अभिव्यक्ति की आजादी नहीं अलगाववादी नारे

सुरेश हिन्दुस्थानी
भारत में देश विरोधी गतिविधियों को जिस प्रकार से समर्थन मिलता दिखाई दे रहा है, वह किसी भी प्रकार से सही नहीं कहा जा सकता है। यहां पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारे देश में ही राष्ट्रवाद पर सवाल खड़े किए जाते हैं, जबकि अन्य देशों में ऐसे प्रकरणों पर कठोर कार्यवाही करने का प्रावधान है। दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के रामजस महाविद्यालय में घटित हुए ताजे प्रकरण ने राष्ट्रवाद के हमले को नए सिरे से दोहराया है, एक बार फिर अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर अलगाववाद को महिमामंडित करने का प्रयास किया गया। ऐसे मामलों में कुछ राजनीतिक दलों से संरक्षण प्राप्त करने वाले लोग जानबूझकर राष्टविरोधी गतिविधियों को संचालित करते हैं, लेकिन पूर्व योजना के अनुसार सारा ठीकरा केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार पर फोड़ा जाता है। यह बात सही है कि ऐसे मामले नरेन्द्र मोदी को बदनाम करने के लिए ही किए जा रहे हैं। जिन्हें हवा देने का काम हमारे देश के राजनीतिक दल कर रहे हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय में घटित पूर्व की घटना को ध्यान में रखा जाए तो यह बात दिखाई देती है कि उस समय खुले रुप में भारत के टुकड़े करने के नारे लगाए गए। जिसे हमारे देश के कांग्रेसी और आम आदमी पार्टी के नेताओं ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम देकर समर्थन दिया गया। इन नेताओं ने कभी भी इस बात का अध्ययन नहीं किया कि इस मामले में लगाए गए नारों का क्या अर्थ है। कश्मीर की आजादी के नारे का मतलब क्या है। हम जानते हैं कि जम्मू कश्मीर में अलगाववादियों द्वारा बिलकुल इसी तरह के नारे लगाए जाते हैं। भारत की धरती पर अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ऐसे प्रदर्शन हालांकि कोई नई बात नहीं रह गये। देश के महाविद्यालयों में वामपंथी विचारधारा से जुड़े छात्र संगठनों द्वारा ऐसे ही देश विरोधी प्रदर्शन किये जाते रहे। लेकिन ऐसे मौकों पर जब कोई राष्ट्रवादी संगठन विरोध के लिये उतरता है तो वामपंथी विचारधारा के समर्थक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग अभिव्यक्ति की आजादी का राग अलापने लगते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों को केवल दिखायी पड़ता है तो राष्ट्रवादी संगठनो का विरोध। दिल्ली यूनीवर्सिटी के रामजश कॉलेज में भी देशद्रोही उमर खालिद के कार्यक्रम से बौखलाये वामपंथी छात्र संगठनों द्वारा जमकर देश के विरूद्ध हुये नारेबाजीबीकी गयी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने जब उसका मुंह तोड़ जवाब दिया तो भारत की पूरी राजनीति दिल्ली विश्वविद्यालय में जाकर सिमट गयी। हमेशा ही संघ तथा संघ से जुड़े राष्ट्रवादी संगठनों को निशाने पर लेने की ताक में रहने वाले भारत के दोगले राजनेताओं ने कॉलेज का यह विवाद अपने हाथों में ले लिया। विदेशी आर्थिक सहयोग के सहारे राजनीति करने वाले सीताराम येचुरी तथा अरविंद केजरीवाल जैसे सैकड़ों नेताओं को इसमे केन्द्र सरकार की साजिश नजर आने लगी। इन दोगले नेताओं से पूछा जाना चाहिये कि क्या वह ऐसी नारेबाजी का समर्थन करते हंै। जो भारत के टुकड़े करने की बात करती है।
धर्म निर्पेक्षता के नाम पर क्या यह देशद्रोहियों को यंू ही पनाह देते
रहेंगे। आखिर इन्हें हिन्दु, हिन्दुत्व तथा राष्ट्रवाद की अवधारणा से
परेशानी क्या है। हमेशा ही ऐसे लोग राष्ट्रद्रोह से जुड़े मुद्दों से
लोगों का ध्यान हटाने के लिये कुतर्कों का सहारा लेकर देश को गुमराह करते
रहे हंै। इनसे पूछा जाना चाहिये कि इन्हें आखिर राष्ट्र सेवा करने वाले
हर उस संगठन से आखिर इतनी नफरत क्यों है।
वर्तमान में देश में जिस प्रकार का वातावरण तैयार करने की साजिश की जा
रही है, वह देश के लिए घातक तो है ही, साथ राष्ट्रवाद को विवादित करने की
भी एक बहुत बड़ी साजिश का हिस्सा है। यहां पर सबसे बड़ी विचित्र बात यह
है कि भारत में धर्म निरपेक्षता के नाम पर होने वाली कार्यवाही को बहुत
बड़ा समर्थन मिल जाता है, जबकि राजनीतिक तौर पर राष्ट्रवाद का विरोध किया
जाता है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि जब हमारा राष्ट्रवाद ही खतरा में आ
जाएगा, तब हमारी क्या स्थिति होगी। इसका हमें अध्ययन करना होगा। हमारी
कमजोरी दुश्मन देशों को मजबूत करने का काम करेगी।
सवाल यह आता है कि आखिर राष्ट्रहित से जुड़े हर मुद्दे पर इनका विरोध
