कपिलवस्तु का एक प्रमुख बौद्ध महाविहार-स्तूप

salargarhसालारगढ़

डा. राधेश्याम द्विवेदी

भारतीय संस्कृति एवं इतिहास में अध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक महापुरुषों का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है। महात्मा बुद्ध और तीर्थंकर महाबीर के प्रादुर्भाव से एक नये युग का सूत्रपात हुआ है।1 धर्म दर्शन तथा ललित कलाओ के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन दिखलाई पड़ने लगे हें। उत्तर प्रदेश के नेपाल की सीमा से लगे राप्ती नदी के उस पार वर्तमान बस्ती मण्डल के सिद्धार्थ नगर जिले के अन्तर्गत स्थित पिपरहवा ,गनवरिया एवं सालारगढ़ को असली कपिलवस्तु माना जाने लगा है। 1897 ई. में विलियम सी. पेप्पी, 1898 में श्री पी.सी. मुखर्जी तथा 1970-76 ई. में श्री के. एम. श्रीवास्तव के उत्खनन प्रमाणों से अब तक लगभग 1000 ई. पू. के प्रमाण लोगों के सामने आये थे परन्तु वर्तमान शताब्दी के महान पुरातत्ववेत्ता डा. बी. आर. मणि एवं डा. प्रवीन कुमार मिश्रा द्वारा उत्खनित अनुसंधानों (2012-13) के नवीनतम परिणामों 2 ने यह समय लगभग 1000 वर्ष और पीछे खीचते हुए 2000 ई. पू. तक इसकी प्राचीनता को सिद्ध कर दिया है। सिद्धार्थ नगर में अनेक बौद्ध स्थल स्थित हैं। चूंकि यह क्षेत्र विदेशी आक्र्र्रमणकारियों के रास्ते से हटकर था तथा यह प्राकृतिक रूप से समतल मैदान भी नही रहा । यहंा जंगल का विस्तार तथा तराई का भाग होने के जलप्लावन ज्यादा रहता था इसलिए इस भूभाग में छिपे स्मारक तथा स्थल बचे रहे ।

सिद्धार्थनगर जिले के नौगढ़ तहसील में बर्डपुर विकास खण्ड के अन्तर्गत विश्व प्रसिद्ध प्राचीन स्थल पिपरहवा से एक किमी. पूर्व में सालारगढ़ नामक एक पुरा बौद्धस्थल कपिलवस्तु का अंग स्वरूप एक महाविहार के रूप में स्थित है , जो लगभग 300 वर्षों तक धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बना रहा। यह भारत सरकार के अधीन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के द्वारा राष्ट्रिय महत्व का संरक्षित स्मारक एवं पुरास्थल है जिसे एक टीले पर प्राचीन विहार के अवशेष के रूप में देखा जा सकता है । यहां वर्ष 1975-76 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन अधीक्षण पुरातत्वविद् श्री के. एम. श्रीवास्तव ने एक लघु उत्खनन कराया था। यहां एक स्तूप तथा एक महाविहार परिसर प्रकाश में आया था। इसे प्राचीन स्थल के रूप में संरक्षित किया गया है।

महाविहारः-इस परिसर में स्थित महाविहार की योजना चतुर्भुजाकार नहीं है। इसके चारो ओर कक्षों का निर्माण किया गया है। सालारगढ़ का यह महाविहार योजना में आयताकार बन गया है। इसके एक के पीछे एक सेट वाले कक्ष बने हुए है। महाविहार की वड़ी यक्ष पूर्व पश्चिम में है। उत्खनन में जो पूरा क्षेत्र प्रकाश में आया वह पूर्व पश्चिम में 31.40 मी. लम्बा तथा उत्तर से दक्षिण 8.50 मी.चौड़ा है। इस महाविहार में उत्तर की ओर से सीढ़ियों द्वारा प्रवेश किया जा सकता है। पानी के जमाव से बचने के लिए एक ऊंचा चबूतरा चारो ओर बनाया गया है। सीढ़ियों की संख्या से इस निर्माण का स्पष्ट संकेत मिलता है। महाविहार के मुख्य दीवाल से 3.00 मी. तक सीढ़ियां बनवाई गई हैं। जिस भाग का आंशिक उत्खनन हुआ है उसमें ग्यारह कक्ष निकले हैं। बड़े कक्ष का आकार 6 ग 280 मी. से ज्यादा है। सबसे छोटे कक्ष का माप 3.25 ग 2.25 मी. है। एक कक्ष के पीछे दूसरा कक्ष बनने के कारण वे आपस मे जुड़े हुए हैं साथ ही साथ  वे अगल-बगल के कक्षों से भी जुड़े हुए है। इनके दरवाजो की चौड़ाई 0.90 मी. से एक मी. तक भिन्न – भिन्न है। वाहरी दीवाल की मोटाई एक जैसी नहीं है। इनकी अन्दरूनी दीवालें एक मी. मोटी है।

