । इनकी अतिशय व्यक्तिवादिता भी यथार्थवाद से मिलकर इनकी काव्यानुभूति को अस्पस्ट और जटिल बना देती है । ‘विजयदेव नारायण साही’ ने इसे ‘बेचैन-संतुलन’ की संज्ञा दी । कुछ आलोचक इन्हें ‘सुर्रियलिस्ट’ (अतियथार्थवादी) मानते हैं । ‘इन्द्रनाथ मदान’ ने इनको ‘रूपवादी’ ‘सौंदर्यवादी’ माना और रामदरश मिश्र ने ‘प्रभाववादी’ माना ।

इनकी कविता में लय की अनुभूति नियंत्रित है जो इनके काव्य की बहुत बड़ी विशेषता है । ‘टूटी हुई बिखरी हुई कविता’ लय के अनुशासन का उत्कृष्ट उदाहरण है । डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव ने इनकी इस विशेषता को आत्मानुशासित कवि व्यक्तित्व का प्रमाण’ माना है । इन्होने शब्द लय का भी सफल प्रयोग किया-

दील के सीने में तड़पता है, तड़पता है,

जैसे

हवा में कोई सिसकता है ।

मूर्ख फूल / चुपचाप ढुलते

चले जाते / आखिर किस लिए

प्राण केसर बरसता है ।

शमशेर बहादुर सिंह काव्यानुभूति के परिष्कार के कवि हैं । कवि अपनी अभिव्यक्ति के प्रति अत्याधिक सचेत और प्रतिबद्ध है । शब्दों की सही पहचान, सूक्ष्म प्रतीक विधान और लय के रचाव के सफल कवि है । ‘कम्यून’ की कार्यकर्ता एक वृद्ध महिला पर लिखी कविता में तरु के प्रतीक की सार्थकता स्पष्ट है-

तरु गिरा

जो, झुक गया था, गहन

छायाएँ लिए ।                   ……..(कुछ और कविताएँ)

आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है

मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूँ ।

और चमक रहा हूँ, कहीं

न जाने कहाँ ।     (टूटी हुई बिखरी हुई-कुछ और कविताएँ)

उर्दू कविता से शमशेर का घनिष्ट सम्बन्ध था ‘किस तरह आखिर में हिंदी में आया’ शीर्षक निबंध में शमशेर लिखते हैं- ‘ग़ज़ल मेरी भावुकता और आतंरिक अभावों की, अपने तौर पर भली-बुरी एक मौन साथी थी ।’

उर्दू कविता, जिसने शमशेर के संस्कारों को ढाला है, एक रूपक में उनके सामने आती है, … ‘मर्महता विषाद- नगरी दिल्ली की भोली-बालिका… स्वर कुछ बचपन से ही करुण … पर आज उसका यौवन-स्वर बहुत गंभीर बहुत कोमल तथा मधुर-किन्तु बहुत गंभीर हो गया है ।’ उनके सामने उर्दू कविता का पूरा विकास है । वे उसकी उस विशिष्टता से परिचित हैं, जिसके चलते वह महत्वपूर्ण है । ‘उर्दू कविता’ नामक लेख में इस विकास क्रम की छानबीन करते हुए वे आधुनिक उर्दू कविता के बारे में यह विचार व्यक्त करते हैं, ‘युग-परिवर्तन के साथ-साथ सुसंस्कृत होकर गज़ल में आज प्रत्येक विषय का समावेश हो गया है, किन्तु पूर्व परिचित ‘श्रृंगारिक लक्षण के आधार पर ही, चाहे वह नाम-मात्र को ही क्यों न हो, तथापि उसका संकेत-व्यापक उतना गूढ़ हो गया है और अनुभूतियाँ ऐसी सुक्ष्माभिव्यक्ति ढूँढती जान पड़ती है कि प्रत्येक विशिष्ट कवि एक प्रकार के आध्यात्मिक रंग में रंग गया-सा दिखाई पड़ता है ।’ शमशेर की निगाह में ग़ज़ल की परंपरा का महत्वपूर्ण पक्ष है- शब्द संगठन और लोच, मुहावराबंदी और सफाई का महत्व बढ़ाकर क्लिष्टता से खुद को बचाना । दूसरी चीज, जो उन्हें खींचती है, वह है इसकी शुद्धता और सुडौलपन और इसकी वह शोखी, जिसका कहीं कोई जवाब नहीं ।

