संदर्भ- हिंदू शरणार्थियों को नागरिक पहचान-पत्र देने पर बवाल-
प्रमोद भार्गव
दुनिया में ऐसे अलोकतांत्रिक देश बहुत हैं, जहां फैसला लेने और लोगों पर थोपने से पहले सरकारें जरा भी मानव-समुदायों की परवाह नहीं करती हैं। किंतु यह भारतीय व्यवस्था की अर्से से चली आ रही उदारता ही है कि अलगाववादियों की बेलगाम अतिवादिता पर भी हम लगाम लगाने में संकोच करते हैं। कश्मीर घाटी में यह बेलगामी इतनी एकपक्षीय उग्र तेवरों की शिकार हो गई है कि देश-विभाजन के समय पश्चिमी पाकिस्तान से प्राण बचाकर आए लोगों को जब पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार राहत देने के चंद उपाय कर रही है तो यहां के अलगाववादियों ने विरोध शुरू कर दिया। कहा जा रहा है कि घाटी के मुस्लिम स्वरूप में बदलाव नहीं आने दिया जाएगा। जबकि घाटी में मुस्लिम एकरूपता इसलिए है, क्योंकि वहां से मूल कश्मीरी हिंदुओं का पलायन हो गया है और जो शरणार्थी हैं, उन्हें बीते 70 साल में न तो देश की नागरिकता मिली है और न ही वोट का अधिकार मिला है। इसके उलट अलगाववादी उन रोहिंग्या मुसलमानों को घाटी में रहने दे रहे हैं, जो म्यांमार से पलायन कर हाल ही में आए हैं। इस विरोधाभासी मंशा से यह साफ तौर से समझा जाता है कि घाटी का चरित्र पूरी तरह सांप्रदायिकता की गिरफ्त में आता जा रहा है। यदि इस स्थिति से सख्ती से नहीं पिनटा गया तो घाटी और जहरीली होती जाएगी।
संविधान निर्माण के समय जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने की मांग पर डाॅ भीमराव अंबेडकर ने शेख अब्दूल्ला से कहा था, ‘आप चाहते है कि भारत कश्मीर की रक्षा करे, कश्मीरियों की आर्थिक सुरक्षा करे, कश्मीरियों को संपूर्ण भारत में समानता का अधिकार मिले, लेकिन भारत के अन्य नागरिकों को कश्मीर में कोई अधिकार नहीं मिले ? मैं देश का कानून मंत्री हूं और मैं अपने देश के साथ कोई अन्याय या विश्वासघात किसी भी हालत में नहीं कर सकता हूं।‘ बावजूद पं. नेहरू के अनावश्यक दखल देकर कश्मीर को विशेष दर्जा दिला दिया। इस भिन्नता का संकट देश बंटवारे से लेकर अब तक भुगत रहा है। यही वजह है कि इस बंटवारे के बाद पाकिस्तान से जो हिंदू, बौद्ध, सिख, डोगरे और दलित शरणार्थी होकर जम्मू-कश्मीर में ही ठहर गए थे, उन्हें मौलिक अधिकार आजादी के 70 साल बाद भी नहीं मिले हैं। इनकी संख्या करीब 70-80 लाख हैं, जो 56 शरणार्थी शिविरों में सभी सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से महरूम रहते हुए बद् से बद्तर जिंदगी का अभिशाप भोग रहे हैं। दरअसल इन पर भारतीय नागरिक होने का कोई पहचान-पत्र नहीं है। राशन कार्ड, मतदाता पहचान-पत्र और आधार कार्ड जैसी मूलभूत पहचानों से ये पूरी तरह वंचित हैं। इसीलिए इन्हें मतदान का अधिकार भी नहीं हैं। लिहाजा कश्मीर के सियासी दलों से लेकर भाजपा को छोड़ अन्य किसी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल को इनके अस्तित्व- पहचान की परवाह नहीं है।
भारतीय संविधान की विशेष धारा-370 जम्मू-कश्मीर को दो विधान, दो निशान और दो प्रधान का विशेष दर्जा देती है। यही विशेष दर्जा यहां अलगाववाद की चिंगारी को सुलगाए हुए है और यही कश्मीरियों को परस्पर बांटने और असुरक्षित बनाए रखने का काम कर रहा है। यहां न ठीक से आरक्षण लागू है और न ही त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू है। कश्मीरी मुसलमानों के बीच भी बड़े पैमाने पर असमानता है। सत्ता और सुविधाओं का बंटवारा महबूबा मुफ्ती एवं फारूख अब्दुल्ला परिवारों के बीच किसी विरासत की तरह केंद्रित है। इस कारण यहां लोकतंत्र होने के बावजूद आम-नागरिक की दूरी सत्ता से बनी हुई है। अखंड भारत का एक यही एक ऐसा राज्य है, जहां एक बड़ी आबादी बुनियादी अधिकारों के लिए 70 साल से तरस रही है।
