“अलिफ़” के अधूरे सबक

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जावेद अनीस

मुस्लिम समाज में शिक्षा की चुनौती जैसे भारी-भरकम विषय को पेश करने का दावा, “लड़ना नहीं, पढ़ना जरूरी है” का नारा और जर्नलिस्ट से फिल्ममेकर बना एक युवा फिल्मकार, यह सब मिल कर किसी भी फिल्म के लिए एक जागरूक दर्शक की उत्सुकता जगाने के लिए काफी हैं. निर्देशक ज़ैगम इमाम के दूसरी फिल्म ‘अलिफ’  के साथ ना तो कोई बड़ा बैनर हैं और ना ही बड़ा स्टारकास्ट, इसलिए छोटे बजट से बनी इस फिल्म की विषयवस्तु ही इसकी खूबी हो सकती थी लेकिन दुर्भाग्य से फिल्म अपने विषयवस्तु के भार को झेल नहीं पाती है और एक अपरिपक्व सिनेमा बन कर रह जाती है.

 

कहानी का केंद्र बनारस है जहाँ दोषीपुरा के एक मुस्लिम बहुल बस्ती में हकीम रज़ा का परिवार रहता है. उनका बेटा अली अपने दोस्त शकील के साथ पास के एक मदरसे में हाफ़िज़ (पूरा कुरआन कठंस्थ कर लेना) की पढ़ाई करता है. सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहता है इस बीच हकीम रज़ा की बहन ज़हरा रज़ा जिन्हें दंगों के समय पाकिस्तान भेज दिया गया था वापस हिन्दुस्तान आती हैं. वे एक खुले दिमाग की महिला है और जोर दिलाकर अपने भतीजे अली का दाखिला “हिन्दुओं के बस्ती” में स्थित एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल में करा देती हैं. इस स्कूल में अली को एक टीचर द्वारा खूब परेशान किया जाता है. इधर दिल्ली से दीनी तालीम हासिल करके लौटा शकील का बड़ा भाई जमाल मदरसे का नया संचालक बना दिया जाता है. जमाल और मदरसे के अन्य कर्ता-धर्ता अली के पिता रजा पर दबाव डालते हैं कि वह अली को स्कूल के निकाल कर वापस मदरसे में दाखिल करा दें. इस बीच जहरा के वीजा का समय भी खत्म होने लगता है, रजा किसी तरह से रिश्वत और तिकड़म के सहारे जहरा को यहीं रोकने की कोशिश करते हैं, इसकी भनक जमाल को भी लग जाती है और वह इसे एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हुए रजा को धमकी देता है कि अगर उन्होंने अली को फिर से मदरसा नहीं भेजा तो वह पुलिस को जहरा के बारे में सच्चाई बता देगा. आखिरकार इन सब दिक्कतों से पार पाते हुए अली डाक्टर बनने में कामयाब हो जाता है. फिल्म के बीच में जमाल का अली की बड़ी बहन और शायरी से इश्क भी दिखाया गया है लेकिन बाद में वह “अल्लाह से मुहब्बत” करने लगता है.

 

जाहिर है ‘अलिफ़’ फिल्म दीनी और दुनियावी तालीम के बीच के कशमकश से डील करती है, लेकिन यह सच्चाई के करीब नहीं लगती है.दरअसल मदरसे भारतीय मुसलामानों में तालीमी पिछड़ेपन के कारण नहीं है. जनगणना 2011 के आंकड़े  बताते हैं कि भारत में करीब 42.72 प्रतिशत मुसलमान अनपढ़ हैं, इसके पीछे का प्रमुख कारण गरीबी और आर्थिक पिछड़ापन है. इसलिए समुदाय के बच्चों को बचपन में ही काम या हुनर सीखने में लगा दिया जाता है और जो बच्चे स्कूल जाते भी हैं उनमें भी बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने की दर बहुत अधिक है. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार केवल चार प्रतिशत मुस्लिम बच्चे ही मदरसों में पढ़ते हैं. इनमें ज्यादातर बच्चे इस समाज के सबसे गरीब तबकों और पसमांदा समाज (पिछड़े मुसलमान) से ही होते हैं. ऐसे में इस फिल्म में मदरसों को सबसे बड़े रूकावट के तौर पर पेश करना जमीनी हकीकत के करीब नहीं लगता है. भारत में मदरसों को लेकर एक और तथ्य है जिसका ध्यान रखा जाना चाहिए, मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा मदरसों में गुणवत्ता शिक्षा संवर्धन योजना (एसपीक्यूईएम) चलायी जा रही है, जिसका उद्देश्य मदरसों जैसी पारम्परिक संस्थाओं को वित्तीय मदद देकर उन्हें अपने पाठ्यक्रमों में विज्ञान, गणित, सामाजिक अध्ययन, हिंदी और अंग्रेजी की शिक्षा देने के लिए प्रोत्साहित करना है. इस योजना के साथ बड़ी संख्या में मदरसे जुड़े हैं. बेहतर होता अगर फिल्म बनाने से पहले इस मसले को लेकर थोड़ा रिसर्च कर लिया जाता.

