संसार में सबसे बड़ा परिवार ईश्वर का परिवार है’

 

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हम परिवार शब्द का प्रयोग बहुधा करते हैं। पहले भारत में संयुक्त परिवार होते थे। एक परिवार में कई भाई, उनके परिवार अर्थात् पत्नी व बच्चे, बहनें आदि होते थे। इन सबसे मिलकर एक संयुक्त परिवार बनता था। देश आजाद हुआ, लोग पढ़े लिखे और नौकरी आदि व्यवसाय करने लगें। कुछ की आर्थिक स्थिति अच्छी हुई तो उन्हें संयुक्त परिवार में कमियां दृष्टिगोचर होने लगी। पाश्चात्य मूल्यों में विद्यमान स्वच्छन्दता आदि अपमूल्यों ने भी संयुक्त परिवार की व्यवस्था को हानि पहुंचाई। कई कारणों से यह संयुक्त परिवार विघटित होते गये और अब प्रायः एकल परिवार ही अधिकांशतः देखने को मिलते हैं। वर्तमान में एक परिवार में पति-पत्नी के अतिरिक्त उनके बच्चे ही होते हैं। यदि पुत्र व पुत्रवधु के संस्कार अच्छे हैं तो माता-पिता भी उनके साथ रह सकते हैं। जिन परिवारों में वृद्ध माता-पिताओं को रखा जाता है वहां कम व अधिक माता-पिता को बोझ ही माना जाता है। आजकल एक परिवार में एक, दो व अधिक हुआ तो तीन सन्तानें होती हैं। अतः परिवार की संख्या अधिकतम पांच होती है और यदि किसी परिवार में माता-पिता भी हैं, तो उनकी संख्या सात तक हो सकती है। औसत संख्या पर विचार करें तो सम्भवतः यह तीन या चार के बीच हो सकती है।

 

दूसरी ओर हम देखते हैं कि इस संसार को एक सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सच्चिदानन्द सत्ता ने जड़, कारण व मूल प्रकृति, जो सत, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति कही जाती है, से बनाया है। इस ब्रह्माण्ड में अनन्त संख्या में एकदेशी, सूक्ष्म, अल्पज्ञ, ससीम, अनादि, अमर, नित्य चेतन जीवात्मायें हैं जिन्हें ईश्वर उनके पूर्व जन्मों के संस्कारों व उनके कर्मानुसार अभुक्त कर्मों के फलों का भोग करने के लिए जन्म देता है। वस्तुतः यह सृष्टि ईश्वर ने असंख्य जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार सुख व दुःख प्रदान करने के लिए ही बनाई है। जीवात्माओं के शरीर भी परमात्मा ही अपनी न्याय व्यवस्था से निश्चित कर बनाता वा प्रदान करता है। इस सृष्टि का व नाना प्राणि योनियों में जन्म का उद्देश्य जीवात्माओं को सुख प्रदान करना होता है। जो जीवात्मायें असत्, अज्ञान, अशुभ कर्म नहीं करती हैं, उन्हें किसी प्रकार का दुःख नहीं होता है। ब्रह्माण्ड की अनन्त जीवात्मायें ईश्वर की प्रजा अर्थात् सन्तानें हैं और इन सभी जीवात्माओं से मिलकर ही ईश्वर का परिवार बना हैं जिनका पालन व पोषण ईश्वर अपने बनायें नियमों व व्यवस्थाओं के अनुसार करता है। विचार करने पर ज्ञात होता है कि सभी जीवात्मायें वा प्राणी अपनी अपनी योनियों में सन्तुष्ट रहते हैं। मरना अपवादस्वरूप शायद ही कोई चाहता हो परन्तु जीवित रहना सभी चाहते है। मनुष्यादि सभी प्राणियों के जीवन में दुःख की बहुत कम स्थितियां आती हैं और वह सभी प्रायः मनुष्यों द्वारा ही अविद्या व अविवेक के कारण निर्मित होती हैं। यदि मनुष्य वेद ज्ञान को प्राप्त कर उसके अनुसार जीवन यापन करें तो अनुमान हैं कि मनुष्य को कम से कम दुःख होंगे और उसका जीवन सुख व चैन से व्यतीत होगा। यह भी उल्लेख कर दें कि भौतिक साधन व सुख-सुविधायें सुख के कारण हो सकते हैं परन्तु इनसे स्थिर वा स्थाई सुख नहीं मिलता। सच्चा सुख तो सत्य ज्ञान वेद व उसके आचरण अर्थात् धर्म का पालन करने से मिलता है।

 