हाल ही में पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार ने घाटी में रह रहे शरणार्थियों को राहत देने की अहम् शुरूआत की है। जिससे इन्हें सस्ती दर के राशन के साथ अन्य कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिलने लग जाए। यह शुरूआत हुई ही थी कि मुस्लिम कश्मीरियों ने विरोध शुरू कर दिया। क्योंकि ये शरणार्थी हिंदू, सिख, बौद्ध, डोगरे व दलित हैं। जबकि फिलहाल महज राहतकारी योजनाओं का लाभ देने का ही सिलसिला हुआ है, यदि इन्हें भारतीय नागरिकता देने की पहल शुरू कर दी गई होती तो संभव है, घाटी में हिसंक वारदातें शुरू हो गईं होतीं ? साफ है, इस कश्मीरियत में राई-स्त्री भी इंसानियत को जगह नहीं है। इस कट्टर सांप्रदायिक रवैये से लगता है कि कश्मीर के मुसलमानों में बहुलतावादी सोच सर्वथा दुर्लभ व दूशित हो गई है। शरणार्थियों को राहत देने का निर्णय पीडीपी सरकार का है, बावजूद पीडीपी नेता अपना पक्ष नहीं रख पा रहे हैं। यही स्थिति स्थानीय कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस पार्टियों की है। लोकतंत्र की रक्षा, सांप्रदायिक सद्भाव और धर्मनिपेक्षता की दुहाई देने वाले राहुल गांधी, फारूख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला भी शरणार्थियों का समर्थन करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। ऐसी ही दोगली मानसिकता का परिणाम है कि घाटी में अलगाववाद को बढ़ावा मिला और मुस्लिम धु्रवीकरण हुआ।
इस धु्रवीकरण की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि घाटी में म्यांमार में अलगाववाद से जुड़े रोहिग्ंया मुस्लिम लगातार शरणार्थी के रूप में बसते जा रहे हैं। घाटी के आलावा जम्मू व लद्दाख क्षेत्रों में भी उनकी आमद बढ़ रही है। किंतु कश्मीर के मुस्लिम नेता उनके बसने का विरोध नहीं कर रहे हैं, क्योंकि ये मुसलमान हैं। कभी ‘ब्रह्मदेश‘ के नाम से जाना जाने वाले म्यांमार की आबादी करीब 6 करोड़ है। इनमें मुस्लिम बमुश्किल 5 प्रतिशत हैं। इसलिए मुस्लिम कट्टर व अलगाववाद वहां की संप्रभुता के लिए बड़ा खतरा नहीं हैं। बावजूद यहां मुस्लिम व बौद्धों में संघर्श एक न रुकने वाली समस्या बना हुआ है। दरअसल मुस्लिमों के साथ त्रासदी यह है कि वे शासक हों या शरणार्थी किसी भी स्थिति में अन्य समाजों के साथ समरस नहीं हो पाते हैं। असहिष्णुता उनके चरित्र का स्थायी भाव बनकर रह गया है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि रोहिग्ंया पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आइएसआई के शिकंजे में है। वह इन गरीब व लाचारों को आतंकवाद का पाठ पढ़ाने लग गया है। कई आतंकवादी संगठनों के सूत्रधार भी इनके संपर्क में हैं। इसलिए यदि समय रहते इन्हें भारत-भूमि से बेदखल नहीं किया गया तो ये रोहिग्ंया घाटी समेत पूरे भारत के लिए बड़ी समस्या बन सकते हैं।
कश्मीर को बद्हाल बनाने में दी जा रही बेतहाशा आर्थिक मदद भी है। घाटी में खेती-बाड़ी उद्योग-धंधे व मुख्य व्यवसाय पर्यटन लगभग चैपट हैं। फिर भी यहां कि आर्थिक स्थिति मजबूत है। यहां प्रति व्यक्ति आय का औसत भारत के अन्य सभी राज्यों से तीन गुना ज्यादा है। आखिर इस आय का रहस्य क्या है, इसकी पड़ताल जरूरी है ? यहां के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने कहा था कि यहां सरकारी कर्मचारी करीब 4.5 लाख हैं, जबकि जरूरत इससे आधे कर्मचारियों की है। यह राज्य महज 25 फीसदी आय ही अपने स्रोतों से जुटा पाता है, शेष भारत सरकार देती है। 2008 से 2011 तक बिहार से तीन गुना ज्यादा यहां अनुदान दिया गया। हालांकि यहां संसाधन भरपूर हैं। कश्मीर देश के विकास में ऊर्जा संयंत्रों व जल की उपलब्धता के चलते अहम् भूमिका निभा सकता है, लेकिन हिंसा और अलगाववाद ने यहां सब बरबाद किया हुआ है। ऐसे में केंद्र की आर्थिक मदद और पाकिस्तान से निर्यात जाली मुद्रा ने यहां के लोगों को निठल्ला बना दिया है। बावजूद यहां के नेता कश्मीर को ज्यादा स्वायत्तता देना, समस्या का स्थाई हल बताते हैं। दरअसल कश्मीर समस्या राजनीतिक नहीं पाकिस्तान परस्त आतंकवाद से मजबूत बनी हुई है। इसलिए इसका निदान इस आतंकवाद को नेस्तनाबूद करने से ही होगा।