“प्रसिद्ध आर्य भजनोपदेशक पं. सत्यपाल पथिक जी से भेंट और उनसे कुछ पुराने प्रेरणाप्रद संस्मरणों का श्रवण”

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मनमोहन कुमार आर्य

वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून का आजकल शरदुत्सव चल रहा है। यहां आर्यजगत के प्रसिद्ध गीतकार और भजनोपदेशक पं. सत्यपाल पथिक जी पधारे हुए हैं। कल भी उनके अनेक भजनों को सुना और आश्रम में रात्रि भोजन से पूर्व काफी देर तक उनसे बातें हुई। बाद में उनके साथ ही भोजन करने का सुअवसर मिला। आज भी उनसे रात्रि भोजन से पूर्व बातें हुई। पथिक जी ने हमें आर्यसमाज के पुराने प्रसिद्ध संन्यासी स्वामी अमर स्वामी जी का एक संस्मरण सुनाया। उन्होंने बताया कि स्वामी जी और उनके शिष्य श्री लाजपत अग्रवाल आर्य जी राजस्थान के किसी समाज के उत्सव से आ रहे थे। उनके पास साहित्य व अन्य सामान भी था। रेल यात्रा करते हुए उनकी जेब कट गई। रास्ते में उन्होंने जब अपनी जेब में अनायास हाथ डाला तो जेब कटने का ज्ञान हुआ। उन्होंने श्री लाजपत आर्य जी को इसकी जानकारी दी। उन्होंने अगले स्टेशन पर अपना समस्त सामान उतार लिया और स्टेशन मास्टर को जाकर आपबीती सुनाई। उन्होंने बताया था कि हम आर्यसमाज के प्रचारक हैं। अमुक स्थान पर प्रचार करके लौट रहे हैं। यात्रा के बीच हमारी जेब कट गई है। हमारे पास कोई धन नहीं है। रेल टिकट भी उसी जेब में थे। स्टेशन मास्टर ने कहा कि आप यहां न उतर कर आगे चले जाते। यदि टीटी आता तो उसे वास्तविकता बता देते। स्वामी जी ने ऐसा करना उचित नहीं समझा था। उन्होंने स्टेशन मास्टर, जो कि एक सज्जन व्यक्ति था, उससे निवेदन किया कि हमारे पास बिक्री करने के लिये आर्यसमाज का साहित्य है। यदि आप अनुमति दें तो इसे यहां लगा लें और टिकट के पैसों जितनी बिक्री होने पर हम इसे हटा लेंगे। उन पैसों से दिल्ली का टिकट लेकर, जो भी अगली ट्रेन दिल्ली के लिये जायेगी, उससे चले जायेंगे। स्टेशन मास्टर की साहित्य बेचने की अनुमति मिल गई। साहित्य जल्दी ही बिक गया। स्टेशन मास्टर ने भी कुछ पुस्तकें खरीदीं। स्वामी जी ने श्री लाजपत आर्य जी को कहकर अपना सामान बंधवाया और टिकट लेकर दिल्ली के लिये चल पड़े। यह आर्यसमाज के एक प्रमुख विद्वान विप्र संन्यासी की सत्य के पालन की प्रेरणाप्रद घटना है। पथिक जी ने बताया कि यह घटना उन्हें अमर स्वामी जी ने अपने श्रीमुख से बताई थी। स्वामी जी और पथिक जी अनेक बार लम्बी-लम्बी प्रचार यात्राओं में साथ साथ रहे थे।