ईश्वर का परिवार ब्रह्माण्ड में मनुष्यों के परिवारों में सबसे बड़ा परिवार है। मनुष्यों का कोई परिवार आकार व परिमाण में ईश्वर के परिवार की बराबरी नहीं कर सकता। वस्तु स्थिति यह है कि मनुष्यों के सभी परिवार भी ईश्वर के परिवार में ही सम्मिलित हैं। ईश्वर के सभी प्राणियों पर असंख्य व अनन्त उपकार हैं जिससे मनुष्य कभी उऋण नहीं हो सकते। सामान्यतः ईश्वर को अपने लिए इस सृष्टि की कोई आवश्यकता नहीं थी। वह तो आनन्द स्वरूप होने से प्रत्येक स्थिति में सुखी व आनन्दित रहता है। यह सृष्टि ईश्वर ने अपनी प्रजा जीवात्माओं के लिए बनाई है। वह हमारा माता, पिता, गुरु व आचार्य भी है और असली राजा व न्यायाधीश भी वही है। वह परमात्मा ही सूर्य का समय पर उदय व उसको अस्त करता करता है, ऋतु परिवर्तन करता है और कृषि द्वारा हमें नाना प्रकार के अन्न, फल-फूल, वनस्पतियों एवं गो आदि पशुओं से दुग्ध एवं दुग्ध से निर्मित होने वाले पदार्थों को प्रदान कराता है। ज्ञान मनुष्य की मौलिक आवश्यकता है। आचरण व कर्तव्य-कर्मों का ज्ञान भी मनुष्यों को आदि काल में उसी से ऋषियों की आत्माओं में उपदेश द्वारा प्राप्त हुआ है। ईश्वरीय ज्ञान वेद की प्राप्ति व उपलब्धि एवं उसका आचरण ही सर्वोत्तम सुख, इहलौकिक व पारलौकिक अर्थात् मोक्ष का सुख, प्राप्ति का साधन है जिसे ईश्वर ने हमें प्रदान किया हुआ है। हम ईश्वर की व्यवस्था से एक शिशु के रूप में संसार में आते हैं, बढ़ते हैं, बालक व किशोर, उसके बाद युवा, प्रौढ़ और अन्त में वृद्ध हो जाते हैं। वृद्धावस्था में आकर हमारे शरीर की शक्तियों का ह्रास होता रहता है और किसी दिन अचानक या किसी रोग से, वस्त्र परिवर्तन की भांति, मृत्यु हो जाती है और फिर कर्मानुसार ईश्वर हमें फिर से नया जन्म प्रदान करता है।

 

यह तो हमने जान ही लिया है कि हम ईश्वर के परिवार के अंग है और ईश्वर का परिवार ही हमारा वास्तविक परिवार है जो मनुष्य व पशु परिवारों की तुलना में सबसे बड़ा है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक दिन ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्य पर विचार करे, स्वाध्याय करे, मित्रों व विद्वानों से चर्चा करें और आप्त पुरुषों का सत्संग करे। मनुष्यों की सहायता के लिए कर्तव्यों का विधान भी ईश्वर ने सृष्टि की आदि में प्रदत वेदों के ज्ञान द्वारा किया हुआ है। हमें केवल माता-पिता व आचार्यों से शिक्षा प्राप्त करनी है तथा गुरुओं व आचार्यों से संसार व इसके रहस्यों को जानना है। कृषि व वाणिज्य आदि कार्य करने हैं तथा इनसे इतर ईश्वर के प्रति हमें कृतज्ञ भाव रखते हुए उसकी वेद विधान ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम और भूयिष्ठान्ते नमः उक्तिं विधेम’ आदि द्वारा स्तुति, प्रार्थना, उपासना, अग्निहोत्र यज्ञ द्वारा हवि प्रदान करने सहित उसकी भक्ति करनी है। हमारे द्वारा भक्ति आदि इन सब कार्यों को करने से भी ईश्वर को कोई लाभ नहीं होता अपितु इसका लाभ भी हमें ही होता है। स्तुति से ईश्वर में प्रीति होती है और हम दुगुर्णों को त्याग कर ईश्वर के गुणों के अनुसार स्वयं को बनाने का प्रयत्न करते है। प्रार्थना में हम ईश्वर से ईश्वर व अन्य आवश्यक पदार्थों व सुख आदि को मांगते हैं। उपासना में ईश्वर से स्वयं को जोड़ते वा युक्त करते हैं जिससे संगति के गुण हमारी आत्मा में प्रविष्ट होते हैं जिससे हमारा ज्ञान व सामर्थ्य में वृद्धि होती है। उपासना ही ईश्वर का साक्षात्कार भी होता है जो कि मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है। हवन वा अग्निहोत्र करने से भी हमें शुद्ध प्राण वायु मिलती है जिससे हम स्वस्थ व निरोग रहते हैं और हमारा योग-क्षेम होता है। भक्ति से भी हमें परोपकार आदि की प्रेरणा मिलती है और हमारा मन सुख, शान्ति व प्रसन्नता से भर जाता है। अतः ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करना और प्रातः सायं वेद मन्त्रों से उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना, सन्ध्या व उसे हवि प्रदान करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है।

 

इस संक्षिप्त लेख मे हमने यह जाना कि ईश्वर का परिवार मनुष्य परिवारों में सबसे बड़ा है। सभी जीवात्मायें व प्राणी ईश्वर के परिवार के अंग व सदस्यों के समान है। ईश्वर हमारा माता, पिता, गुरु, आचार्य, राजा, न्यायाधीश और अग्रणीय नेता आदि है। इसके साथ ही हम इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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  1. आप के अन्य लेखों की तरह यह भी एक अच्छा लेख – धन्यवाद

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