उ.प्र: गिरती साख हिन्दी संस्थान की

 

संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का नाम जहन में आते ही कई पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए देश-दुनिया में अपनी अलग पहचान दिलाने वाला हिन्दी संस्थान आजकल ‘बेकारी’ के दौर से गुजर रहा है। बात ज्यादा पुरानी नहीं है जब साहित्यिक केन्द्रों की स्थापना,छात्र-छात्राओं को शोध कार्यो हेतु सहायता, फेलोशिप योजना, सहित्यकार कल्याण कोष, स्मृति संरक्षण योजना, बाल साहित्य तथा संवर्धन योजना के लिए जाना-पहचाना जाने वाला और चिकित्सा विज्ञान एवं तकनीकी पुस्तकों के लेखन, भारतीय भाषाओं की प्रमुख कृतियों के अनुवाद,साहित्य पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के लिए राज्य का हिंदी संस्थान एक मात्र विश्वसनीय नाम समझा जाता था ,लेकिन अब ऐसा नहीं है। करीब 34 वर्ष पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के कार्यकाल में स्थापित हुआ हिन्दी संस्थान तब तक तो ठीकठाक चलता रहा जब तक प्रदेश में कांग्रेस की सरकार रही,लेकिन जैसे ही प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकारों के गठन का दौर शुरू हुआ हिन्दी संस्थान के भी बुरे दिन शुरू हो गए। आज स्थिति यह है कि हिन्दी संस्थान एक तरफ पैसे की तंगी से जूझ रहा है तो दूसरी तरफ इसकी पहचान बने प्रतिष्ठित पुरूस्कार लगातार विवादों में फंसते जा रहे हैं।कभी कार्यकारी अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान होकर साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी,अमृत लाल नागर, अशोक जी,राम लाल सिंह,डा0 शिव मंगल सिंह ‘सुमन’ भक्त दर्शन ,परिपूर्णानंद वम्मा,डा0शरण बिहारी गोस्वामी,लक्ष्मी कांत वर्मा,गोपला दास ‘नीरज’ और कार्यकारी उपाध्यक्ष की कुर्सी पर राजनाथ सूर्य, सोम ठाकुर आदि ने यहां अपनी सेवाएं दी थीं लेकिन आज कोई सााहित्यकार इससे जुड़ना पसंद नहीं करता है। संस्थान की स्थापना के साथ ही एक परम्परा बन गई थी जिसके अनुसार यहां कार्यकारी अध्यक्ष की कुसी पर साहित्यकारों को ही मौका दिया जाता था,यह दौर काफी समय तक चलता रहा लेकिन मौका मिलने पर कई आईएएस अधिकारी भी इस पर बैठने का मोह नहीं छोड़ पाए।यही वजह थी शंभू नाथ जैसे आईएएस अधिकारियों को भी हिन्दी संस्थान की सेवा करने का मौका मिल गया। राज्य का मुख्यमंत्री हिन्दी संस्थान का पद्ेन अध्यक्ष होता हैं,ऐसे में इस बात से कैसे इंकार किया जा सकता है कि यहां राजनीतिक फ्लेवर न दिखाई दे ।