शमशेर बिम्ब के धनी थे । इन्होंने कविता में जटिल बिम्बों के साथ प्रकृति के कुछ अत्यंत अछूते बिम्ब और उनसे जुड़ी हुई अपनी खास संवेदना के चित्र हिंदी कविता को दिए हैं, जो उनके अलावा और कहीं नहीं मिल सकते थे । जैसे इस चाँद को देखीए, ‘सँवलती ललाई में लिपटा हुआ / काफी ऊपर / तीन चौथाई खामोश गोल सादा चाँद ।’ आगे चलकर यह चाँद जब कवि के मन में गहरा उतर जाता है, तो यह बिम्ब मिलता है, रात में ढलती हुई तमतमायी-सी / लाजभरी शाम के /अन्दर / वह सफ़ेद मुख / किसी ख्याल के बुखार का ।’ चाँद अब भी चाँद है, पर वह अपना रूप छोड़कर एक संवेदना में बदल जाता है ।’क्षीण नीले बादलों में’ में ढलती शाम और गहराती रात का चित्र है । देखने वाले की मनःस्थिति का अंकन भी साथ-साथ है-

बादलों में दीर्घ पश्चिम का

आकाश / मलिनतम ।

ढके पीले पाँव

हो रही रुग्णा संध्या ।

x     x     x

नील आभा विश्व की

हो रही प्रति पल तमस ।

बीमार शाम का पीलापन रात गहरे अंधेरे में बदल रहा है । लेकिन इस समय चाँद आसमान पर कुछ इस तरह है मानों बीत चुकी शाम की एक खिड़की-सी खुली रह गई है, वैसे ही कवि के जीवन से भी किसी का भाव बीत चुका है । वह इस खुली खिड़की से झाँकने लगता है । इसी खुली खिड़की की बजह से कवि के मन पर छाया अँधेरा उसे पूरी तरह ग्रस नहीं पता ।

विगत संध्या की

रह गई एक खिड़की खुली ।

झाँकता है विगत किसका भाव ।

शमशेर की मूल मनोवृति एक इम्प्रेशनिस्टक चित्रकार की कला, शमशेर के लिए, मनुष्य की आत्मा का सबसे बड़ा संघर्ष है क्योंकि उसी में यह ताकत है कि वह मानव-समाज को एक कर दें । शमशेर पर बात करते समय अक्सर इस्तेमाल किये जाने वाले शब्दों कला, सौन्दर्य, प्रेम आदि का विशिष्ट परिप्रेक्ष्य ‘इतने पास अपने’ में संकलित ‘कला’ शीर्षक कविता की इन पंक्तियों में मिलता है-

कला सबसे बड़ा संघर्ष बन जाती है

मनुष्य की आत्मा का

प्रेम का कँवल कितना विशाल हो जाता है

आकाश जितना

और केवल उसी के दूसरे अर्थ सौन्दर्य हो जाते हैं

मनुष्य की आत्मा में

कला में खिलनेवाला प्रेम का कमल अपरिमित विस्तार रखता है और इसी व्यापकता में वह सौन्दर्य की सृष्टि भी करता है । यही तो कला का उद्देश्य है । सिर्फ इसी अर्थ में शमशेर प्रेम और सौन्दर्य के कवि हैं । मुक्तिबोध ने उन्हें ‘प्रणय भावना’ के एक विशिष्ट कवि के रूप में चिन्हित किया है । अक्सर उनकी कविताओं में व्यक्त प्रणय-भावना को उनके जीवन में व्याप्त नारी के अभाव से उत्पन्न असंतोष से जोड़कर देखा गया है ।