महाविहार के चारो ओर एक चहारदीवारी भी पहचानी गई है। सब मिलाकर इस महाविहार के निर्माण के तीन स्तर ज्ञात हुए हैं। इनकी निर्माण तिथियां द्वितीय शताब्दी ई.पू. से प्रथम शताब्दी ई. के मध्य आती है।

स्तूपः- महाविहार के उत्तर 30 मी. की दूरी पर पिपरहवा के स्तूप की तरह एक स्तूप की संरचना मिली है। यह स्तूप प्रारम्भिक अवस्था में बृत्ताकार योजना में बना हुआ था। इसका अधिकतम ब्यास 5.50 मी. है। बादके स्तर पर बहुत कुछ संभाव्य है कुशाणकाल में , जब मूर्ति पूजा बौद्ध धर्म में प्रचलन में आया था , इस स्तूप के आधार को वर्गाकार रूप मे परिवर्तित कर दिया गया। इसकी प्रत्येक भुजा 10.85 मी. है। इसके अवशेष इस प्रकार क्षतिग्रस्त एवं नष्टप्राय है कि वर्गाकार आधार के ताखे व आले सही स्थिति में स्थापित नहीं किये जा सकते है। ईंटों के आकार के आधार पर पिपरहवा के स्तूप द्वितीय काल 600 ई. पू. से 200 ई. पू. के हो सकते हैं।

नवीन अनुसंधान:- श्री के. एम. श्रीवास्तव के उक्त अध्ययन के लगभग 40 वर्ष बाद आस-पास के अन्य स्थलः प्रहलादपुर, सिसवनिया,खौराडीह, तकियापेर, दादौपुर, और मथुरा में हुए नये अनुसंधानों को ध्यान में रखते हुए तुलनात्मक रूप में वर्ष 2012-13 में नवीन उत्खनन 4 किया गया। इसका नेतृत्व भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन अपर महानिदेशक डा. बी. आर. मणि तथा लखनऊ मंडल के तत्कालीन अधीक्षण पुरातत्वविद् डा. प्रवीन मिश्रा ने किया था। इस बार क्षैतिज उत्खनन न करके लम्बवत उत्खनन किया गया है। कुल 12 टंªेचें खोदी गयी हैं जिनमें सर्वाधिक सात गनवरिया से तीन पिपरहवा सें तथा दो सालारगढ से चयनित की गई थीं।

सालारगढ़ के 2012-13 के उत्खनन के सर्वेक्षण के दौरान एक कुशाणकालीन सिक्का प्राप्त हुआ था। इसके सतह के अध्ययन के उपरान्त दो चतुर्थांश ;ग्ठ8 फकजण् प्प्प् एवं  ।2 फकजण् प्प् द्ध को उत्खनन के लिए चयनित किया गया । प्रथम खन्दक विहार परिसर के उत्तरी पूर्वी किनारे तथा विहार परिसर से 70 मी दूरी पर उत्खनित किया गया । यहां कुछ ईंटों के रोड़े, कुशाणकालीन एक सिक्का तथा षुंग कुशाणकालीन मृणपात्र ही प्राप्त हुए है। इसे छोड़कर अन्य कोई सांस्कृतिक अवशेष नहीं प्राप्त हुआ है। एसा प्रतीत होता है कि इस स्थल को अल्पकाल के लिए आवास हेतु चयनित किया गया था। हाल ही में की गई कृशि की गतिविधियां इस स्थान के सारे सांस्कृतिक अवशेषों को नष्ट कर दिये । यहां विहार एवं स्तूप के अवशेष के केवल आधर ही आधार बचे है।