 

फिल्म में जिस तरह से मदरसों और इसे चलने वालों के व्यवहार को पेश किया गया है उसको लेकर भी सवाल उठ सकते हैं. फिल्म में दिखाया गया है कि मदरसे के संचालक किसी भी कीमत पर अली को मदरसे में ही बनाये रखना चाहते हैं यह अति लगता है, हिन्दुस्तान में तो शायद ऐसा कोई कोना नहीं होगा जहाँ किसी परिवार पर अपने बच्चों को मदरसे में पढ़ाने के लिए इतना दबाव डाला जाता हो.

 

भारत में बहुसंख्यक दक्षिणपंथियों द्वारा मदरसों को लेकर लगातार सवाल उठाये जाते  रहे हैं. उनका आरोप है कि मदरसों में आतंकवाद की शिक्षा दी जाती है और यहाँ तिरंगा भी नहीं फहराया जाता है. फिल्म में भी एक ऐसा सीन है जब 26 जनवरी के मौके पर स्कूल में सभी बच्चे तिरंगा ले कर आते हैं और अकेला अली ही चांद-तारे वाला हरा झंडा (पाकिस्तानी झंडे का आभास देता हुआ) लेकर जाता है. भारत में शायद ही ऐसा कोई मदरसा हो जहाँ 26 जनवरी और 15 अगस्त ना मनाया जाता हो और वहां पढ़ने वाले बच्चों में चांद-तारे वाले हरे झंडे और तिरंगे के बीच फर्क का तमीज ना हो. फिल्म का यह सीन दुष्प्रचारों धारणाओं और गलतफहमियों को ही मजबूत करती है.

 

फिल्म का यह तर्क भी गले नहीं उतरता है कि अली के पिता खुद तो हकीम हैं और इसी के सहारे उनका परिवार चलता है लेकिन वे अपने बेटे को हाफिज बनाना चाहते हैं.

 

अपने विषयवस्तु से यह फिल्म ध्यान खींचती है लेकिन यह प्रभावी कहानी के रूप में तब्दील नहीं हो पाती है. अगर ऐसा हो पाता तो शायद इसके सिनेमाई खामियों को भी नजरअंदाज कर दिया जाता. फिल्म अपने उद्देश्यों को लेकर स्पष्ट नहीं है और कई विषयों को एक साथ उठाने की कोशिश की गयी है जिससे कोई भी बात स्पष्ट रूप से सामने नहीं आ पाती है. फिल्म का विषय तो वास्तविक है लेकिन इसकी पटकथा और किरदार बनावटी लगते हैं.

ऑफ़ बीट सिनेमा का मूल मकसद मनोरंजन नहीं होता है लेकिन ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि ऑफ़ बीट सिनेमा के नाम पर कुछ भी परोस दिया जाए. वैसे भी आजकल ऑफ़ बीट और मुख्यधारा की सिनेमा के बीच फर्क कम होता जा रहा है और कई ऐसे प्रतिभाशाली फिल्ममेकर सामने आये है तो इस मुश्किल संतुलन को साधने में कामयाब रहे हैं. लेकिन अलिफ़ इस संतुलन को साधना तो दूर यह एक अच्छी ऑफ़ बीट फिल्म भी नहीं बन पाती है. कुल मिलाकर अलिफ़ वास्तविक विषय पर एक अवास्तविक फिल्म है जो दुखद रूप से आपको निराश करती है ना तो यह मनोरंजन देती है और ना ही कोई सन्देश देने में कामयाब हो पाती है उलटे ग़लतफ़हमी जरूर पैदा करती है.

ज़ैग़म इमाम इससे पहले ‘दोज़ख़ इन सर्च ऑफ़ हेवेन’ नाम की फिल्म बना चुके है और यहाँ भी उन्होंने अपने विषयवस्तु के चुनाव से चौकाया था. बहुमुखी प्रतिभा से लैस इस फिल्मकार से उम्मीदें कायम हैं. उम्मीद है अगली बार वे और तैयारी के साथ वापसी करेंगें.

 

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