तुम्हारा सुडौल बदन एक आबशार है

जिसे मैं एक ही जगह खड़ा देखता हूँ

ऐसा चिकना और गतिमान

ऐसा मूर्त सुन्दर उज्ज्वल ।

शमशेर अनायास ही प्रणय-संवेदना और कोमलता को एक अत्यंत उदात्त स्तर पर इसी तरह प्रतिष्ठित कर देते हैं । ‘हलकी मीठी चा-सा दिन हो’, ठंडी सुनहरी धूप’ हो तो प्रेमिका की याद आना स्वाभाविक है ।

पलकों पर हौले- हौले

तुम्हारे फूल-से पाँव / मानों भूल कर पड़ते

ह्रदय के सपनों पर मेरे ।

अकेला हूँ, आओ                          ……(दूब)

यह आमंत्रण, उनके यहाँ हमेशा मुलायम बाहों सा अपनाव वाली कोमलता लिए हुए नहीं होता । प्रेम की यह अभिलाषा शमशेर के यहाँ कितनी उत्कृष्ट है और वह किस तरह उनके व्यक्तित्व पर छाई हुई है, यह ‘आओ’ शीर्षक कविता पढ़कर जाना जा सकता है । इस कविता में ‘भीने गुलाब-पीले गुलाब के’ पाल गिराए तैरती आती बहार में जाफरान हवा में ही नहीं, संसार में भी घुल जाता है । प्रेमिका के खो जाने का अहसास उनके अकेलेपन को गहरा कर देता है । वह एक सुराही, एक चटाई और अपने पडोसी ज़रा से आकाश के साथ खुश तो हैं पर खोई हुई प्रेमिका के बिना यह अकेलापन ‘दीदों की वीरानी’ में तब्दील हो जाता है । वे कहते हैं-

शेर में ही तुमको समाना है अगर

ज़िंदगी में आओ, मुजस्सिम

बहरतौर चली आओ ।            ………(ग़ालिब की डायरी)

इस प्रकार प्रेम और सौन्दर्य भी शमशेर के लिए उन अर्थों में प्रेम-सौन्दर्य नहीं है जिन अर्थों में श्रृंगारवादी उसे मानते हैं या मार्क्सवादी उसे नकारते हैं । शमशेर के लिए कला में खिलने वाला प्रेम का कँवल अपरिमित विस्तार रखता है, और इसी व्यापकता में वह सौन्दर्य की सृष्टि भी करता है । नारी सौन्दर्य के जो दो-चार चित्र उन्होंने खींचे हैं उनमें भी शमशेर का लक्ष्य नारी नहीं बल्कि उस सौन्दर्य में शारीरिक मुद्राओं का आकर्षण और उनका कलात्मक चित्रण है ।

इतिहास के घटनाक्रम के बीच अचानक बन गए केंद्रों में जो व्यक्ति होता है, उसे ही अभिव्यक्ति देना शमशेर का उद्देश्य है । उस व्यक्ति में अपने एक सूक्ष्म-युग-भाव है जो उनके अपने पाठकों को छोड़ और किसी को शायद ही दिखे । वे ऐसी ही कविता लिखना पसंद करते हैं क्योंकि प्रचलित धरणा के विपरीत वे इन्हीं वैयक्तिक अनुभूतियों के अन्दर अपने ज़माने के भावों की अभिव्यक्तियाँ देख पाते हैं । पर उनके लिए यह बात जितनी स्पष्ट है, उतनी औरों के लिए नहीं । इसलिए वे आगे मात्र ‘मेरे पाठक’ जिन्हें कहा जा सकता है, उनके लिए अपने को सार्थक मानते हैं ।