प्रदर्शन करने का उद्देश्य क्या है। जब इन विरोध करने वाले नेताओं की ठीक
प्रकार से जांच की जाएगी तो सारा षड्यंत्र सामने आ जाएगा, इससे बार-बार
भौंकने वाले इन नेताओं की जुबान पर ताला तो लगेगा ही। साथ ही यह भी तय है
कि देशद्रोह के आरोपों में इन्हें जेल भी जाना होगा।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली
में कन्हैया नामक छात्र नेता मुख्य भूमिका में था उमर खालिद सहायक भूमिका
निभा रहा था, इस बार उमर खालिद मुख्य भूमिका में आ गया। आयोजकों के दिमाग
में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का वह प्रकरण अवश्य रहा होगा कि
अलगाववादी ताकत ही ऐसे आयोजन करके विवाद उत्पन्न करते हैं, अन्यथा
अलगाववादी मानसिकता के किसी छात्र नेता को व्याख्यान हेतु बुलाने का उचित
था। वामपंथी व कांग्रेसी विचारधारा आज किस मुकाम पर पहुंच गई है, इन्हें
अभिव्यक्ति की आजादी और ज्ञानवर्धन हेतु कन्हैया और उमर खालिद जैसे नेता
ही क्यों मिलते हैं। इस बार पूरे प्रकरण को हवा देने के लिए एक शहीद की
बेटी को भी आगे किया गया। कार्यक्रम का आयोजन करने वाले साजिशकर्ताओं को
संभवत: इस बात की जानकारी होगी कि देश में शहीदों के परिजनों के प्रति
बहुत सम्मान की भावना होती है। इसके बावजूद यह सच्चाई है कि कारगिल में
घुसपैठ पाकिस्तान ने की थी। ऐसे में पाकिस्तानी कुटिलता के विरुद्ध देश
की एकजुटता दिखनी चाहिए।
हम जानते हैं कि वर्तमान में देश के राजनीतिक दलों खासकर कांगे्रस और
वामपंथी दलों का अस्तित्व सवालों के घेरे में आता जा रहा है। वह लगातार
सिमटते जा रहे हैं, इतना ही नहीं उनका वैचारिक आधार भी समाप्त होता जा
रहा है। इसके बाद इन दलों को जिस प्रकार से सुधार की कवायद करना चाहिए,
वह नहीं की जा रही है। यह लगातार अपनी भूमिका के चलते विवादित होते जा
रहे हैं। जिसे देश की जनता समझ भी रही है। लेकिन यह बार बार ऐसे आयोजनों
का समर्थन करने की होड़ में लग जाते हैं, जो देश के लिए अत्यंत ही घातक
हैं। अब दिल्ली की शिक्षण संस्थानों में अलगाववाद की बात करने वालों के
समर्थन के लिए इन पार्टियों के नेता दौड़ पड़ते हैं मसला अभिव्यक्ति की
आजादी तक सीमित होता है तो कोई आपत्ति नहीं थी, इसका विस्तार अलगाववाद तक
नहीं होना चाहिए। राष्ट्रीय की एकता अखंडता के खिलाफ उठने वाली प्रत्येक
आवाज संविधान के विरुद्ध होती है। हमारे नेताओं को अभिव्यक्ति की आजादी
और अलगाववाद के बीच अंतर को समझना होगा। अलगाववाद की सीमा तक पहुंचने
वाली आवाज को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं कहा जा सकता। ऐसी बातें किसी
नागरिक को परेशान नहीं करती तो समझ लेना चाहिए उसकी देश के प्रति निष्ठा
संदिग्ध है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश विरोधी नारे लगाने वालों
का विरोध ना करना भी गलत है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज का विवाद सोशल मीडिया पर एक युद्ध
की तरह चल रहा है। आज ये विश्लेषण का विषय अवश्य है कि क्यों हर बार ऐसा
होता है कि भारत में कोई भी देश-विरोधी गतिविधि होती है और लोगों द्वारा
उसका विरोध होता है तो ये वामपंथी, कांग्रेसी और आप समेत सारे सेक्युलर
पार्टियों के नेता उन देशविरोधी तत्वों के समर्थन में खुलकर सामने आ जाते
हैं। पूरी तरह से निष्फल, अप्रांसगिक और आशाविहीन हो चुकी विपक्षी
पार्टियों को इन देशविरोधी तत्वों में आशा की नई किरण दिखाई पड़ी है।
वामपंथी खेमा तो पहले से ही देश-विरोधी कार्यों में संलिप्त रहा है,
कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट मँडरा रहा है और आम आदमी पार्टी इन
मुद्दों को उछालकर दिल्ली में अपनी नाकामियों को छुपाने का विफल प्रयत्न
कर रही है। इन सभी पार्टियों को ऐसा लगने लगा है कि असहिष्णुता के नाम पर
छाती पीटकर और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पुरजोर उपयोग करके वे ऐसा
ब्रह्मास्त्र चला रहे हैं जो शायद मोदी सरकार की बढ़ती लोकप्रियता को
रोकने में कारगर हथियार साबित हो सकता है। वास्तव में इस प्रकार की
राजनीति करके वे मानसिक दिवालिए पन को उजागर कर रहे हैं। भारत की जनता को
आज भी वह लोग भोली भाली मानकर ही व्यवहार कर रहे हैं, जबकि वर्तमान समय
में जनता बहुत समझदार हो चुकी है। उसे देश में होने वाले हर अच्छे बुरे
कृत्य का ज्ञान है। इसी कारण जनता इन देश विरोधी दलों को कई बार चुनाव
परिणाम के माध्यम से चेतावनी भी दे चुकी है। आगे भी जनता इनका निर्णय
करेगी।

सुरेश हिन्दुस्थानी

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