निष्कर्ष:- इस नवीन उत्खनन के दौरान गनवरिया पिपरहवा एवं सालारगढ़ तीनो स्थलों से लगभग 80-85 चारकोल के नमूने रेडियो कार्वन परीक्षण के लिए बीरबल साहनी पाॅलीबाॅटेनिकल संस्थान को भेजे गये थे। इनका विकिरणमापी तिथि मांगी गयी थी । गनवरिया की मुणमूर्तियां पष्चातवर्ती उत्तरी काले चमकीले पात्र की तिथि 9वी.-8वीं शताव्दी तथा पूर्ववर्ती उत्तरी काले चमकीले पात्र का समय लगभग 12वीं शताव्दी ई.पू. ताम्रपाषाणकाल अनुमानित किया गया। परन्तु इनके कुछ आ चुके परिणाम बहुत ही चौकानेवाले आये हैं। अभी भी लगभग 40 नमूने के परिणाम कोई अलग ही कहानी बयां कर सकते हैं। अभी तक उपलब्ध परिणाम कपिलवस्तु की प्राचीनता गौतम बुद्ध के जन्म से लगभग 1500 वर्ष पुरानी ग्राम्य संस्कृति की झलक प्रस्तुत कर रहे हैं । इस प्रकार गनवरिया एवं पिपरहवा स्थल 2000 ई. पू .अपनी पहचान बना चुकी थी। यह स्थल यहां से 30 किमी. दूर स्थित नेपाल के तिलौराकोट से भी अधिक प्राचीन प्रमाणित हो जाती है।

लखनऊ विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष डा. डी. पी. तिवारी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि गंगा की घाटी में मानव आवास के नगरीय प्रमाण लगभग 700 ई. पू. के आसपास प्राप्त होना यह बताता है कि यह स्थल उस समय शाक्यों की राजधानी रही। उनके विचार में यहां शाक्यों के पूर्व ग्रामीण आवासीय व्यवस्था रही। डा. तिवारी का मानना है कि पिपरहवा में कोई महल संरचना प्राप्त नहीं हुई है। यहां केवल मठ विषयक संरचना को ही देखा गया है,जबकि गनवरिया पिपरहवा के पास की ही संरचना है जो पूर्णतः महल संरचना है। एसा इसलिए भी है कि वर्तमान समय में दोनों पृथक-पृथक स्थल बन गये हैं, जबकि प्राचीन समय में वे दोनों एक ही स्थल थे। राष्ट्रिय संग्रहालय इलाहाबाद के निदेशक डा. राजेश पुरोहित का मानना है कि पिपरहवा और तिलौराकोट दोनों स्थल प्राचीन समय में एक ही रहे होंगे। वर्तमान सीमा रेखा कुछ शताब्दी पूर्व ही बनाई गई है।

मैंने बस्ती के अपने शोध में यह उल्लखित किया है कि बस्ती मण्डल का उत्तरी भूक्षेत्र दो बार नेपाल सरकार को दिया गया है। 1814 -16 के मध्य अंग्रेज और गोरखाओंके मध्य युद्ध हुआ था। 4 मार्च 1816 को सुगौली संधि के माध्यम से नार्थ वेस्टर्न प्राविंस का यह तराई भाग गोरखाओं के नेपाली सरकार को हस्तान्तरित हुआ था। 5 1857 के भारत के विद्रोह में अंग्रेजों का साथ देने के पारितोशिक रूप में भी व्रिटिषकालीन बस्ती का उत्तरी पट्टिका नेपाल सरकार को प्रदान किया गया था। 6 इस प्रकार नेपाली भाग बस्ती का ही पहले अंष रहा है। इसलिए पिपरहवा गनवरिया ही कपिलवस्तु के मूल स्थल प्रमाणित होते हैं। नेपाल के कपिलवस्तु को कम तथा भारत के कपिलवस्तु को ज्यादा प्रमाणिकता प्राप्त हुई है। सलारगढ़ स्थल परवर्ती काल में विकसित इन्हीं दो प्रमुख स्थलों का विस्तार माना ता सकता है।