एक तरफ संस्थान में कार्यकारी अध्यक्ष की कुर्सी पर साहित्यकारों के मनोनयन की परम्परा थी तो दूसरी तरफ निदेशक का पद काफी सोच-विचार के बाद आईएएस अधिकारी के लिए रखा गया था ताकि इन अधिकारियों के माध्यम से संस्थान और सरकार के बीच सामजस्य बना रहे। लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां सेवा करने के मौकों को आईएएस अधिकरियों ने सजा से रूप में ही लिया। यहां अधिकारियों की पोस्टिंग के साथ ही उनके ट्रांसर्फर की चर्चा शुरू हो जाती थी।एक-दो को छोड़कर कोई भी निदेशक साल भर भी नहीं टिका। 30 जून 2009 से कार्यकारी पूर्णकालीन अध्यक्ष और 26 अप्रैल 2010 से निदेशक का पद खाली पड़ा है। जिस कारण यहां का काम सुचारू रूप से नहीं चल पा रहा है। आईएएस अधिकारी और प्रमुख सचिव (भाषा) अशोक घोष ही इस समय निदेशक और कार्यकारी अध्यक्ष का कामकाज देख रहे हैं, लेकिन काम की अधिकता के कारण वह यहां समय कम ही दे पाते हैं। जिस कारण भी संस्थान का काम प्रभावित हो रहा हैं।साधारण सभा और कार्यकारिणी समिति भंग पड़ी है। हिंदी संस्थान में अध्यक्ष और निदेशक की नियुक्ति माया सरकार द्वारा नहीं किए जाने से क्षुब्ध होकर कुछ लोगों ने अदालत का दरवाजा भी खटखटा दिया तो इसी साल फरवरी के महीने में डा.नूतन ठाकुर, निर्मला राय,डा.प्रणव कुमार मिश्रा,राजेन्द्र प्रसाद सिंह आदि की याचिका पर इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने राज्य सरकार को हिंदी संस्थान में पूर्णकालीन कार्यकारी अध्यक्ष एवं निदेशक की नियुक्ति करने के साथ-साथ साधारण सभा और कार्यकारिणी समिति के गठन का आदेश जारी किया था, लेकिन उस पर अभी तक अमल नहीं हो पाया है।इसके साथ ही हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने हिन्दी संस्थान द्वारा दिए जाने वाले अनेक पुरस्कारों के कई सालों से वितरित नहीं किए जाने पर भी नाराजगी जताई,लेकिन अदालती आदेश पर काम करने की बजाए बचाव के नए रास्ते तलाशे जाने लगे। मुलायम राज में तो यहां थोड़ा-बहुत काम हुआ भा लेकिन माया राज में तो हिन्दी संस्थान की तरह नजर उठा कर देखने का भी समय किसी के पास नहीं है।

मंहगाई बढ़ रही है,लेकिन यहां आने वाली मदद में लगातार कटौती की जा रही है। आर्थिक तंगी के कारण के कारण संस्थान को अपनी गुणवत्ता और कार्यक्रमों की संख्या घटा कर समझौते करने पड़ रहे हैं। ज्यादा पीछे न जाकर बात सत्तारूढ़ माया सरकार की ही कि जाए तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि पिछले तीन सालों से बसपा सरकार इसका बजट कम करती जा रही है। संस्थान को मिलने वाले पैसा और संस्थान के खर्चो के बीच में विरोधाभास की स्थिति यह है कि सरकारी मदद हिन्दी संस्थान के लिए ‘ ऊॅेट के मुंह में जीरा ‘ साबित हो रही है। चौतरफा मंहगाई बढ़ रही है लेकिन यहां का योजनागत बजट 2007-2008 और 2008-2009 के लिए 16 लाख रूपए था जो 2009-2010 के लिए घटा कर मात्र छह लाख रूपए कर दिया गया। इस वर्ष इसे और भी कम कर दिया गया।

हिन्दी साहित्यकारों की रीढ़ माना जाने वाला यह संस्थान आज स्वयं रीढ़ विहीन हो गया है। संस्थान का पद्ेन अध्यक्ष मुख्यमंत्री होता है। इस लिए समय-समय पर यहां राजनीति भी देखने को मिलती रहती हैं। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री सी बी गुप्ता ने अपने शासनकाल में 07 अप्रैल 1967 को इस संस्थान का शिलान्यास किया था।इसी लिए गैर कांग्रेसी सरकारों ने इसे कांग्रेसी संस्था के रूप में अधिक महत्व दिया। शुरूआती दौर में हिन्दी संस्थान ने न केवल देश में बल्कि देश से बाहर भी काफी नाम कमाया।हिन्दी संस्थान की नींव पड़ने के करीब पन्द्रह साल बाद इस परिसर में एक अगस्त 1982 (राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन की जन्म शताब्दी के मौके पर) को तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्रा ने राजर्षि की प्रतिमा का यहां स्थापना करने के साथ ही हिन्दी संस्थान का नया नाम ‘राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन हिन्दी संस्थान’ करने की घोषणा की। राजर्षि टंडन का हिन्दी प्रेम जगजाहिर था।वह हिन्दी को देश की आजादी के पहले ”आजादी प्राप्त करने का” और आजादी के बाद ”आजादी बनाए रखने का साधन” मानते थे। हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने में राजर्षि की महत्वपूर्ण भूमिका के कारण ही उनका नाक हिन्दी संस्थान से जोड़ा जाना गौरव की बात कही जाने लगी। वह देश की धरोहर तो थे ही उत्तर प्रदेश के गंगा किनारे जिला प्रयाग में पैदा होने के कारण उत्तर प्रदेश के प्रति उनका अतिरिक्त लगाव था। यही वजह थी उनकी विचारधारा कांग्रेसी होने के बाद भी किसी ने हिन्दी संस्थान का नामकरण उनके नाम पर किए जाने का विरोध नहीं किया। इसमें शायद ही किसी प्रकार का मतभेद हो कि ज्ञान और साहित्य की ज्योति फैलाने के लिए स्थापित संस्थान का अतीत शानदार रहा है,मगर कई परेशानियों और संसाधनों की कमी से जूझ रहे इस संस्थान का भविष्य भी ऐसा ही रहेगा, इसकी संभावनाएं बहुत कम हैं।