निष्कर्षतः शमशेर को मनोवैज्ञानिक यथार्थवादी मानते हुए भी उन्हें आत्मपरक कवि कहा गया है, क्योंकि उनकी कविताओं में सामाजिक विषयों का फैलाव नहीं है । जीवन के छोटे-छोटे, सुख-दुःख, विचार, भाव, मनःस्थितियाँ उनके काव्य का विषय बनती है लेकिन जिन्हें वे उनके पूरे सन्दर्भों में रखकर चित्रित करते हैं । शमशेर की कविताओं का मूल भाव अकेलापन है । अकेलापन, अवसाद, दुःख, अंधेरा उनकी कविताओं में खूब आता है किन्तु अति तीव्र जाग्रत चेतना के साथ जिसमें समस्त इन्द्रियाँ प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण करने लगती है । शमशेर के अनुसार कलाकार जीवन के किसी जाहिरी रूप को अभिव्यक्त नहीं करता, वह उसके कलात्मक रूप को अभिव्यक्त करता है ।

मार्क्सवादी जीवन-दर्शन से शमशेर बहुत प्रभावित हुए । वे मानते थे कि जीवन को समझने के लिए मार्क्सवाद जरुरी है । किन्तु मार्क्सवादी प्रभाव का प्रतिफलन उनके नज़रिये में ही हुआ, व्यापक सामाजिक विषयों की ओर उन्मुख होने में नहीं हालाँकि अकेलापन के भाव का उनमें लोप हो गया और मनुष्य और समाज उनकी कविता में एक नई उमंग, उम्मीद और उल्लास के साथ आए ।  मार्क्सवाद से समाज में अकेले व्यक्ति की जगह को उन्होंने पहचाना । इतिहास के अंग के रूप में व्यक्ति किस प्रकार चारों ओर से सम्बद्ध है, चाहे-अनचाहे-इस सत्य का उन्हें आभास हुआ और इनका प्रभाव उनकी रचना पर पड़ा, इसने जीवन और उसके सौन्दर्य के प्रति उनकी आस्था को दृढ़ किया ।

शमशेर को समझने में रचनाकारों, आलोचकों को दिक्कत होती रही है क्योंकि जीवन के यथार्थ को खण्ड-खण्ड देखने की जो प्रवृति है वह हमेशा बाधा का काम करती है । शमशेर का मानना है कि ‘हमारे सामाजिक संबंधों की डोरियाँ सिर्फ शब्द या स्वर या वेशभूषा या रीतिरिवाज ही नहीं, बल्कि इन सबके मिले-जुले इतिहास की गति भी है, जिसको कि एक चित्र में, रेखा में या सिम्फनी में संगीत का रूप दिया जा सकता ही । इस ज़िन्दा, प्रतिदिन के इतिहास को हर कलाकार अपने-अपने ढंग से पकड़ता है और भरसक व्यक्त करने की कोशिश करता है ।’ जो शमशेर की कविता की ओर इंगित करता है । किसी रचना को इस आधार पर नहीं कि उसमें क्या कहा गया है बल्कि इस आधार पर समझना चाहिए कि उसमें जो कुछ कहा गया है वह कलात्मकता की कसौटी पर कितना खरा है । आलोचकों का अपनी पसंदगी-नापसंदगी से कवियों का मूल्यांकन करना भी आलोचना की एक बड़ी सीमा बन गई है ।

उपरोक्त विवेचनोपरांत हम पाते हैं कि शमशेर साहित्य और कला की दुनिया के सिद्धहस्त कलाकार है जिन्हें समझने और जानने के लिए हमें पारंपरिक रूचि / अरुचि छोड़कर नए ढंग से देखना होगा । शमशेर बहादुर सिंह को समझने और पसंद कर पाने के लिए कविता पढ़ने की कुछ वैसी आदत विकसित करने की ज़रूरत है जिसके आभाव का अफ़सोस ‘दूसरा सप्तक’ के ही कवि ‘रघुवीर सहाय’ की इन पंक्तियों में है-

मेरी कविता में ऊषा के

भीतर मेरी मृत्यु लिखी

चिड़िया के भीतर है मेरी

राष्ट्रभावना, बच्चों में दुख ।

माना सब कुछ गवड़ सबड़ है

पर मैंने यों ही देखा था……..

 

पिन्टू  कुमार  मीणा

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