दूसरी घटना पं. चमूपति जी से सम्बन्धित है। एक बार पं. चमूपति जी अपनी पत्नी और बच्चे के साथ यात्रा कर रहे थे। उन्होंने दो टिकट, एक अपना और दूसरा अपनी धर्मपत्नी का, लिया हुआ था। पुत्र छोटा था इसलिये उसका टिकट नहीं लिया था। रास्ते में टिकट चैक करने वाला आ गया। उसने पण्डित जी से उस बच्चे की आयु पूछी। पण्डित जी हिसाब लगाकर बताया कि आज दिन के 12.00 बजे ही यह तीन साल का हुआ है। उसने बताया कि 3 साल के बच्चे का आधा टिकट लगता है। यह घटना सन् 1938 से पहले की है। पण्डित जी ने उस टिकट परीक्षक से इस घटना पर दुःख व्यक्त किया। उन्होंने उस अधिकारी को कहा कि आप इस गलती का जो दण्ड होता है, वह बतायें। यह टिकट परीक्षक भी सज्जन व्यक्ति था। उसने कहा कि आप इसे तीन वर्ष से कम का बतायें परन्तु पण्डित चमूपति जी नहीं माने। अन्य सहयात्रियों ने भी पण्डित जी को समझाने का प्रयत्न किया। पण्डित चमूपति जी ने बच्चे का टिकट बनवाया और पूरा दण्ड दिया। पंडित सत्यपाल पथिक जी ने बताया कि उस टिकट परीक्षक ने पण्डित जी के पैर छुए। उनके पैरों की धूल को सिर पर लगाया और वह हमेशा के लिये उनका और आर्यसमाज का भक्त बन गया। पण्डित सत्यपाल पथिक जी ने यह भी बताया कि पण्डित चमूपति जी के सुपुत्र श्री लाजपत जी बहुत विद्वान् थे। वह गुरूकुल गौतमनगर में रहा करते थे। एक बार स्वामी दीक्षानन्द जी और पं. सत्यपाल पथिक जी गुरुकुल के कार्यालय में बैठे थे। श्री लाजपत जी भी वहां दूर बैठे थे। स्वामी जी ने कहा कि देखों मैं आपको श्री लाजपत जी की प्रतिभा व योग्यता से परिचित कराता हूं। दीक्षानन्द जी ने लाजपत जी को कहा कि पथिक जी आपसे कुछ पूछना चाहते हैं। लाजपत जी ने स्वामी दीक्षानन्द को टाल दिया। पथिक जी ने भी आग्रह किया। पथिक जी ने उनसे दो वेद मन्त्रों के अर्थ पूछे। कुछ ही देर बात लाजपत जी दो खाली पन्ने लिये और उन पर उन मन्त्रों का संस्कृत में अन्वय, पदार्थ व हिन्दी भाषार्थ व भावार्थ आदि सब कर दिया। पथिक जी ने बताया कि वह कई भाषायें जानते थे और संस्कृत के भी विद्वान थे। ऐसा सुना गया था कि उन्होंने वेदों का अंग्रेजी में भाष्य कर रखा है। वह बोलते कम थे और कई बार प्रश्नों के उत्तर भी नहीं देते थे। उनका भाष्य कहां गया किसी को पता नहीं। उन्होंने कौन कौन से ग्रन्थ लिखे यह भी किसी को पता नहीं। हम भी एक बार ज्चालापुर में श्री लाजपत जी से आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी के निवास पर मिले थे। आचार्य जी ने हमें उनसे मिलाया था। वह लोगों से बहुत कम बातें करते थे। हमें आज ज्ञात हुआ कि उनके विवाह की कहीं बात चली थी। किसी कारण वह विवाह नहीं हो सका। शायद उसी कारण उनका दिल टूट गया था। अनेक भाषाओं के विद्वान होकर भी उन्होंने अध्यापन आदि कार्य भी भली प्रकार से नहीं किया।

 

पथिक जी से अन्य अनेक विषयों पर भी बातें हुईं। पथिक जी लगभग 80 वर्ष के हैं। उन्हें एक बार हृदयाघात हुआ है। वह विगत 62 वर्षों से आर्यसमाज का प्रचार कर रहे हैं। उन्होंने देश के अधिकांश भागों में जाकर प्रचार किया है। उनके पुत्र श्री दिनेश पथिक जी भी उत्तम कोटि के भजनोपदेशक हैं। हमने तपोवन आश्रम, देहरादून तथा आर्यसमाज धामावाला, देहरादून सहित टंकारा में उनके भजन सुने हैं। आजकल वह मारीशस में हैं और वहां उन्हें अच्छी सफलता मिल रही है। पंडित सत्यपाल पथिक जी ने सहस्रों गीतों व भजनों की रचना की है। प्रायः सभी आर्य भजनोपदेशक उनके रचे गीत गाते हैं। आर्यसमाज के बाहर के भजनीक भी उनके गीतों को गाते हैं। स्वामी रामदेव जी ने स्वयं स्वीकार किया कि वह पथिक जी के अधिकांश गीत गाते हैं। उन्होंने पथिक जी को एक लाख रुपये का पुरस्कार देकर भी सम्मानित किया है। पथिक जी सचमुच एक देवता है। उनमें किसी के प्रति राग-द्वेष व पक्षपात नहीं है और न ही किसी से कोई विरोध व वैरभाव। वह सबका हित चिन्तन करते हैं। सबको प्रसन्न हृदय से आशीर्वाद देते हैं। हम इस अवसर पण्डित सत्यपाल पथिक जी के स्वस्थ जीवन एवं दीर्घायु की कामना करते हैं।

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