बात संस्थान के अतीत की कि जाए तो हिन्दी संस्थान को अपनी सेवाएं देने वाले बाल मुकुंद कहते हैं संस्थान ने कई दुर्लभ पाण्डुलिपियों का प्रकाशन किया है। संस्थान द्वारा प्रकाशित कुछ पुस्तकों की रिकार्ड बिक्री हुई,जो लम्बे समय तक चर्चा में रही। इनमें मुख्य रूप से ‘भारतीय इतिहास कोश’,’ हिंदू धर्मकोश और ‘उर्दू-हिन्दी शब्दकोश’ ऐसी किताब हैं जिसकी हर वर्ष पांच हजार से अधिक प्रतियां बिकती हैं और इसके अब तक 11 से अधिक संस्करण निकल चुके हैं। एक समय था जब संस्थान साहित्य, कला, विज्ञान और हिन्दी के प्रचार-प्रसार में योगदान करने वालों को सम्मानित करने के लिए 87 पुरस्कार (52 लाख रूपए की धनराशि से) वितरित करता था, जिसमें साहित्य के क्षेत्र के ‘भारत भारती सम्मान’, ‘हिन्दी गौरव सम्मान, ‘साहित्य भूषण सम्मान’, ‘लोहिया साहित्य सम्मान’ और ‘महात्मा गांधी सम्मान,अवन्ती बाई, साहित्य भूषण सम्मान प्रमुख थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए संस्थान ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’,पत्राकारिता भूषण सम्मान तथा पत्रकारिता के अतिरिक्त भूषण सम्मान, बालकृष्ण भट्ट सम्मान,प्रसार भारतीय हिंदी गौरव सम्मान, हिंदी विदेश प्रसार सम्मान आदि पुरूस्कार अपनी लोकप्रियता के कारण हमेशा चर्चा में रहे। आज की तारीख में उक्त में से मात्र तीन सम्मान ही जारी रह गए हैं। इसमें साहित्य का सबसे बड़ा सम्मान ‘भारत भारती’, ‘हिन्दी गौरव और महात्मा गांधी साहित्य सम्मान हैं। इसके अलावा साहित्य भारती और बालवाणी पुस्तिका का प्रकाशन कुछ हद तक संस्थान की साख बचाए है। हिन्दी संस्थान पर मंडराते काले बादलों से साहित्यकार तो परेशान हैं लेकिन प्रदेश सरकार को कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।

