यादेँ व उम्मीद :-सौरभ चतुर्वेदी

मयस्सर डोर से
फिर एक मोती झड़ रहा है ,
तारीखों के जीने से
दिसम्बर उतर रहा है |
कुछ चेहरे घटे , चंद यादें जुड़ीं
गए वक़्त में,
उम्र का पंछी नित दूर और दूर
उड़ रहा है |…
गुनगुनी धूप और ठिठुरती रातें
जाड़ो की,
गुजरे लम्हों पर झीना-झीना
पर्दा गिर रहा है।
फिर एक दिसम्बर गुजर रहा है
मिट्टी का जिस्म
एक दिन मिट्टी में ही मिलेगा ,
मिट्टी का पुतला
किस बात पर अकड़ रहा है |
जायका लिया नहीं
और फिसल रही जिन्दगी ,
आसमां समेटता वक़्त
बादल बन उड़ रहा है |
…फिर एक दिसम्बर गुज़र रहा है।
दोस्तों ।

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