यूनेस्को के मापदण्ड पर ये तीनों पुरास्थल सटीक बैठते हैं। इसे विश्वदाय सूची में कपिलवस्तु के विस्तारित स्थल के रूप में पंजीकृत किया जाना चाहिए। भारत सरकार को इस विश्वस्तरीय स्मारक का विशेषरूप से देखरेख करना चहिए तथा इस क्षेत्र के विकास के लिए विशेष प्रयास करना चाहिए। भारत सरकार एवं उत्तर प्रदेश सरकार को भी इस क्षेत्र को प्राथमिकता से लेते हुए विकसित कराना चाहिए। इस स्थान को रेलवे के मानचित्र से सम्बद्ध करना चाहिए। यहां अन्र्तराष्ट्रिय हवाई पट्टी, वौद्ध संग्रहालय, विश्वविद्यालय तथा कला केन्द्र विकसित किया जाना चाहिए। कई सदियो दर सदियो से उपेक्षित इस महान सांकृतिक केन्द्र को केन्द्र के नियंत्रण में रखकर विशेष पैकेज प्रदान कर देश के अन्य सांस्कृतिक स्थलों के समकक्ष लाने का प्रयास करना चाहिए।

इस मण्डल का मूल निवासी होने का गौरव मुझे है। अपने शोध का विषय बस्ती का पुरातत्व  चयन करते समय मुझे बस्ती के इस वैभव का ज्ञान नहीं था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, उ. प्र. राज्य पुरातत्व संगठन, गोरखपुर, वाराणसी तथा लखनऊ विश्वविद्यालयों के विद्वानों ने इस मण्डल के सुदूर क्षेत्रों का जो अन्वेशण तथा उत्खनन किया है विशेषकर पेप्पी , पी. सी. मुखर्जी, के. एम. श्रीवास्तव, डा. बी. आर मणि तथा डा. प्रवीन कुमार मिश्रा जिनकी रिर्पोटो को आधार बनाने के कारण मैं उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हॅू। आगरा मण्डल के सहायक पुरातत्वविद् डा. अर्खित प्रधान तथा डा. महेन्द्रपाल ने  अपने प्रयोगिक अनुभवों के आधार पर अनेक तकनीकी शंकाओ का समाधान किया हैं। छायाचित्रकार श्री मोहित कुमार ने चित्रों के संकलन में सहयोग किया हैं। मैं अपने इन सभी सहयोगियों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हॅू।

 

 

 

संदर्भः

1.            द्विवेदी, राधेश्याम , 1993: ’’बस्ती का पुरातत्व ’’, अप्रकाशित शोध प्रबन्ध पृ. 95

2.            यूपीज पिपरहवा इज बुद्धाज कपिलवस्तु: टाइम्स आफ इण्डिया, न्यू डेलही ,05.5.2015 , पृ. 4

3.            श्रीवास्तव , के. एम.,1986:एक्सक्वेसन एट पिपरहवा एण्ड गनवरिया मीमायर्स आफ द ए. एस. आई , नई दिल्ली , पृ. 52

4.            मणि बी. आर.एण्ड प्रवीन कुमार. मिश्रा , 2013 ’’ फर्दर एक्सवेसन ( 2012-13 ) एट पिपरहवा गनवरिया एण्ड टोला सालारगढ़ डिस्टिक सिद्धार्थ नगर: पुरातत्व बुलेटिन नं. 43 नई दिल्ली, पृ. 141-48

5.            द्विवेदी, राधेश्याम 1993: बस्ती का पुरातत्व , अप्रकाशित शोध प्रबन्ध पृ. 35

6.            सिंह, विजय पाल , 1990: ’’ बस्ती का इतिहास , पृ. 12

 

चित्रों का विवरण:-

1.            कपिवस्तु  तथा पासपड़ोस का मानचित्र,

2.            तीनो प्रमुख स्थलों की स्थिति दर्षाने वाला मानचित्र  .

3.            महाविहार का एक बाहय परिदृष्य

4.            मठ में उतरने की सीढ़ी

5.            मठ के एक कक्ष का दरवाजे सहित चित्र

2 COMMENTS

  1. सालार गढ़ एक छोटी साइट होकर कपिल वस्तु का एक अंग भी है.इसके विकास की पूरी कोशिश की जानी चहिये.बौद्ध समाज और ASI को इस पर ध्यान देनी चाहिये.डाक्टर सौरभ द्विवेदी RIMS &र SAFAI

  2. Aapke es ati mahhattvpurn lekh ko padhne ke baad ye lagta hai ki. Abhi Basti ki mati me sahitykaar paida ho rahe hain. Hm aapko saadar abhinandan karte hain

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