सम्मान पर संकट

हमेशा विवादों में रहने वाला उत्तार प्रदेश हिन्दी संस्थान एक बार फिर संकट में फंस गया लगता है। यह संकट प्रदेश का सबसे बड़े पुरस्कार ‘भारत-भारती’ के लिये चुने गए साहित्यकार अशोक वाजपेयी के पुरस्कार वितरण समारोह में भाग लेने में अनिच्छा जाहिर करने से पैदा हुए है। अशोक वाजपेयी ने संस्थान के पुरस्कारों की संख्या 87 से घटा कर तीन किये जाने के फैसले पर पुनर्विचार के सुझाव पर माया सरकार से कोई जवाब नहीं मिलने और पुरस्कार वितरण समारोह में मुख्यमंत्री या राज्यपाल के शिरकत नहीं करने की कथित सूचना को अपना अपमान करार दिया। श्री वाजपेयी ने बताया कि उन्होंने प्रदेश के भाषा विभाग के प्रमुख सचिव अनिल घोष को पत्र लिखकर सुझाव दिया है कि उनकी पुरस्कार राशि उन्हें डाक से भेज दी जाए और अगर इसमें कोई अड़चन है तो सरकार उस धनराशि को अपने पास रख ले। इस बारे में घोष से बात करने पर उन्होंने कहा कि उनका इस मामले पर किसी तरह की टिप्पणी करना उचित नहीं होगा। वाजपेयी ने बताया कि संस्थान के पुरस्कार प्रभारी हरीश नारायण सिंह ने 18 फरवरी को उनसे फोन पर बातचीत में पुरस्कार वितरण समारोह के लिये उपयुक्त तिथि पूछी थी। साथ ही उन्होंने यह भी बताया था कि समारोह में मुख्यमंत्री मायावती या राज्यपाल बीएल जोशी के बजाय प्रदेश सरकार के मंत्रिमण्डल के कोई सदस्य शिरकत करेंगे।

श्री वाजपेयी ने कहा कि मुख्यमंत्री और राज्यपाल को साहित्य के क्षेत्र में दिये जाने वाले प्रदेश के सबसे बड़े पुरस्कार के वितरण समारोह में शामिल होने की अगर फुरसत नहीं है तो यह साहित्यकारों का अपमान है। वाजपेयी का कहना था कि उन्होंने गत छह जनवरी को हिन्दी संस्थान की ओर से पुरस्कारों की घोषणा किये जाने के बाद घोष को पत्र लिखकर कहा था कि पुरस्कार की संख्या को 87 से घटाकर तीन कर दिये जाने पर पुनर्विचार किया जाए लेकिन उन्हें इस पत्र का जवाब नहीं मिला। गौरतलब है कि हिन्दी संस्थान ने गत छह जनवरी को डॉक्टर वाजपेयी को वर्ष 2008 के भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित करने का ऐलान किया था। इस पुरस्कार के तहत दो लाख 51 हजार नकद तथा प्रशस्ति पत्र दिया जाता है। इसके अलावा एसआर यात्री को महात्मा गांधी पुरस्कार जबकि भवदेव पाण्डेय को हिन्दी गौरव अवार्ड देने की घोषणा की गई थी।

 

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संजय सक्‍सेना
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ निवासी संजय कुमार सक्सेना ने पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद मिशन के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत 1990 में लखनऊ से ही प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र 'नवजीवन' से की।यह सफर आगे बढ़ा तो 'दैनिक जागरण' बरेली और मुरादाबाद में बतौर उप-संपादक/रिपोर्टर अगले पड़ाव पर पहुंचा। इसके पश्चात एक बार फिर लेखक को अपनी जन्मस्थली लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'स्वतंत्र चेतना' और 'राष्ट्रीय स्वरूप' में काम करने का मौका मिला। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक 'आज' 'पंजाब केसरी' 'मिलाप' 'सहारा समय' ' इंडिया न्यूज''नई सदी' 'प्रवक्ता' आदि में समय-समय पर राजनीतिक लेखों के अलावा क्राइम रिपोर्ट पर आधारित पत्रिकाओं 'सत्यकथा ' 'मनोहर कहानियां' 'महानगर कहानियां' में भी स्वतंत्र लेखन का कार्य करता रहा तो ई न्यूज पोर्टल 'प्रभासाक्षी' से जुड़ने का अवसर भी मिला।

6 COMMENTS

  1. हिंदी के साथ इस तरह का सलूक उचित नहीं है.इस तरफ धयान देने की जरूरत है.उत्तर प्रदेश हिंदी का गढ़ है.वहां ऐसे होगा तो कैसे चलेगा .

  2. सर्कार इस तरह से हिंदी से मुह नहीं मोर सकती है .हिंदी हमारी अपनी भासा है.लेखक देश की रचनात्मक पहलु को दर्शाता है ,उन्हें नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता .

  3. हमारी राज भाषा हिदी की दुर्र्दशा हिन्दिभा शही राज्यों में ऐसी हे तो अहिन्दीभाषी राज्यों का क्या होगा?आज तो लोग जिसे हिंदी कहते हे , वो बाशा हिंदी और इंग्लिश का मिश्रान हे .ऐसे में आप दोनो भा षा का अपमान करते हे.किसीभी साहितीय में इन की रूचि नहीं हे ,न सिर्फ राजयसरकार पर हम सब जीमे दार हे.जो की हिंदी का प्रयोग करना अपना अपमान समजते हे ,आजादी के इतने बरस बीत जाने पर भी अगर हम अपनी राज बाशा को उसका सम्मान न दिला पाए तो हिंदी समितियों का क्या स्थान होगा ?आप और हम चिन्ता कर सकते हे,जिनके पास अधि कार हे वोहो जब तक जगेगे नहीं या उन्हें आदोलन से जगाया नहीं जायेगा ,तबतक यह समस्या रहेगी .

  4. गोयल जी मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ, अगर किसी देश की माँ भाषा को सम्मान दिलाना है तो उसमे सरकार को दृढ इच्छा शक्ति दिखानी पड़ती है, जो कम से कम मुझे तो नहीं दिख रही है, पूरा देश कॉन्वेंट और पब्लिक विद्यालयों से पात दिया गया है और सबसे मजेदार बात यह है की इन विद्यालयों में व्यक्ति अपने बच्चों को सिर्फ इसलिए प्रवेश दिलाना चाहता है क्योंकि उसके पड़ोस का बच्चा इसी तरह के विद्यालय में पढता है, आप और हम कितनी भी कोशिश कर ले यह अंग्रेजी अभियान रुकने वाला नहीं है, हालांकि इन पब्लिक या कॉन्वेंट विद्यालय में पढने वालों के लिए मैं एक बात अवश्य कहना चाहूँगा की रेव पार्टियों और अय्याशियों की महफ़िलों की और जाने वाले रास्ते इन्ही विद्यालयों से होकर गुजरते हैं, आज सभी को बड़े बड़े पैकेज चाहिए लेकिन वास्तविक जीवन नहीं.और ये बातें किसी को भी समझाना बहुत टेडी खीर है.

  5. संस्थान की बात क्या करे जब देश में हिंदी भाषाई लोगो की संख्या ही निरंतर गिरती जा रही है | अब पूरे देश में पब्लिक – कान्वेंट स्कूलों की भरमार है | हर व्यक्ति को इस बात की चिंता है की उस के बच्चे सिर्फ अंग्रेजी ही पढ़े, अंग्रेजी ही खाएं, अंग्रेजी ही पिए, अंग्रेजी ही बोले, अंग्रेजी ही पहने – कहने का मतलब यही है की अब किस को हिंदी संस्थान की ज़रुरत है| क्या होगा हिंदी न पढने से | जितने नाम आपने लेख में पढ़े – वे सब हिंदी के महापुरुष रहे हैं | सभी एक से एक धुन्धर रहे हैं | लेकिन आज की पीढ़ी के किसी भी छात्र की बात क्या करे – आज के किसी राजनेता को भी इन के बारे में पता नहीं है और न ही किसी को इस बारे में जानने की आवश्यकता है | एक बार प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई कुछ हिंदी के साहित्यकारो के सम्मान समारोह में भाग ले रहे थे| विद्वानों में जब वयोवृद्ध साहित्यकार श्री किशोरी दास वाजपेयी का नाम बोला गया और वाजपेयी जी कुर्सी से उठने का प्रयत्न करने लगे तो मोरार जी भाई ने उसी समय कहा – पंडित जी वहीँ रहिये – मैं वहीँ आ जाता हूँ और मोरारजी भाई ने वाजपेयी का सम्मान उन की कुर्सी पर जा कर ही किया | देश के प्रधान मंत्री के पद के सामने एक साहित्यकार अधिक उंचा समझा गया और यह समझ उस समय के प्रधान मंत्री को थी | कितने लोग जानते हैं इस बात को – अब तो हम अपने राजनेताओ और अधिकारियों के लिए इतना ही कह सकते है की हे प्रभु हमारी रक्षा करें

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